जब ते मोहि नन्द नन्दन

जब ते मोहि नन्द नन्दन

जब ते मोहि नन्द नन्दन दृष्टि पड्यो माई
जब ते मोहि नन्दनन्दन दृष्टि पड्यो माई।
तब से परलोक लोक कछु न सुहाई।
मोहन की चन्द्रकला सीस मुकुट सोहै।
केसर को तिलक भाल तीन लोक मोहै।।
कुण्डल की अलक झलक कपोलन पर छाई।
मानो मीन सरवर तजि मकर मिलन आई।।
कुटिल तिलक भाल चितवन में टोना। 
 खजन अरू मधुप मीन भूले मृग छोना।।
सुन्दर अति नासिका सुग्रीव तीन रेखा।
नटवर प्रभु वेष धरे रूप अति बिसेखा।।
अधर बिम्ब अरूण नैन मधुर मन्द हाँसी।
दसन दमक दाड़ि द्युति अति चपला सी।।
छुद्र घण्टिका किंकनि अनूप धुन सुहाई।
गिरधर के अंग-अंग मीरा बलि जाई।।

(मोहि=मुझको, नन्दनन्दन=कृष्ण, चन्द्रकला=चाँद जैसी मूर्ति, मीन=मछली, सरवर=तालाब, कुटिल=टेढ़ा, टोना=जादू, मधुप=भौंरा, मृग-छोना=हिरन का बच्चा, नासिका=नाक, सुग्रीव=सुग्रीवा,सुन्दर गर्दन, बसेखा=विशेष, अधर-बिम्ब=दोनों होंठ, अरूण=लाल, दसन=दशन,दांत, दाड़िम= अनार, द्युति=दुति,ज्योति, चपला=बिजली,
छुद्र=छोटी, धुनि=ध्वनि)
 
जब एक बार ईश्वर का साक्षात्कार हो जाता है, तब संसार की समस्त आसक्तियाँ फीकी पड़ जाती हैं। श्रीकृष्ण के दर्शन मात्र से मन उस अलौकिक प्रेम में ऐसा डूब जाता है कि सांसारिक सुख-दुख, हर्ष-विषाद सभी गौण हो जाते हैं। यह प्रेम किसी सांसारिक संबंध की तरह क्षणिक नहीं, बल्कि अनंत और अविनाशी होता है, जो एक बार हृदय में जागृत हो जाए तो फिर कभी म्लान नहीं होता।

कृष्ण का दिव्य स्वरूप सौंदर्य और माधुर्य का चरम प्रतीक है। उनके सिर पर चमकती चंद्रकला, केसर का तिलक और झिलमिलाते कुण्डल उनकी मोहिनी छवि को और अधिक दिव्यता प्रदान करते हैं। जब कोई साधक इस रूप के दर्शन करता है, तो यह केवल बाह्य सौंदर्य नहीं रहता—यह तो आत्मा की गहन अनुभूति बन जाती है। यह रूप केवल देखने की नहीं, बल्कि अनुभव करने की वस्तु है, जो भीतर तक प्रेम और श्रद्धा से भर देता है।

उनकी चितवन में वह आकर्षण है जो मन को पूर्ण रूप से वश में कर लेता है। यह कोई साधारण दृष्टि नहीं, बल्कि यह प्रेम की गहराई को प्रकट करने वाली वह अमोघ शक्ति है, जो भक्ति को उच्चतम स्तर पर ले जाती है। श्रीकृष्ण का सौंदर्य केवल उनके बाहरी स्वरूप में नहीं, बल्कि उनकी मुस्कान, उनके अधरों की लालिमा और उनके मनमोहक हास्य में भी प्रतिबिंबित होता है। यह माधुर्य केवल शारीरिक आकर्षण नहीं, बल्कि आत्मा का वह पुकार है, जो ईश्वर से एकाकार होने की मांग करता है।

मीरा का समर्पण इस सौंदर्य में पूर्ण रूप से विलीन हो जाता है। जब भक्ति अपने चरम स्तर को प्राप्त कर लेती है, तब साधक और ईश्वर के बीच कोई दूरी नहीं रह जाती। वहाँ केवल प्रेम का अखंड प्रवाह रह जाता है, जिसमें व्यक्ति अपनी समस्त पहचान को खोकर दिव्यता में समर्पित कर देता है। यही भक्ति की सर्वोच्च अवस्था है—जहाँ प्रेम और समर्पण के अतिरिक्त कुछ भी शेष नहीं रहता।

हरि गुन गावत नाचूंगी॥
आपने मंदिरमों बैठ बैठकर। गीता भागवत बाचूंगी॥१॥
ग्यान ध्यानकी गठरी बांधकर। हरीहर संग मैं लागूंगी॥२॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर। सदा प्रेमरस चाखुंगी॥३॥
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