जावादे जावादे जोगी किसका मीत

जावादे जावादे जोगी किसका मीत

जावादे जावादे जोगी किसका मीत
जावादे जावादे जोगी किसका मीत।।टेक।।
सदा उदासी रहै मोरि सजनी, निपट अटपटी रीत।
बोलत वचन मधुर से मानूँ, जोरत नाहीं प्रीत।
 मैं जाणूं या पार निभैगी, छांड़ि चले अधबीच।
मीरां के प्रभु स्याम मनोहर प्रेम पियारा मीत।।
(जावा दे=जाने दे, उदासी=उदासीन, निपट=बिल्कलु)
 
सच्चे प्रेम की पहचान उसके सतत प्रवाह और आत्मीयता में निहित होती है। जब संबंध केवल मीठे वचनों तक सीमित रह जाए, किंतु उसमें प्रेम की गहराई न हो, तो वह केवल एक भ्रम ही रह जाता है। प्रेम का स्वरूप केवल आकर्षण नहीं, बल्कि आत्मा की पूर्ण समर्पण और निष्ठा में प्रकट होता है। जब यह भावना गहन होती है, तो वह किसी शर्त या सीमाओं में नहीं बंधती, बल्कि मुक्त रूप से प्रवाहित होती है।

मन की उदासी तब और अधिक बढ़ जाती है जब प्रेम में निश्चय का अभाव होता है। आधे रास्ते में संबंधों का छूट जाना आत्मा की सबसे कठिन परीक्षा बन जाती है। अनिश्चितता का यह भाव साधक को विचलित कर सकता है, लेकिन जो प्रेम सच्चा होता है, वह हर कठिनाई को पार कर जाता है। यह प्रेम कोई सांसारिक समझौता नहीं, बल्कि आत्मा का वह दिव्य मिलन है जो हर परिस्थिति में स्थिर रहता है।

प्रियतम का स्नेह केवल शब्दों में नहीं, बल्कि उसकी उपस्थिति में अनुभव होता है। जब प्रेम निष्ठा और श्रद्धा के साथ जुड़ता है, तब वह संपूर्णता को प्राप्त करता है। इसमें कोई शंका नहीं रहती, कोई संशय नहीं होता—यह केवल आत्मा की पूर्ण स्वीकृति और अनवरत समर्पण होता है।

मीरां का प्रेम केवल स्मरणीय नहीं, बल्कि एक जीवंत अनुभव है। जब आत्मा इस प्रेम में रम जाती है, तो उसका प्रत्येक क्षण उसी माधुर्य में डूब जाता है। यही भक्ति का सार है—जहाँ प्रेम, निष्ठा, और समर्पण एक-दूसरे में विलीन हो जाते हैं।
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