मत डारो पिचकारी मैं सगरी भिजगई सारी
मत डारो पिचकारी। मैं सगरी भिजगई सारी॥टेक॥
जीन डारे सो सनमुख रहायो। नहीं तो मैं देउंगी गारी॥१॥
भर पिचकरी मेरे मुखपर डारी। भीजगई तन सारी॥२॥
लाल गुलाल उडावन लागे। मैं तो मनमें बिचारी॥३॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। चरनकमल बलहारी४॥
होली का यह रंग प्रभु के प्रेम का उत्सव है, जो मन को उनके रंग में डुबो देता है। पिचकारी की बौछार, लाल गुलाल का उड़ना, ये सब उस मस्ती के प्रतीक हैं, जो श्याम के संग खेलने से जागती है। भक्त का यह कहना कि सारी भिज गई, वह उस आत्मा की पुकार है, जो प्रभु के प्रेम में पूरी तरह भीग जाना चाहती है, जैसे कमल जल में डूबकर भी खिलता है।
जो पिचकारी डारे, वह सनमुख रहे—यह उस भक्त की शर्त है, जो प्रभु के सामने रहकर उनकी लीला में रमना चाहता है। गुलाल उड़ते देख मन में बिचारना, वह प्रेम की गहराई है, जो बाहरी रंगों में भी प्रभु का रूप देखता है। यह उत्सव वह नृत्य है, जो हृदय को प्रभु के साथ ताल में थिरकने को प्रेरित करता है।
मीरा का गिरधर के चरणों में बलिहार जाना, वह समर्पण है, जो हर रंग, हर लीला को प्रभु की कृपा मानता है। यह भक्ति वह नदी है, जो चरणकमलों में बहती हुई, आत्मा को उनके प्रेम में डुबो देती है, और जीवन को उनकी मस्ती के रंग से सराबोर कर देती है।
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