जोगिया ने कहज्यो जी आदेस

जोगिया ने कहज्यो जी आदेस

जोगिया ने कहज्यो जी आदेस
जोगिया ने कहज्यो जी आदेस।।टेक।।
जोगियो चतुर सुजाण सजनी, ध्यावै संकर सेस।
आऊंगी में नाह रहूँगी (रे म्हारा) पीव बिना परदेस।
करि करिपा प्रतिपाल मो परि, रखो न आपण देस।
माला मुदरा मेखला रे बाला, खप्पर लूँगी हाथ।
जोगिण होई जुग ढूँढसूँ रे, म्हाँरा रावलियारी साथ।
सावण आबण कह गया बाला, कर गया कौल अनेक।
गिणता-गिणता घँस गई रे, म्हाँरा आँगलिया रेख। 
पीव कारण पीली पड़ी बाला, जोबन बाली बेस। 
दास मीराँ राम भजि कै, तन मन कीन्हीं पेस।।

(आदेस=प्रार्थना,बिनती, ध्यावै=ध्यान करते हैं, संकर=शंकर,महादेव, सेस=शेषनाग, प्रतिपाल=अनुगर्ह, कृपा, मुदरा=मुद्रा,योगियों का एक आभूषण, मेखला= करधनी,तड़ागी, बाला=बल्लभ,प्रियतम, रावलियारी= अपने राजा के, कौल=वचन, आंगलिया=अंगुली की, रेख=रेखायें, बाली=नवीन,नई, पेस=पेश,समर्पित)

आध्यात्मिक साधना का मार्ग आत्मसमर्पण और त्याग की अनुभूति से भरपूर होता है। जब मनुष्य सांसारिक मोह से हटकर ईश्वर की ओर अग्रसर होता है, तो वह हर बंधन को त्यागने के लिए तत्पर होता है। संन्यास कोई सरल यात्रा नहीं—यह आत्मा को परखने, उसे परिष्कृत करने और परम सत्य के समीप लाने का प्रयास है।

विरह की पीड़ा में भी प्रेम की गहराई प्रकट होती है। प्रेम जब अति तीव्र और निश्छल होता है, तब वह सांसारिक रूप में व्यक्त नहीं होता, बल्कि साधना का रूप ले लेता है। यह साधक की उच्चतम अवस्था होती है, जहाँ वह प्रेम को तपस्या में परिवर्तित कर देता है। प्रियतम से दूरी केवल शारीरिक नहीं होती, बल्कि यह आत्मा का उन्नयन भी है, जहाँ प्रेम ईश्वर के ध्यान में विलीन हो जाता है।

समर्पण का रूप यह नहीं कि बाह्य आभूषणों का त्याग मात्र हो, बल्कि यह तो आंतरिक अहंकार और आसक्ति को छोड़ने की प्रक्रिया है। जब साधक माला, मुद्राएँ, और खप्पर धारण करता है, तो यह संकेत है कि उसने सांसारिक इच्छाओं से विरक्ति प्राप्त कर ली है। यह कोई साधारण परिवर्तन नहीं, बल्कि आत्मा के स्थायित्व की ओर बढ़ने का संकल्प है।

काल के प्रवाह में जीवन की रेखाएँ धुंधली होती चली जाती हैं। संकल्पों और वचनों का महत्व केवल शब्दों में नहीं होता, बल्कि यह व्यक्ति के आत्मिक उत्थान की दिशा निर्धारित करता है। जब प्रेम और भक्ति एकाकार होते हैं, तब साधक को किसी बाह्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं रहती—उसका समर्पण ही उसकी पहचान बन जाता है।

जब शरीर और मन ईश्वर के चरणों में अर्पित कर दिया जाता है, तब कोई भी सांसारिक उपलब्धि उसके लिए महत्वपूर्ण नहीं रहती। यह समर्पण ही परम आनंद का स्रोत है, जहाँ व्यक्ति अपने प्रियतम में पूर्ण रूप से लीन हो जाता है। यही भक्ति की श्रेष्ठतम अवस्था है—जहाँ प्रेम, त्याग और ईश्वर-साक्षात्कार एक-दूसरे में विलीन हो जाते हैं।

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