मुरलिया बाजा जमणा तीर

मुरलिया बाजा जमणा तीर

मुरलिया बाजा जमणा तीर।।टेक।।
मुरली म्हारो मण हर लीन्हो, चित्त धराँ णा धीर।
श्याम कण्हैया स्याम करमयां, स्याम जमणरो नीर।
धुण मुरली शुण सुध बुध बिसरां, जर जर म्हारो सरीर।
मीरां रे प्रभु गिरधरनागर, बेग हर्यां, म्हा पीर।।
(मुरिलाया=वंशी, मण=मन, स्याम=काले, करमयाँ= कामरी, जमण रो=यमुना का, जर-जर=जड़ीभूत, बेग=
शीघ्र, पीर=पीड़ा,वेदना)
 


श्रीकृष्णजी की वंशी की ध्वनि वह अमृत है, जो मन को मोह लेती है और आत्मा को उसकी समस्त चंचलताओं से मुक्त कर देती है। जब यह स्वर यमुना तट पर गूंजता है, तब उसकी मिठास भक्त को संपूर्ण चेतना से परे ले जाकर उस दिव्य आनंद में समाहित कर देती है। यह वह शक्ति है, जिसमें हर सांस श्रीकृष्णजी के प्रेम में रम जाती है।

श्याम का स्वरूप, उनकी करमरी वेशभूषा, और यमुना की गहरी लहरें इस अनन्य प्रेम के प्रतीक बन जाते हैं। जब वंशी की ध्वनि मन तक पहुंचती है, तो सभी विचार विलीन हो जाते हैं—सारी सुध-बुध मिट जाती है, और शरीर मानो चेतनता खो बैठता है। यह वह भाव है, जहाँ प्रेम की गहराई में डूबकर आत्मा अपने अस्तित्व को ही भूल जाती है।

यह पुकार केवल व्याकुलता नहीं, यह भक्ति का चरम बिंदु है, जहाँ कृष्ण के चरणों में पहुँचने की आतुरता हर कष्ट को समाप्त कर देती है। यही वह स्थिति है, जहाँ यह प्रेम समस्त पीड़ा को हर लेता है, और केवल प्रभु का मधुर नाम ही जीवन का आधार बन जाता है। यही भक्ति की पराकाष्ठा है, जहाँ हृदय केवल श्रीकृष्णजी के प्रेम में ही लीन हो जाता है।
हरि गुन गावत नाचूंगी॥
आपने मंदिरमों बैठ बैठकर। गीता भागवत बाचूंगी॥१॥
ग्यान ध्यानकी गठरी बांधकर। हरीहर संग मैं लागूंगी॥२॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर। सदा प्रेमरस चाखुंगी॥३॥

तो सांवरे के रंग राची।
साजि सिंगार बांधि पग घुंघरू, लोक-लाज तजि नाची।।
गई कुमति, लई साधुकी संगति, भगत, रूप भै सांची।
गाय गाय हरिके गुण निस दिन, कालब्यालसूँ बांची।।
उण बिन सब जग खारो लागत, और बात सब कांची।
मीरा श्रीगिरधरन लालसूँ, भगति रसीली जांची।।

अपनी गरज हो मिटी सावरे हम देखी तुमरी प्रीत॥ध्रु०॥
आपन जाय दुवारका छाय ऐसे बेहद भये हो नचिंत॥ ठोर०॥१॥
ठार सलेव करित हो कुलभवर कीसि रीत॥२॥
बीन दरसन कलना परत हे आपनी कीसि प्रीत।
मीरां के प्रभु गिरिधर नागर प्रभुचरन न परचित॥३॥
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