मेरी गेंद चुराई मीरा बाई पदावली

मेरी गेंद चुराई मीरा बाई पदावली

मेरी गेंद चुराई
मेरी गेंद चुराई। ग्वालनारे॥टेक॥
आबहि आणपेरे तोरे आंगणा। आंगया बीच छुपाई॥१॥
ग्वाल बाल सब मिलकर जाये। जगरथ झोंका आई॥२॥
साच कन्हैया झूठ मत बोले। घट रही चतुराई॥३॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। चरणकमल बलजाई॥४॥
 


श्रीकृष्णजी की बाललीलाएँ प्रेम और आनंद से परिपूर्ण हैं। उनकी चंचलता, उनकी भोली-भाली शरारतें, और उनकी मधुर मुस्कान प्रत्येक हृदय को मोह लेती हैं। यह प्रेम और भक्ति का वह रूप है, जहाँ राधारानी और ग्वालिनें उनके नटखट स्वभाव से रुष्ट भी होती हैं, और फिर उसी में आनंद भी प्राप्त करती हैं।

यह चंचलता मात्र खेल नहीं, बल्कि एक गूढ़ संकेत भी है—भक्ति के पथ पर जब जीव प्रभु के प्रेम में रम जाता है, तब प्रत्येक वस्तु उन्हीं की होती है। गेंद का यह चुराना कोई साधारण शरारत नहीं, यह उस अनन्य प्रेम का प्रतीक है, जहाँ भक्त और भगवान के बीच कोई दूरी नहीं रहती।

संग-साथ में आनंद और उलाहने, रुष्टता और हँसी सब मिलकर प्रेम को और अधिक गहरा कर देते हैं। जब श्रीकृष्णजी अपनी चतुराई से अपनी लीला को रचते हैं, तब भक्त का हृदय स्वतः ही उनके चरणों में समर्पित हो जाता है। यह वही प्रेम है, जो शुद्ध और निस्सीम है, जिसमें हर अनुभूति केवल कृष्ण की लीला में विलीन हो जाती है।

हरि गुन गावत नाचूंगी॥
आपने मंदिरमों बैठ बैठकर। गीता भागवत बाचूंगी॥१॥
ग्यान ध्यानकी गठरी बांधकर। हरीहर संग मैं लागूंगी॥२॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर। सदा प्रेमरस चाखुंगी॥३॥
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