फूल मंगाऊं हार बनाऊं
फूल मंगाऊं हार बनाऊं
फूल मंगाऊं हार बनाऊं
फूल मंगाऊं हार बनाऊं। मालीन बनकर जाऊं॥१॥
कै गुन ले समजाऊं। राजधन कै गुन ले समजाऊं॥२॥
गला सैली हात सुमरनी। जपत जपत घर जाऊं॥३॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। बैठत हरिगुन गाऊं॥४॥
फूल मंगाऊं हार बनाऊं। मालीन बनकर जाऊं॥१॥
कै गुन ले समजाऊं। राजधन कै गुन ले समजाऊं॥२॥
गला सैली हात सुमरनी। जपत जपत घर जाऊं॥३॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। बैठत हरिगुन गाऊं॥४॥
मन प्रभु के लिए फूलों का हार गूंथने को आतुर है, जैसे मालिन बनकर उनकी सेवा में जुट जाए। राज-धन के गुणों से नहीं, प्रभु के प्रेम से ही मन समझ पाता है। गले में सैली, हाथ में सुमरनी, जपते-जपते घर लौटने की चाह है। मीरां का मन गिरधर में रमा है, जो हरि के गुण गाते हुए उनके चरणों में बैठा है। यह भक्ति का वह प्रेम है, जो साधारण कार्यों को भी प्रभु की आराधना बना देता है।
अपनी गरज हो मिटी सावरे हम देखी तुमरी प्रीत॥
आपन जाय दुवारका छाय ऐसे बेहद भये हो नचिंत॥
ठार सलेव करित हो कुलभवर कीसि रीत॥२॥
बीन दरसन कलना परत हे आपनी कीसि प्रीत।
मीरां के प्रभु गिरिधर नागर प्रभुचरन न परचित॥३॥
आपन जाय दुवारका छाय ऐसे बेहद भये हो नचिंत॥
ठार सलेव करित हो कुलभवर कीसि रीत॥२॥
बीन दरसन कलना परत हे आपनी कीसि प्रीत।
मीरां के प्रभु गिरिधर नागर प्रभुचरन न परचित॥३॥
प्रभु की प्रीत देख मन की सारी चिंताएं मिट गईं। द्वारका छोड़ वे ऐसे निश्चिंत हो गए, जैसे कुल की मर्यादा को ठाठ से निभा रहे हों। उनके दर्शन बिना मन व्याकुल है, उनकी प्रीत का आधार समझ नहीं आता। मीरां का मन गिरधर के चरणों में अटका है, जो उनके प्रेम में अपरिचित नहीं। यह भक्ति का वह रस है, जहां प्रभु का प्रेम मन की हर तृष्णा को शांत करता है।
अब तो निभायाँ सरेगी, बांह गहेकी लाज।
समरथ सरण तुम्हारी सइयां, सरब सुधारण काज॥
भवसागर संसार अपरबल, जामें तुम हो झयाज।
निरधारां आधार जगत गुरु तुम बिन होय अकाज॥
जुग जुग भीर हरी भगतन की, दीनी मोच्छ समाज।
मीरां सरण गही चरणन की, लाज रखो महाराज॥
समरथ सरण तुम्हारी सइयां, सरब सुधारण काज॥
भवसागर संसार अपरबल, जामें तुम हो झयाज।
निरधारां आधार जगत गुरु तुम बिन होय अकाज॥
जुग जुग भीर हरी भगतन की, दीनी मोच्छ समाज।
मीरां सरण गही चरणन की, लाज रखो महाराज॥
प्रभु की बांह पकड़ने की लाज अब निभनी ही है। उनकी शरण में सारी सृष्टि का सुधार संभव है। संसार का भवसागर अपार है, पर प्रभु उसमें एकमात्र नाव हैं। जगत गुरु के बिना कोई आधार नहीं, उनके बिना हर कार्य अधूरा है। युग-युग से वे भक्तों की पुकार सुन, मोक्ष का मार्ग दिखाते हैं। मीरां उनके चरणों की शरण में है, और उनकी लाज रखने की याचना करती है। यह भक्ति का वह विश्वास है, जो प्रभु की कृपा को आत्मा का एकमात्र सहारा मानता है।
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मीरा की भक्ति : विरह वेदना और अनंत प्रेम की प्रतिक हैं कृष्णा। कृष्णा की प्रेम दीवानी है मीरा की भक्ति जो दैहिक नहीं आध्यात्मिक भक्ति है। मीरा ने अपने भजनों में कृष्ण को अपना पति तक मान लिया है। यह भक्ति और समर्पण की पराकाष्ठा है। मीरा की यह भक्ति उनके बालयकाल से ही थी। मीरा की भक्ति कृष्ण की रंग में रंगी है। मीरा की भक्ति में नारी की पराधीनता की एक कसक है जो भक्ति के रंग में और गहरी हो गयी है। मीरा ने कृष्ण को अपना पति मान लिया और अपना मन और तन कृष्ण को समर्पित कर दिया। मीरा की एक एक भावनाएं भी कृष्ण के रंग में रंगी थी। मीरा पद और रचनाएँ राजस्थानी, ब्रज और गुजराती भाषाओं में मिलते हैं और मीरा के पद हृदय की गहरी पीड़ा, विरहानुभूति और प्रेम की तन्मयता से भरे हुए मीराबाई के पद अनमोल संपत्ति हैं। मीरा के पदों में अहम् को समाप्त करके स्वयं को ईश्वर के प्रति पूर्णतया मिलाप है। कृष्ण के प्रति उनका इतना समर्पण है की संसार की समस्त शक्तियां उसे विचलित नहीं कर सकती है। मीरा की कृष्ण भक्ति एक मिशाल है जो स्त्री प्रधान भक्ति भावना का उद्वेलित रूप है।
इस संसार से सभी वैभव छोड़कर मीरा ने श्री कृष्ण को ही अपना सब कुछ माना। राजसी ठाठ बाठ छोड़कर मीरा कृष्ण भक्ति और वैराग्य में अपना वक़्त बिताती हैं। भक्ति की ये अनूठी मिशाल है। मीरा के पदों में आध्यात्मिक अनुभूति है और इनमे दिए गए सन्देश अमूल्य हैं। मीरा के साहित्य में राजस्थानी भाषा का पुट है और इन्हे ज्यादातर ब्रिज भाषा में रचा गया है।
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