जोगिया जी निसदिन जोऊं बाट
जोगिया जी निसदिन जोऊं बाट
जोगिया जी निसदिन जोऊं बाट
जोगिया जी निसदिन जोऊं बाट।।टेक।।
पाँ न चालै पंथ दूहेलो; आड़ा ओघट घाट।
नगर आइ जोगी रस गया रे, मो मन प्रीत न पाइ।
मैं भोली भोलापन कीन्हो, राख्यौ नहिं बिलमाइ।
जोगिया कूँ जोवत बोहो दिन बीता, अजहूँ आयो नांहि।
विरह बुझावण अन्तरि आवो, तपन लगी तन मांहि।
जोगिया जी निसदिन जोऊं बाट।।टेक।।
पाँ न चालै पंथ दूहेलो; आड़ा ओघट घाट।
नगर आइ जोगी रस गया रे, मो मन प्रीत न पाइ।
मैं भोली भोलापन कीन्हो, राख्यौ नहिं बिलमाइ।
जोगिया कूँ जोवत बोहो दिन बीता, अजहूँ आयो नांहि।
विरह बुझावण अन्तरि आवो, तपन लगी तन मांहि।
कै तो जोगी जग में नांही, कैर बिसारी मोइ।
कांई करूँ कित जाऊँरी सजनी नैण गुमायो रोइ।
आरति तेरी अन्तरि मेरे, आवो अपनी जांणि।
मीराँ व्याकुल बिरहिणी रे, तुम बिनि तलफत प्राणि।।
कांई करूँ कित जाऊँरी सजनी नैण गुमायो रोइ।
आरति तेरी अन्तरि मेरे, आवो अपनी जांणि।
मीराँ व्याकुल बिरहिणी रे, तुम बिनि तलफत प्राणि।।
(जोऊं बाट=राह देखना,प्रतीक्षा करना, दूहेलो=विकट, भयंकर, आड़ा=संकीर्ण, औघटघाट=विचित्र मार्ग, बिलमाइ=
प्रेम में फँसाना, बोहो=बहुत, गुमायो=नष्ट कर दिया, आरति=लालसा, तलफत प्राणि=प्राण तड़पते हैं)
विरह का ताप जब हृदय को स्पर्श करता है, तब साधक के प्राण व्याकुल हो उठते हैं। यह केवल शरीर की पीड़ा नहीं, बल्कि आत्मा की अनवरत पुकार है—जो परमात्मा के मिलन के लिए अधीर हो रही है। इस मार्ग में आने वाली बाधाएँ चाहे कितनी भी कठिन क्यों न हों, पथिक अपने लक्ष्य से नहीं डिगता। संकीर्ण और विकट मार्गों की चुनौतियाँ केवल बाहरी नहीं होतीं, बल्कि यह भीतर की कसौटी भी है, जो भक्ति की गहराई को परखती है।
प्रेम और भक्ति का सच्चा रस तब तक नहीं मिलता जब तक आत्मा पूर्ण रूप से समर्पित नहीं होती। नगर में आने वाले रसों में वह माधुर्य नहीं, जो ईश्वर के प्रेम में अनुभूत होता है। सांसारिक सुखों की क्षणभंगुरता सच्चे आनंद की राह में भ्रम उत्पन्न करती है, लेकिन जिसने सच्चे प्रेम को पहचाना, वह इन मोह-बंधन से मुक्त हो जाता है।
समर्पण में भोलेपन का अपना सौंदर्य होता है। बिना किसी विलंब के, बिना किसी संकोच के यदि आत्मा अपने प्रियतम के प्रति समर्पित हो जाए, तो वह प्रेम की पवित्रता को प्राप्त करती है। यह वह स्थिति है जहाँ साधक की प्रतीक्षा केवल बाहरी नहीं होती, बल्कि उसकी प्रत्येक सांस उस दिव्य आलिंगन की चाह में तड़पती है।
विरह का संताप मन को तपाने लगता है। यदि प्रियतम को पुकारने से वह भीतर प्रकट हो जाए, तो यह विरह शांत हो जाए। लेकिन जब उपस्थिति का आभास नहीं होता, तब मन संशय में पड़ जाता है—क्या वह कहीं है भी, या क्या उसने भुला दिया? यह असमंजस प्रेम के सबसे गहरे स्तर का प्रतिबिंब है, जहाँ आशा और व्याकुलता का संघर्ष चलता रहता है।
सांसारिक उपायों से इस विरह को मिटाया नहीं जा सकता। जब प्रेम अपने शिखर पर पहुँचता है, तो इसकी पुकार में कोई छल नहीं होता, कोई बनावट नहीं होती—यह केवल आत्मा की सच्ची व्याकुलता होती है, जो ईश्वर की प्रत्यक्षता में शांति पाती है। यही भक्ति की पूर्णता है—जहाँ प्रेम केवल शब्दों में नहीं, बल्कि संपूर्ण अस्तित्व में प्रकट होता है।
प्रेम और भक्ति का सच्चा रस तब तक नहीं मिलता जब तक आत्मा पूर्ण रूप से समर्पित नहीं होती। नगर में आने वाले रसों में वह माधुर्य नहीं, जो ईश्वर के प्रेम में अनुभूत होता है। सांसारिक सुखों की क्षणभंगुरता सच्चे आनंद की राह में भ्रम उत्पन्न करती है, लेकिन जिसने सच्चे प्रेम को पहचाना, वह इन मोह-बंधन से मुक्त हो जाता है।
समर्पण में भोलेपन का अपना सौंदर्य होता है। बिना किसी विलंब के, बिना किसी संकोच के यदि आत्मा अपने प्रियतम के प्रति समर्पित हो जाए, तो वह प्रेम की पवित्रता को प्राप्त करती है। यह वह स्थिति है जहाँ साधक की प्रतीक्षा केवल बाहरी नहीं होती, बल्कि उसकी प्रत्येक सांस उस दिव्य आलिंगन की चाह में तड़पती है।
विरह का संताप मन को तपाने लगता है। यदि प्रियतम को पुकारने से वह भीतर प्रकट हो जाए, तो यह विरह शांत हो जाए। लेकिन जब उपस्थिति का आभास नहीं होता, तब मन संशय में पड़ जाता है—क्या वह कहीं है भी, या क्या उसने भुला दिया? यह असमंजस प्रेम के सबसे गहरे स्तर का प्रतिबिंब है, जहाँ आशा और व्याकुलता का संघर्ष चलता रहता है।
सांसारिक उपायों से इस विरह को मिटाया नहीं जा सकता। जब प्रेम अपने शिखर पर पहुँचता है, तो इसकी पुकार में कोई छल नहीं होता, कोई बनावट नहीं होती—यह केवल आत्मा की सच्ची व्याकुलता होती है, जो ईश्वर की प्रत्यक्षता में शांति पाती है। यही भक्ति की पूर्णता है—जहाँ प्रेम केवल शब्दों में नहीं, बल्कि संपूर्ण अस्तित्व में प्रकट होता है।