मरे तो गिरिधर गोपाल भजन
मरे तो गिरिधर गोपाल, दूसरों न कोई मीरा बाई पदावली
मरे तो गिरिधर गोपाल, दूसरों न कोई
जा के सिर मोर-मुकुट, मेरो पति सोई
छाँड़ि दयी कुल की कानि, कहा करिहैं कोई?
संतन द्विग बैठि-बेठि, लोक-लाज खोयी
असुवन जल सींचि-सींचि, प्रेम-बलि बोयी
छाँड़ि दयी कुल की कानि, कहा करिहैं कोई?
संतन द्विग बैठि-बेठि, लोक-लाज खोयी
असुवन जल सींचि-सींचि, प्रेम-बलि बोयी
अब त बेलि फॅलि गायी, आणद-फल होयी
दूध की मथनियाँ बड़े प्रेम से विलायी
दधि मथि घृत काढ़ि लियों, डारि दयी छोयी
भगत देखि राजी हुयी, जगत देखि रोयी
दासि मीरा लाल गिरधर तारो अब मोही
दूध की मथनियाँ बड़े प्रेम से विलायी
दधि मथि घृत काढ़ि लियों, डारि दयी छोयी
भगत देखि राजी हुयी, जगत देखि रोयी
दासि मीरा लाल गिरधर तारो अब मोही
गिरधर-पर्वत को धारण करने वाला यानी कृष्ण। गोपाल-गाएँ पालने वाला, कृष्ण। मोर मुकुट-मोर के पंखों का बना मुकुट। सोई-वही। जा के-जिसके। छाँड़ि दयी-छोड़ दी। कुल की कानि-परिवार की मर्यादा। करिहै-करेगा। कहा-क्या। ढिग-पास। लोक-लाज-समाज की मर्यादा। असुवन-आँसू। सींचि-सींचकर। मथनियाँ-मथानी। विलायी-मथी। दधि-दही। घृत-घी। काढ़ि लियो-निकाल लिया। डारि दयी-डाल दी। जगत-संसार। तारो-उद्धार। छोयी-छाछ, सारहीन अंश। मोहि-मुझे।
प्रभु के प्रति अनन्य प्रेम और पूर्ण समर्पण का भाव इस भजन में गूंजता है। मीरा का जीवन केवल गिरधर गोपाल के लिए है, उनके सिवा कोई दूसरा नहीं। मोर मुकुट वाले प्रभु ही उनके सच्चे स्वामी हैं, जिनके लिए उन्होंने कुल की मर्यादा और लोक-लाज को त्याग दिया। यह त्याग कोई कमजोरी नहीं, बल्कि प्रेम की ताकत है, जो संतों की संगति में और गहरा होता है। आंसुओं से सींचकर बोया गया प्रेम का बीज अब आनंद के फल देता है, जैसे मेहनत से बोया खेत फसल लहलहाता है। दही को मथकर घी निकालने की तरह, मीरा ने सांसारिक मोह को मथा और प्रभु के प्रेम का सार पा लिया, बाकी छाछ को त्याग दिया। संसार की नजरों में वह हारी, पर भक्तों की नजर में उसका प्रेम जीता। यह प्रेम ही उसे प्रभु के करीब ले जाता है, जहाँ आत्मा उनके चरणों में विश्राम पाती है। उदाहरण के लिए, जैसे दीया तेल जलाकर भी रोशनी देता है, वैसे ही मीरा का समर्पण संसार को प्रभु प्रेम की ज्योति देता है। उनकी दासी बनकर वह मुक्ति की याचना करती है, जो प्रभु का प्रेम ही दे सकता है।
मीरा बाई इस पद में अपने आराध्य श्रीकृष्ण के प्रति गहन प्रेम और भक्ति को व्यक्त करती हैं। वह यमुना नदी से जल भरने जाती हैं, लेकिन खड़ी होकर जल भरने पर उन्हें श्रीकृष्ण के दर्शन होते हैं, और बैठकर भरने पर उनकी चुनरी भीग जाती है। श्रीकृष्ण के मोर मुकुट और पीतांबर की शोभा, उनकी मुरली की मधुर ध्वनि, मीरा के मन को मोहित कर लेती है। अंत में, मीरा स्वयं को गिरिधर नागर के चरणों की दासी मानती हैं, जो उनके समर्पण और भक्ति की पराकाष्ठा को दर्शाता है।
हारे मारे शाम काले मळजो । पेलां कह्या बचन पाळजो ॥ध्रु०॥
जळ जमुना जळ पाणी जातां । मार्ग बच्चे वेहेला वळजो ॥१॥
बाळपननी वाहिली दासी । प्रीत करी परवर जो ॥२॥
वाटे आळ न करिये वाहला । वचन कह्युं तें सुनजो ॥३॥
घणोज स्नेह थयाथी गिरिधर । लोललज्जाथी बळजो ॥४॥
मीरा कहे गिरिधर नागर । प्रीत करी ते पाळजो ॥५॥
हूं जाऊं रे जमुना पाणीडा । एक पंथ दो काज सरे ॥ध्रु०॥
जळ भरवुं बीजुं हरीने मळवुं । दुनियां मोटी दंभेरे ॥१॥
अजाणपणमां कांइरे नव सुझ्यूं । जशोदाजी आगळ राड करे ॥२॥
मोरली बजाडे बालो मोह उपजावे । तल वल मारो जीव फफडे ॥३॥
वृंदावनमें मारगे जातां । जन्म जन्मनी प्रीत मळे ॥४॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर । भवसागरनो फेरो टळे ॥५॥
हारे जावो जावोरे जीवन जुठडां । हारे बात करतां हमे दीठडां ॥ध्रु०॥
सौ देखतां वालो आळ करेछे । मारे मन छो मीठडारे ॥१॥
वृंदावननी कुंजगलीनमें । कुब्जा संगें दीठ डारे ॥२॥
चंदन पुष्पने माथे पटको । बली माथे घाल्याता पछिडारे ॥३॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर । मारे मनछो नीठडारे ॥४॥
कृष्णमंदिरमों मिराबाई नाचे तो ताल मृदंग रंग चटकी ।
पावमों घुंगरू झुमझुम वाजे । तो ताल राखो घुंगटकी ॥१॥
नाथ तुम जान है सब घटका मीरा भक्ति करे पर घटकी ॥ध्रु०॥
ध्यान धरे मीरा फेर सरनकुं सेवा करे झटपटको ।
सालीग्रामकूं तीलक बनायो भाल तिलक बीज टबकी ॥२॥
बीख कटोरा राजाजीने भेजो तो संटसंग मीरा हटकी ।
ले चरणामृत पी गईं मीरा जैसी शीशी अमृतकी ॥३॥
घरमेंसे एक दारा चली शीरपर घागर और मटकी ।
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर । जैसी डेरी तटवरकी ॥४॥
कौन भरे जल जमुना । सखीको०॥ध्रु०॥
बन्सी बजावे मोहे लीनी । हरीसंग चली मन मोहना ॥१॥
शाम हटेले बडे कवटाले । हर लाई सब ग्वालना ॥२॥
कहे मीरा तुम रूप निहारो । तीन लोक प्रतिपालना ॥३॥
जळ जमुना जळ पाणी जातां । मार्ग बच्चे वेहेला वळजो ॥१॥
बाळपननी वाहिली दासी । प्रीत करी परवर जो ॥२॥
वाटे आळ न करिये वाहला । वचन कह्युं तें सुनजो ॥३॥
घणोज स्नेह थयाथी गिरिधर । लोललज्जाथी बळजो ॥४॥
मीरा कहे गिरिधर नागर । प्रीत करी ते पाळजो ॥५॥
हूं जाऊं रे जमुना पाणीडा । एक पंथ दो काज सरे ॥ध्रु०॥
जळ भरवुं बीजुं हरीने मळवुं । दुनियां मोटी दंभेरे ॥१॥
अजाणपणमां कांइरे नव सुझ्यूं । जशोदाजी आगळ राड करे ॥२॥
मोरली बजाडे बालो मोह उपजावे । तल वल मारो जीव फफडे ॥३॥
वृंदावनमें मारगे जातां । जन्म जन्मनी प्रीत मळे ॥४॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर । भवसागरनो फेरो टळे ॥५॥
हारे जावो जावोरे जीवन जुठडां । हारे बात करतां हमे दीठडां ॥ध्रु०॥
सौ देखतां वालो आळ करेछे । मारे मन छो मीठडारे ॥१॥
वृंदावननी कुंजगलीनमें । कुब्जा संगें दीठ डारे ॥२॥
चंदन पुष्पने माथे पटको । बली माथे घाल्याता पछिडारे ॥३॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर । मारे मनछो नीठडारे ॥४॥
कृष्णमंदिरमों मिराबाई नाचे तो ताल मृदंग रंग चटकी ।
पावमों घुंगरू झुमझुम वाजे । तो ताल राखो घुंगटकी ॥१॥
नाथ तुम जान है सब घटका मीरा भक्ति करे पर घटकी ॥ध्रु०॥
ध्यान धरे मीरा फेर सरनकुं सेवा करे झटपटको ।
सालीग्रामकूं तीलक बनायो भाल तिलक बीज टबकी ॥२॥
बीख कटोरा राजाजीने भेजो तो संटसंग मीरा हटकी ।
ले चरणामृत पी गईं मीरा जैसी शीशी अमृतकी ॥३॥
घरमेंसे एक दारा चली शीरपर घागर और मटकी ।
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर । जैसी डेरी तटवरकी ॥४॥
कौन भरे जल जमुना । सखीको०॥ध्रु०॥
बन्सी बजावे मोहे लीनी । हरीसंग चली मन मोहना ॥१॥
शाम हटेले बडे कवटाले । हर लाई सब ग्वालना ॥२॥
कहे मीरा तुम रूप निहारो । तीन लोक प्रतिपालना ॥३॥