राणाजी म्हांरी प्रीति पुरबली मैं कांई करूं
राणाजी म्हांरी प्रीति पुरबली मैं कांई करूं
राणाजी, म्हांरी प्रीति पुरबली मैं कांई करूंराणाजी, म्हांरी प्रीति पुरबली मैं कांई करूं॥
राम नाम बिन नहीं आवड़े, हिबड़ो झोला खाय।
भोजनिया नहीं भावे म्हांने, नींदडलीं नहिं आय॥
विष को प्यालो भेजियो जी, `जाओ मीरा पास,'
कर चरणामृत पी गई, म्हारे गोविन्द रे बिसवास॥
बिषको प्यालो पीं गई जीं,भजन करो राठौर,
थांरी मीरा ना मरूं, म्हारो राखणवालो और॥
छापा तिलक लगाइया जीं, मन में निश्चै धार,
रामजी काज संवारियाजी, म्हांने भावै गरदन मार॥
पेट्यां बासक भेजियो जी, यो छै मोतींडारो हार,
नाग गले में पहिरियो, म्हारे महलां भयो उजियार॥
राठोडांरीं धीयड़ी दी, सींसाद्यो रे साथ।
ले जाती बैकुंठकूं म्हांरा नेक न मानी बात॥
मीरा दासी श्याम की जी, स्याम गरीबनिवाज।
जन मीरा की राखज्यो कोइ, बांह गहेकी लाज॥
Raanaajee, Mhaanree Preeti Purabalee Main Kaanee Karoon
इस भजन में भक्ति की गहनता और निष्ठा का स्वरूप प्रकट होता है। मीरा की प्रीति सांसारिक मोह-माया से परे है—यह प्रेम केवल भावनाओं तक सीमित नहीं, बल्कि त्याग, समर्पण और अटूट विश्वास की पराकाष्ठा को दर्शाता है। जब मनुष्य ईश्वर के प्रति इस स्तर का प्रेम विकसित कर लेता है, तब वह न तो भोजन में आनंद पाता है, न ही सांसारिक सुखों में—उसका हृदय केवल प्रभु में समर्पित रहता है।
मीरा की साधना में दृढ़ संकल्प की छवि दृष्टिगोचर होती है। जब विष का प्याला भेजा गया, तब उन्होंने इसे चरणामृत समझकर ग्रहण किया। यह केवल एक घटना नहीं, बल्कि उस निर्भीक विश्वास का प्रतीक है, जहाँ भक्त को यह ज्ञात होता है कि प्रभु की कृपा में कोई संकट उसे छू नहीं सकता। यही आत्मसमर्पण की वह स्थिति है, जहाँ शरीर की सीमाएँ समाप्त हो जाती हैं, और केवल आत्मा की शुद्धता शेष रहती है।
राम नाम की यह साधना केवल शब्दों तक सीमित नहीं, बल्कि आत्मा की मुक्ति का मार्ग बन जाती है। जब भक्त अपने अहंकार को त्यागकर ईश्वर की शरण में जाता है, तब वह संसार की सभी बाधाओं से ऊपर उठ जाता है। मीरा की यह भक्ति हमें यह सिखाती है कि प्रेम केवल मांगने का विषय नहीं, बल्कि त्याग और समर्पण की भावना से परिपूर्ण होता है। जब यह भाव जागृत होता है, तब भक्त और ईश्वर के बीच कोई दूरी नहीं रहती—केवल प्रेम, श्रद्धा और अटूट आस्था ही शेष रहती है।