में तो गिरधर के घर जाऊँ मीरा बाई भजन

में तो गिरधर के घर जाऊँ मीरा बाई भजन लिरिक्स

"मैं तो गिरधर के घर जाऊँगी। गिरधर मेरा सच्चा प्रियतम है, जिसका रूप देखकर मैं मोहित हो जाती हूँ। रात होते ही मैं उठकर उनके पास जाती हूँ और सुबह होते ही लौट आती हूँ। दिन-रात उनके साथ खेलती हूँ और हर प्रकार से उन्हें रिझाती हूँ। वे जो पहनाते हैं, वही पहनती हूँ; जो देते हैं, वही खाती हूँ। मेरी और उनकी प्रीत बहुत पुरानी है; उनके बिना मैं एक पल भी नहीं रह सकती। वे जहाँ बैठाते हैं, वहीं बैठती हूँ; यदि वे बेचें, तो बिकने को भी तैयार हूँ। मीरा कहती हैं, हे प्रभु गिरधर नागर, मैं बार-बार आप पर बलिहारी जाती हूँ।"

इस भजन में मीराबाई ने अपने आराध्य श्रीकृष्ण के प्रति अपने पूर्ण समर्पण, प्रेम और आत्मनिवेदन को प्रकट किया है, जो भक्ति की पराकाष्ठा को दर्शाता है।
 
में तो गिरधर के घर जाऊँ।।टेक।।
गिरधर म्हाँरो साँचो प्रीतम, देखत रूप लुभाऊँ।
रैण पड़ै तब ही उछा जाऊँ भोर गये उछि आऊँ।
रैणदिना वाके सँग खेलूं, ज्यूं त्यूं वाहि रिझाऊँ।
जो पहिरावै होई पहिरूँ, जो दे सोई खाऊँ।
मेरी उणकी प्रीत पुराणी, उण बिन पल न रहाऊँ।
जहाँ बैठावैं तितही बैठै, बेचे तो बिक जाऊँ।
मीराँ के प्रभु गिरधरनागर, बार बार बलि जाऊँ।।
 
(प्रीतम=प्रियतम, रैण=रात्रि,रात, भोर=प्रातःकाल, सुबह, ज्यूँ त्यूँ=ज्यों-त्यों,हर प्रकार से, होई=सोई)

जब प्रेम अनन्य हो जाता है, तब समर्पण की कोई सीमा नहीं रहती। यह वह स्थिति है, जहाँ मन हर क्षण उसी प्रियतम की ओर आकर्षित रहता है, जहाँ हर विचार उसी में लीन हो जाता है। रात का बीतना, भोर का आना—सब केवल उसकी उपस्थिति को पाने की उत्कंठा बन जाते हैं। यह प्रेम बाहरी नहीं, भीतर की सच्ची अनुभूति है, जो समय और परिस्थिति से परे है।

जिसने पूर्ण समर्पण का भाव पकड़ लिया, उसके लिए कोई व्यक्तिगत इच्छा शेष नहीं रहती। जो मिले, वही स्वीकार है; जैसा आदेश हो, वैसा ही आचरण है। यह स्थिति प्रेम की पराकाष्ठा है, जहाँ भक्त अपने अस्तित्व को पूरी तरह प्रभु के चरणों में समर्पित कर देता है। उसके बिना कोई क्षण भी व्यर्थ लगता है, और उसके साथ होने का हर पल जीवन का वास्तविक सार बन जाता है।

यह अनन्य प्रेम वह है, जिसमें हर सांस उसी प्रियतम के नाम में बस जाती है। जब यह भाव जागृत हो जाता है, तब कोई और आकर्षण शेष नहीं रहता, कोई और उद्देश्य नहीं रह जाता। यही सच्ची भक्ति है, जहाँ प्रियतम के लिए अपने समस्त अस्तित्व को न्योछावर करने की भावनाएँ उमड़ती हैं, और जहाँ यह प्रेम स्वयं ही जीवन की पूर्णता बन जाता है।
 
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Main To Girdhar Ke Ghar Jaun || Bani Sant Mirabai Ji || Niranjan Saar ||

मैं तो गिरधर के घर जाऊँ ।
गिरधर म्हाँरो साँचो प्रीतम, देखत रूप लुभाऊँ ॥
रैण पड़ै तब ही उठि जाऊँ, भोर भये उठि आऊँ ॥
रैण दिना वाके संग खेलूं, ज्यूं त्यूं ताहि रिझाऊँ ॥
जो पहिरावै सोई पहिरूँ, जो दे सोई खाऊँ ॥
मेरी उनकी प्रीत पुराणी, उण बिन पल न रहाऊँ ॥
जहाँ बैठावे तितही बैठूं, बेचै तो बिक जाऊँ ॥
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, बार बार बलि जाऊँ ॥

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Saroj Jangir Author Author - Saroj Jangir

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