हेरी मा नन्द को गुमानी

हेरी मा नन्द को गुमानी

हेरी मा नन्द को गुमानी म्हाँरे मनड़े बस्यो।।टेक।।
गहे द्रुमडार कदम को ठाड़ो, मृदु मुसकाय म्हारी ओर हँस्यो।
पीताम्बर कट काछनी, काले रतन जटित माथे मुकुट कस्यो।
मीराँ के प्रभु गिरधरनागर, निरख बदन म्हारो मनड़ो फँस्यो।।
(गुमानी=गर्वीला,घमंडी, मनड़े=मन में, द्रुम=वृक्ष,बदन=मुख)
 
मीराबाई अपनी सखी से कहती हैं कि उनका प्रियतम (भगवान श्रीकृष्ण) उनके पास नहीं आए। वह पूछती हैं कि संतों के साथ क्या किया जाए और किस मार्ग पर जाएं, क्योंकि उनका प्रियतम उनके पास नहीं है।
वह सोचती हैं कि अब कहां जाएं, क्योंकि उनके प्रियतम के बिना उनका मन व्याकुल है। मीराबाई कहती हैं कि वह भगवान श्रीकृष्ण की चरणों में अपने मन को लगाती हैं, क्योंकि वह उनके दर्शन की प्यास से व्याकुल हैं।

यह भजन मीराबाई की भगवान श्रीकृष्ण के प्रति अटूट भक्ति, उनके बिना जीवन की असहनीयता और उनके चरणों में मन को समर्पित करने की भावना को प्रकट करता है।

 
सुंदर भजन में श्रीकृष्णजी के मोहक स्वरूप और उनकी आकर्षक छवि की अद्भुत प्रस्तुति होती है। जब मन ईश्वर के प्रेम में पूर्णतः समर्पित हो जाता है, तब उनकी हर लीला, हर स्वरूप भक्त के हृदय में गहराई तक अंकित हो जाता है। श्रीकृष्णजी की मनमोहक मुस्कान, पीतांबर की शोभा, और उनके मुकुट में जटित रत्नों की आभा, यह सब प्रेम की गहनता को दर्शाता है। भक्त जब ईश्वर के दर्शन करता है, तो उसकी आत्मा उनके रूप में विलीन हो जाती है और संसार की समस्त चिंताओं से मुक्त हो जाती है।

मीराबाई का अनुराग केवल बाह्य सौंदर्य तक सीमित नहीं, बल्कि आत्मा की उस अवस्था को प्रकट करता है जहाँ ईश्वर का सान्निध्य ही एकमात्र सुख बन जाता है। यह भक्ति पूर्ण समर्पण और अनुराग की चरम सीमा को दर्शाती है। उनके मन में श्रीकृष्णजी के दर्शन की लालसा इतनी गहरी है कि वह स्वयं को उनके प्रेम में पूर्णतः अर्पित कर देती हैं।

यह भाव यह दर्शाता है कि जब प्रेम सच्चा और शुद्ध होता है, तब वह किसी बाह्य संबंध तक सीमित नहीं रहता, बल्कि आत्मा की गहनतम गहराइयों तक पहुँच जाता है। यही प्रेम मीराबाई को उनके प्रभु के चरणों में समर्पण की ओर प्रेरित करता है, जहाँ भक्ति ही जीवन का अंतिम सत्य बन जाता है।
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