बला से हमको लटकाए अगर सरकार फांसी

बला से हमको लटकाए अगर सरकार फांसी से

बला से हमको लटकाए अगर सरकार फांसी से।
लटकते आए अक्सर पैकरे-ईसार फांसी से।

लबे-दम भी न खोली ज़ालिमों ने हथकड़ी मेरी,
तमन्ना थी कि करता मैं लिपटकर प्यार फांसी से।

खुली है मुझको लेने के लिए आग़ोशे आज़ादी,
ख़ुशी है, हो गया महबूब का दीदार फांसी से।

कभी ओ बेख़बर तहरीके़-आज़ादी भी रुकती है?
बढ़ा करती है उसकी तेज़ी-ए-रफ़्तार फांसी से।

यहां तक सरफ़रोशाने-वतन बढ़ जाएंगे क़ातिल,
कि लटकाने पड़ेंगे नित मुझे दो-चार फांसी से।




इस देशभक्ति गीत में स्वतंत्रता के लिए फांसी को भी गले लगाने का प्रबल उदगार है। फांसी का भय भक्त को डिगा नहीं सकता, क्योंकि वह पैगंबरों और बलिदानियों की तरह वतन के लिए कुर्बानी को गर्व मानता है। जैसे प्रेमी अपनी महबूब की बाहों में सुकून पाता है, वैसे ही वह फांसी को आजादी की आगोश मानता है।

जालिमों की हथकड़ी उसकी जुबान को बांध सकती है, लेकिन उसका हृदय वतन के प्यार में डूबा है। फांसी स्वतंत्रता की तहरीक को रोक नहीं सकती, बल्कि उसकी रफ्तार को और तेज करती है। यह संकल्प कि वतन के सरफरोश बार-बार बलिदान देंगे, यह दर्शाता है कि आजादी की ज्वाला कभी बुझती नहीं। यह भाव आत्मा को प्रेरित करता है कि वतन के लिए हर कुर्बानी आजादी की नींव को और मजबूत करती है, जो गर्व और शांति की ओर ले जाती है।
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