मतवारो बादर आए रे भजन

मतवारो बादर आए रे भजन

मतवारो बादर आए रे, हरि को सनेसो कबहुँ न लाये रे।।टेक।।
दादर मोर पपइया बोलै, कोयल सबद सुणाये रे।
(इक) कारी अँधियारी बिजली चमकै, बिरहणि अति डरपाये रे।
(इक) गाजै बाजै पवन मधुरिमा, मेहा अति झड़ लाये रे।
(इक) कारी नाग बिरह अति जारी, मीराँ मन हरि भाये रे।।

(सनेसो=सन्देश, कबहूँ=कभी भी, दादर=मेंढ़क, मधुरिमा= मन्दगामी,धीरे धीरे चलने वाला)
 
वर्षा का बादल जब आता है, तो प्रकृति का हर कण प्रभु की लीला में रंग जाता है, पर मन की तड़प तब भी अधूरी रहती है, जब हरि का संदेश नहीं आता। यह विरह वह आग है, जो भक्त के हृदय को जलाती है, और प्रभु के मिलन की प्यास को और गहरा करती है। मेंढक, मोर, पपीहा, और कोयल की आवाजें, ये सब प्रकृति का गीत हैं, जो प्रभु की स्मृति जगाते हैं।

काली अंधियारी रात, बिजली की चमक, और मंद पवन का गर्जन, ये सब विरहिणी के मन को डराते हैं, पर उसका मन हरि के प्रेम में ही डूबा रहता है। मूसलाधार बारिश और गर्जना, वह प्रेम की तीव्रता है, जो मन को प्रभु के रंग में भिगो देती है। काला नाग-सा विरह, जो हृदय को जला देता है, फिर भी मीरा का मन केवल हरि को भाता है।

यह भक्ति वह नदी है, जो बादलों की तरह बरसती हुई, आत्मा को प्रभु के प्रेम में डुबो देती है। मीरा का हरि में रम जाना, वह समर्पण है, जो हर दुख को भूलकर केवल उनके चरणों में सुख पाता है, और जीवन को उनकी कृपा के रंग से सराबोर कर देता है।
कृष्ण करो जजमान॥ प्रभु तुम॥ध्रु०॥
जाकी किरत बेद बखानत। सांखी देत पुरान॥ प्रभु०२॥
मोर मुकुट पीतांबर सोभत। कुंडल झळकत कान॥ प्रभु०३॥
मीराके प्रभू गिरिधर नागर। दे दरशनको दान॥ प्रभु०४॥

कृष्णमंदिरमों नाचे तो ताल मृदंग रंग चटकी।
पावमों घुंगरू झुमझुम वाजे। तो ताल राखो घुंगटकी॥१॥
नाथ तुम जान है सब घटका मीरा भक्ति करे पर घटकी॥ध्रु०॥
ध्यान धरे मीरा फेर सरनकुं सेवा करे झटपटको।
सालीग्रामकूं तीलक बनायो भाल तिलक बीज टबकी॥२॥
बीख कटोरा राजाजीने भेजो तो संटसंग मीरा हटकी।
ले चरणामृत पी गईं मीरा जैसी शीशी अमृतकी॥३॥
घरमेंसे एक दारा चली शीरपर घागर और मटकी।
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। जैसी डेरी तटवरकी॥४॥

 
मीरा बाई के काव्य में विरोध के स्वर : भक्ति कालीन काव्य में मीरा बाई का स्थान कवित्री के रूप में सर्वोच्च रहा है। जहाँ एक और श्री कृष्ण के प्रति उनका प्रेम अथाह और पूर्ण समर्पण को दर्शाता है वहीँ दूसरी और नारी की वेदना भी परिलक्षित होती है। मीरा बाई के व्यक्तित्व को जब हम जानने का प्रयत्न करते हैं तो पाते हैं की मीरा बाई कृष्ण भक्त ही नहीं उनका दृष्टिकोण पूर्णतया मानवतावाद पर भी आधारित है। मीरा श्री कृष्ण के की भक्ति में इतना डूब गयीं की उन्हें इस संसार से भी कोई विशेष लगाव नहीं रहा। वे मंदिर में बैठ कर पांवों में घुंघरू बाँध कर नाचने लग जाती। तात्कालिक समाज में नारी को विशेष अधिकार प्राप्त नहीं थे विशेषकर भक्ति में। एक नारी होकर भजन गाना, नाचना ये उच्च कुल की स्त्रियों के लिए तो मानों पूर्णतया वर्जित था। यही नहीं मीरा बाई ने सभी बंधनों को तोड़ते हुए साधुओं की संगत में रहना भी शुरू कर दिया था। उस समय की सामाजिक और धार्मिक व्यवस्था इसके पक्ष में नहीं थी।
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