मेरी लाज तुम रख भैया

मेरी लाज तुम रख भैया

मेरी लाज तुम रख भैया
मेरी लाज तुम रख भैया। नंदजीके कुंवर कनैया॥टेक॥
बेस प्यारे काली नागनाथी। फेणपर नृत्य करैया॥१॥
जमुनाके नीर तीर धेनु चरावे। मुखपर मुरली बजैया॥२॥
मोर मुगुट पीतांबर शोभे। कान कुंडल झलकैया॥३॥
ब्रिंदावनके कुंज गलिनमें नाचत है दो भैया॥४॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। चरनकमल लपटैया॥५॥
 


प्रेम और भक्ति जब प्रगाढ़ हो जाते हैं, तब हर संकट में केवल प्रभु का आश्रय ही अंतिम सहारा बनता है। यह पुकार केवल शब्दों में नहीं, हृदय की गहराइयों से उठती है—जहाँ आत्मा अपने सर्वस्व को ईश्वर पर अर्पित कर देती है और उनसे अपनी मर्यादा, अपनी अस्मिता को संजोने की विनती करती है।

प्रभु का स्वरूप इतना निराला है कि केवल उनके दर्शन से ही हृदय आनंद में डूब जाता है। कालिया के फेणों पर उनका नृत्य केवल शक्ति और साहस का प्रदर्शन नहीं, बल्कि भक्त को यह सीख देना भी है कि जब वह ईश्वर के साथ होता है, तब कोई विष, कोई भय उसे स्पर्श नहीं कर सकता। यमुना के तट पर जब वे गोचारण करते हैं, जब मुरली की मधुर ध्वनि संपूर्ण ब्रज को आनंदित कर देती है, तब भक्ति और प्रेम की अनुभूति अपने चरम पर पहुँच जाती है।

श्रीकृष्णजी का सौंदर्य अपार है—मोर-मुकुट की शोभा, पीतांबर का गौरव, कानों में कुंडलों की झलझलाहट—यह केवल बाहरी आकर्षण नहीं, बल्कि दिव्य ऐश्वर्य का प्रतीक है। ब्रज की कुंज गलियों में उनकी चपलता, उनकी लीला, उनके सौंदर्य की छटा ही प्रेमी हृदय को उनके चरणों में समर्पित कर देती है।

यह प्रेम कोई साधारण प्रेम नहीं—यह आत्मा और परमात्मा का मिलन है, जहाँ भक्त अपने सर्वस्व को प्रभु में समर्पित कर देता है। जब यह भाव जागृत होता है, तब संसार की कोई भी बाधा भक्त को विचलित नहीं कर सकती, क्योंकि उसकी लाज अब स्वयं प्रभु के हाथों में होती है। यही भक्ति की सबसे सच्ची अवस्था है, जहाँ ईश्वर के चरणकमलों से ही जीवन का आधार बन जाता है।
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