पिया म्हाँरे नैणा आगां रहज्यो जी भजन

पिया म्हाँरे नैणा आगां रहज्यो जी भजन

पिया म्हाँरे नैणा आगां रहज्यो जी
पिया म्हाँरे नैणा आगां रहज्यो जी।।टेक।।
नैणाँ आगाँ रहज्यो, म्हाँणो भूल णो जाज्यो जी।
भौ सागर म्हाँ बूड्या चाहाँ, स्याम बेग सुब लीज्यो जी।
राणा भेज्या विष रो प्यालो, थें इमरत वर दीज्यो जी।
मीराँ रे प्रभु गिरधरनागर, मिल बछूडन मत कीज्यो जी।।
(जाज्यो=जाना, बूड्या=डूबना)
 
मन प्रियतम की याद में डूबा है, उनकी छवि नयनों में बसी है, जो कभी भूलती नहीं। भवसागर में डूबते मन की पुकार है कि श्याम शीघ्र आकर उद्धार करें। राणा का भेजा विष का प्याला भी प्रभु की कृपा से अमृत बन जाए। मीरां का मन गिरधर से यही विनती करता है कि एक बार मिलन हो जाए, तो फिर बिछड़न न हो। यह भक्ति का वह प्रेम है, जो विरह की अग्नि में भी प्रभु के दर्शन की आस जगाए रखता है।
 
कालोकी रेन बिहारी। महाराज कोण बिलमायो॥ध्रु०॥
काल गया ज्यां जाहो बिहारी। अही तोही कौन बुलायो॥१॥
कोनकी दासी काजल सार्यो। कोन तने रंग रमायो॥२॥
कंसकी दासी काजल सार्यो। उन मोहि रंग रमायो॥३॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। कपटी कपट चलायो॥४॥

रात की गहराई में बिहारी की लीलाएं मन को मोहती हैं। समय बीत गया, फिर भी वे कहां चले गए? कौन उन्हें बुला ले गया? काजल से सजी दासी और रंग में रंगे बिहारी—यह सब किसके लिए? कंस की दासी ने काजल सजाया, पर बिहारी ने अपने रंग में सबको रंग दिया। मीरां का मन गिरधर की कपट-लीलाओं में रमा है, जो प्रेम की चतुराई से मन को बांध लेते हैं। यह भक्ति का वह रस है, जहां प्रभु की लीला आत्मा को प्रेम के रंग में डुबो देती है।
 
किन्ने देखा कन्हया प्यारा की मुरलीवाला॥ध्रु०॥
जमुनाके नीर गंवा चरावे। खांदे कंबरिया काला॥१॥
मोर मुकुट पितांबर शोभे। कुंडल झळकत हीरा॥२॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर। चरन कमल बलहारा॥३॥

बादल देख डरी हो, स्याम! मैं बादल देख डरी।
श्याम मैं बादल देख डरी।
काली-पीली घटा ऊमड़ी बरस्यो एक घरी।
श्याम मैं बादल देख डरी।
जित जाऊँ तित पाणी पाणी हुई भोम हरी।।
जाका पिय परदेस बसत है भीजूं बाहर खरी।
श्याम मैं बादल देख डरी।
मीरा के प्रभु हरि अबिनासी कीजो प्रीत खरी।
श्याम मैं बादल देख डरी। 
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