जोगिया जी आज्यो जी इण देस

जोगिया जी आज्यो जी इण देस

जोगिया जी आज्यो जी इण देस
जोगिया जी आज्यो जी इण देस।।टेक।।
नैणज देखूँ नाथ नै धाइ करूँ आदेस।
आया सावण भादवा भरीया जल थल ताल।
रावल कुण बिलमाई राखो, बिरहनि है बेहाल।
बरस्या बौहो दिन भया बल बरस्यौ पलक न जाई।
एक बेरी देह फेरी, नगर हमारे आइ।
वा मूरति म्हारे मन बसे छिन भरि रह्योइ न जाइ।
मीराँ के कोयई नाहिं दूजो, दरसण दीज्यौं आइ।।
 
(इण=इस, नैणज=नैनों से, आदेस=आदेश,निवेदन, रावल=प्रियतम को, कुण=किसने, बिलमाई=रोक लिया,  बेहाल= अत्यंत दुखी, बरस्या=बिछुड़े हुए, बौहो=बहुत, बल=अब, बरस्यौ=बिछड़ना, बेरी=बार)
 
विरह की घनीभूत वेदना तब और अधिक तीव्र हो जाती है जब प्रकृति भी उसी संवेदना को प्रतिबिंबित करती है। सावन और भादों की वर्षा जब धरती को भिगोती है, तब यह केवल जल ही नहीं, बल्कि प्रेम-वियोग की स्मृतियों को भी जाग्रत करता है। प्रेयस का विलंबित आगमन प्रेम में डूबी आत्मा को व्याकुल कर देता है, मानो उसका अस्तित्व उसी एक मिलन की प्रतीक्षा में ठहर गया हो।

प्रियतम का दर्शन मात्र जीवन की संपूर्णता का अनुभव कराता है। जब साधक की आंखें उस दिव्य स्वरूप को देखने को तरसती हैं, तब उसकी अधीरता प्रेम की पराकाष्ठा को दर्शाती है। यह केवल सांसारिक मिलन की प्रतीक्षा नहीं, बल्कि आत्मा की उस परम सत्ता से जुड़ने की उत्कंठा है, जो उसे पूर्णता प्रदान करेगी। जब यह विरह बढ़ता है, तब भीतर की पुकार एक अनवरत प्रार्थना बन जाती है—स्वयं को उस चेतना में विलीन करने की चाह।

अनेक सावन बीत गए, लेकिन विरहिणी की आंखें अब भी प्रिय के आगमन की राह तक रही हैं। विरह का यह काल केवल समय का प्रवाह नहीं, बल्कि आत्मा की उस अग्नि-परीक्षा का प्रतीक है, जिसमें प्रेम की निष्कपटता सिद्ध होती है। यह प्रेम किसी बाह्य प्रमाण पर नहीं टिका, बल्कि यह अपने आप में अनवरत प्रवाहित होने वाली एक श्रद्धा है, जो प्रियतम के दर्शन मात्र से समस्त पीड़ा को शांत कर देती है।

जब प्रेम अपने शुद्धतम स्वरूप को प्राप्त कर लेता है, तब उसके लिए कोई और अस्तित्व नहीं रहता। वह स्वयं में पूर्ण हो जाता है, और प्रिय की झलक उसकी समस्त व्यथा का समाधान बन जाती है। यही भक्ति का सर्वोच्च रूप है—जहाँ प्रेम और समर्पण एक-दूसरे में पूर्ण रूप से विलीन हो जाते हैं।
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