राणोजी रूठे तो म्हारो कांई करसी

राणोजी रूठे तो म्हारो कांई करसी

राणोजी रूठे तो म्हारो कांई करसी
राणोजी रूठे तो म्हारो कांई करसी,
म्हे तो गोविन्दरा गुण गास्याँ हे माय।।
राणोजी रूठे तो अपने देश रखासी,
म्हे तो हरि रूठ्यां रूठे जास्याँ हे माय।
लोक-लाजकी काण न राखाँ,
म्हे तो निर्भय निशान गुरास्याँ हे माय।
राम नाम की जहाज चलास्याँ,
म्हे तो भवसागर तिर जास्याँ हे माय।
हरिमंदिर में निरत करास्याँ,
म्हे तो घूघरिया छमकास्याँ हे माय।
चरणामृत को नेम हमारो,
म्हे तो नित उठ दर्शण जास्याँ हे माय।
मीरा गिरधर शरण सांवल के,
म्हे ते चरण-कमल लिपरास्यां हे माय।


 

मीरा बाई के इस भजन का अर्थ

राणोजी रूठे तो म्हारो कांई करसी,
म्हे तो गोविन्दरा गुण गास्याँ हे माय।।

अर्थ: यदि राणोजी रूठ जाएँ तो मेरा क्या बिगाड़ लेंगे, क्या कर लेंगे ? मैं तो भगवान कृष्ण की महिमा के गुण गाती रहूँगी, मैं कृष्ण के ही भजन का गायन करुँगी

राणोजी रूठे तो अपने देश रखासी,
म्हे तो हरि रूठ्यां रूठे जास्याँ हे माय।

अर्थ: यदि राणोजी रूठ जाएँ तो वे अपने देश की रक्षा करेंगे, लेकिन मैं तो भगवान कृष्ण के रूठने पर उनके साथ ही रूठ जाऊँगी।

लोक-लाजकी काण न राखाँ,
म्हे तो निर्भय निशान गुरास्याँ हे माय।

अर्थ: मैं लोक-लाज की परवाह नहीं करूँगी, मैं तो निर्भय होकर भगवान कृष्ण के गुणों का गायन करती रहूँगी।

राम नाम की जहाज चलास्याँ,
म्हे तो भवसागर तिर जास्याँ हे माय।

अर्थ: मैं राम नाम के जहाज पर सवार होकर भवसागर को पार कर जाऊँगी।

हरिमंदिर में निरत करास्या,
म्हे तो घूघरिया छमकास्याँ हे माय।

अर्थ: मैं हरि मंदिर में निरंतर भक्ति में लीन रहूँगी और घूघरिया (घुंघरू) बाँध कर कृष्ण नाम का नृत्य करुँगी.

चरणामृत को नेम हमारो,
म्हे तो नित उठ दर्शण जास्याँ हे माय।

अर्थ: मेरे लिए चरणामृत का नाम ही सब कुछ है, मैं तो नित्य उठकर भगवान कृष्ण के दर्शनों को जाती रहूँगी।

मीरा गिरधर शरण सांवल के,
म्हे ते चरण-कमल लिपरास्यां हे माय।।

अर्थ: मैं तो मीरा हूँ, गिरधर कृष्ण की शरण में हूँ, मैं तो उनके चरण-कमलों को लिपटाती रहूँगी। मीरा बाई की यह ध्रुपद भजन उनकी भक्ति और समर्पण की भावना को दर्शाती है। वे भगवान कृष्ण के प्रेम में इतनी डूबी हुई हैं कि वे किसी और चीज़ की परवाह नहीं करती हैं। वे चाहे कुछ भी हो जाए, भगवान कृष्ण के गुणों का गायन करती रहेंगी और उनके चरणों में ही अपना जीवन बिता देंगी। यह भजन उन सभी भक्तों के लिए प्रेरणा है जो भगवान कृष्ण की भक्ति में लीन होना चाहते हैं।

संसार की लोक-लाज भक्त को विचलित नहीं करती, क्योंकि उसकी दृष्टि केवल प्रभु पर टिकी रहती है। राम नाम की यह साधना केवल शब्दों तक सीमित नहीं, बल्कि आत्मा की मुक्ति का मार्ग है। जब यह विश्वास जागृत होता है, तब भवसागर पार करने की शक्ति स्वयं साधक के भीतर जन्म लेती है। हरि मंदिर में नृत्य करने और चरणामृत को नित्य ग्रहण करने का भाव केवल भक्ति का रूप नहीं, बल्कि एक जीवन शैली बन जाता है।

मीरा का यह समर्पण बताता है कि जब भक्ति गहन हो जाती है, तब मनुष्य सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर केवल प्रभु के चरणों में स्वयं को विलीन कर देता है। यहाँ प्रेम केवल भावनात्मक नहीं, बल्कि आत्मा की शाश्वत शरणागति का प्रतीक बन जाता है। जब यह भाव साकार होता है, तब आत्मा और ईश्वर के बीच कोई दूरी नहीं रहती—सिर्फ प्रेम और आनंद का प्रवाह शेष रहता है।

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