राणाजी म्हे तो गोविन्द का गुण गास्या

राणाजी म्हे तो गोविन्द का गुण गास्या

राणाजी म्हे तो गोविन्द का गुण गास्यां
राणाजी, म्हे तो गोविन्द का गुण गास्यां।
चरणामृत को नेम हमारे, नित उठ दरसण जास्यां॥
हरि मंदर में निरत करास्यां, घूंघरियां धमकास्यां।
राम नाम का झाझ चलास्यां भवसागर तर जास्यां॥

या
राणाजी म्हें तो गोविंद का गुण गास्याँ।
चरणामृत को नेम हमारो नित उठ दरसण जास्याँ॥
हरि मंदिर में निरत करास्याँ घुँघरियाँ घमकास्याँ।
राम नाम का झाँझ चलास्याँ भव सागर तर जास्याँ॥
यह संसार बाड़ का काँटा ज्याँ संगत नहिं जास्याँ।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर निरख परख गुण गास्याँ॥


राणा जी मैं तो गोविन्द का गुण गास्यां (मीरा जी) 
 

राणाजी म्हे तो गोविन्द का गुण गास्या भजन का हिंदी में अर्थ 

इस भजन में मीरा बाई, अपने पति (राणाजी) को कहती हैं की लोग भले ही कुछ भी कर लें, दबाव बना लें लेकिन वे तो हरी (कृष्ण) जी की भक्ति करेंगी और कृष्ण के ही गुणों का गायन करेंगी.
राणाजी म्हें तो गोविंद का गुण गास्याँ।
अर्थ: राणाजी, मैं तो भगवान कृष्ण की महिमा के गुण गाती रहूँगी।

चरणामृत को नेम हमारो नित उठ दरसण जास्याँ॥
अर्थ: मेरे लिए चरणामृत का नाम ही सब कुछ है, मैं तो नित्य उठकर भगवान कृष्ण के दर्शनों को जाती रहूँगी।

हरि मंदिर में निरत करास्याँ घुँघरियाँ घमकास्याँ।
अर्थ: मैं हरि मंदिर में निरंतर भक्ति में लीन रहूँगी और घुँघरियाँ (घुंघरू) बाँध कर नाचूंगी.

राम नाम का झाँझ चलास्याँ भव सागर तर जास्याँ॥
अर्थ: मैं राम नाम के झाँझ को बजाते हुए भवसागर को पार कर जाऊँगी।

यह संसार बाड़ का काँटा ज्याँ संगत नहिं जास्याँ।
अर्थ: यह संसार बाड़ (खेत की मेड ) का काँटा है, जिसको साथ नहीं ले जाऊँगी।

मीरा के प्रभु गिरधर नागर निरख परख गुण गास्याँ॥
अर्थ: मैं मीरा हूँ, गिरधर कृष्ण की शरण में हूँ, मीरा के प्रभु गिरधर नागर जाँच-परखकर गुण गाऊँगी।

इस भजन में मीरा बाई अपनी भक्ति और समर्पण की भावना को व्यक्त करती हैं। वे भगवान कृष्ण के प्रेम में इतनी डूबी हुई हैं कि वे किसी और चीज़ की परवाह नहीं करती हैं। वे चाहे कुछ भी हो जाए, भगवान कृष्ण के गुणों का गायन करती रहेंगी और उनके चरणों में ही अपना जीवन बिता देंगी।
 
भक्ति की इस भावना में दृढ़ विश्वास और समर्पण का गहन स्वरूप दृष्टिगोचर होता है। ईश्वर के गुणगान में आत्मा का रम जाना केवल एक साधारण क्रिया नहीं, बल्कि उसके शाश्वत आनंद की अनुभूति है। जब भक्त अपने जीवन को प्रभु की सेवा, उनकी स्तुति और उनके स्मरण में अर्पित कर देता है, तब संसार की सीमाएँ स्वतः विलीन हो जाती हैं।

राम नाम का आह्वान जीवन की उस यात्रा को प्रकट करता है, जहाँ भवसागर को पार करने का दृढ़ संकल्प जागृत होता है। यह न केवल सांसारिक बंधनों से मुक्ति का संकेत है, बल्कि आत्मा की उस चैतन्य अवस्था तक पहुँचने का माध्यम भी है, जहाँ केवल परम सत्य का अनुभव होता है। जब चरणामृत को नेम बना लिया जाता है, तब भक्ति केवल बाहरी आचरण नहीं, बल्कि आत्मा की गहनतम पवित्रता बन जाती है।

मीरा की यह साधना बताती है कि जब प्रेम और श्रद्धा चरम पर पहुँचती है, तब जीवन के समस्त मोह और बंधन समाप्त हो जाते हैं। संसार में जो कांटों के समान विकार हैं, वे भक्त को विचलित नहीं कर सकते, क्योंकि उसका मन केवल प्रभु के गुणगान में मग्न है। यही भक्ति की उत्कृष्टता है—जहाँ आत्मा और परमात्मा एकत्व को प्राप्त कर लेते हैं, और केवल दिव्य प्रेम की अनुभूति ही शेष रहती है।
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