मन अटकी मेरे दिल अटकी

मन अटकी मेरे दिल अटकी

मन अटकी मेरे दिल अटकी
मन अटकी मेरे दिल अटकी। हो मुगुटकी लटक मन अटकी॥टेक॥
माथे मुकुट कोर चंदनकी। शोभा है पीरे पटकी॥१॥
शंख चक्र गदा पद्म बिराजे। गुंजमाल मेरे है अटकी॥२॥
अंतर ध्यान भये गोपीयनमें। सुध न रही जमूना तटकी॥३॥
पात पात ब्रिंदाबन धुंडे। कुंज कुंज राधे भटकी॥४॥
जमुनाके नीर तीर धेनु चरावे। सुरत रही बनशी बटकी॥५॥
फुलनके जामा कदमकी छैया। गोपीयनकी मटुकी पटकी॥६॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। जानत हो सबके घटकी॥७॥

मन और हृदय कृष्ण की मोहक छवि में अटक गए हैं। उनके मुकुट की लटक, माथे का चंदन, और पीतांबर की शोभा ने मन को बांध लिया। शंख, चक्र, गदा, और कमल से सुशोभित, उनकी गुंजमाला में मन उलझ गया। गोपियों का ध्यान उनके प्रेम में डूबा है, यमुना का तट भी भूल गया। राधा वृंदावन की हर पत्ती, हर कुंज में उन्हें खोजती भटकती है।

यमुना के तट पर गायें चराते, उनकी मुरली की तान में सुरत अटक गई। फूलों की जामा, कदंब की छांव, और गोपियों की मटकी—सब उनके प्रेम में डूबे हैं। मीरां का मन गिरधर में रमा है, जो हर हृदय की गहराई को जानते हैं। यह भक्ति का वह प्रेम है, जो आत्मा को प्रभु के रंग में रंग देता है।
 
मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई॥
जाके सिर मोरमुगट मेरो पति सोई।
तात मात भ्रात बंधु आपनो न कोई॥
छांड़ि दई कुलकी कानि कहा करिहै कोई॥
संतन ढिग बैठि बैठि लोकलाज खोई॥
चुनरीके किये टूक ओढ़ लीन्हीं लोई।
मोती मूंगे उतार बनमाला पोई॥
अंसुवन जल सींचि-सींचि प्रेम-बेलि बोई।
अब तो बेल फैल गई आणंद फल होई॥
दूधकी मथनियां बड़े प्रेमसे बिलोई।
माखन जब काढ़ि लियो छाछ पिये कोई॥
भगति देखि राजी हुई जगत देखि रोई।
दासी मीरा लाल गिरधर तारो अब मोही॥

मोरी लागी लटक गुरु चरणकी॥ध्रु०॥
चरन बिना मुज कछु नही भावे। झूंठ माया सब सपनकी॥१॥
भवसागर सब सुख गयी है। फिकीर नही मुज तरुणोनकी॥२॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। उलट भयी मोरे नयननकी॥३॥

राणाजी, म्हे तो गोविन्द का गुण गास्यां।
चरणामृत को नेम हमारे, नित उठ दरसण जास्यां॥
हरि मंदर में निरत करास्यां, घूंघरियां धमकास्यां।
राम नाम का झाझ चलास्यां भवसागर तर जास्यां॥
यह संसार बाड़ का कांटा ज्या संगत नहीं जास्यां।
मीरा कहै प्रभु गिरधर नागर निरख परख गुण गास्यां॥
 
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