सांवरो नन्द नन्दन दीठ पड्याँ माई

सांवरो नन्द नन्दन दीठ पड्याँ माई

सांवरो नन्द नन्दन, दीठ पड्याँ माई।
डार्यां सब लोक लाज सुध बुध बिसराई।
मोर चन्द्रका किरीट मुगट जब सोहाई।
केसर रो तिलक भाल लोचन सुखदाई।
कुण्डल झलकाँ कपोल अलकाँ लहराई।
मीणा तज सरवर ज्यों मकर मिलन धाई।
नटवर प्रभु भेष धर्यां रूप जग लोभाई।
गिरधर प्रभु अंग अंग, मीरा बलि जाई।।

(नन्दनन्दन=कृष्ण, दीठ=दृष्टि, चन्द्रका= पंख, कीरीट=मुकुट, अलकाँ=लटें, मीणा= मीन,मछली, सरवर=तालाब, मकर=मगर)

मीराबाई का भजन "सांवरो नन्द नन्दन, दीठ पड्याँ माई" उनके श्रीकृष्ण के प्रति गहरे प्रेम और भक्ति को व्यक्त करता है। इस भजन में मीराबाई श्रीकृष्ण की सुंदरता का वर्णन करती हैं, जो उनके हृदय में बसी हुई है। वह कहती हैं कि श्रीकृष्ण का ध्यान उनके मन और प्राणों में निरंतर बसा हुआ है।

सुन्दर भजन में श्रीकृष्ण की दिव्य आभा और उनकी अद्भुत छवि का भावपूर्ण चित्रण किया गया है। जब प्रभु का दर्शन होता है, तो समस्त लोकलाज और सांसारिक भावनाएँ विस्मृत हो जाती हैं। मन पूर्ण रूप से उनकी दिव्यता में रम जाता है, और उनकी अनुपम छवि आत्मा में स्थायी रूप से अंकित हो जाती है।

श्रीकृष्ण के अलौकिक स्वरूप का अनोखा वर्णन इसमें प्रस्फुटित होता है—मोरपंखयुक्त मुकुट, केसरिया तिलक, दीप्तिमान नेत्र, गालों पर झिलमिलाते कुंडल, और लहराते काले अलक। यह सौंदर्य केवल बाह्य नहीं, बल्कि उसमें ईश्वरीय प्रेम की गहरी अनुभूति भी समाहित है।

जब भक्त उनका साक्षात्कार करता है, तो उसकी दशा उस मछली के समान हो जाती है, जो अपने सरोवर को छोड़कर उन्मुक्त रूप से प्रभु की ओर दौड़ती है। यह भाव समर्पण की चरम अवस्था को दर्शाता है, जहाँ हर सांस, हर भावना केवल श्रीकृष्ण में विलीन हो जाती है।

श्रीकृष्ण का आकर्षण ऐसा है, जो समस्त संसार को विमोहित करता है। जब मन पूरी तरह से उनके प्रेम में रंग जाता है, तब जीवन की प्रत्येक अनुभूति केवल उनकी मधुर लीला में समाहित हो जाती है, और भक्त स्वयं को उनकी भक्ति में अर्पित कर देता है। मीरा इसी भाव में स्वयं को समर्पित कर आनंदित होती हैं।
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