श्री अरहनाथ चालीसा
श्री अरहनाथ चालीसा
प्रार्थना ओ अरनाथ अनंत सुखदाता, देवी रानी के जाए हो
राजा सुदर्शन के सूत प्यारे, प्राणी मात्र को बाए हो l
शरण तुम्हारी जो भी आए, चित्त प्रसन्नता को पाये
तुम चरणों की सेवा करके, आत्मा उज्वल हो जाए।।
श्री अरहनाथ चालीसा
श्री अरहनाथ जिनेन्द्र गुणाकर, ज्ञान-दरस-सुरव-बल रत्ऩाकर ।
कल्पवृक्ष सम सुख के सागर, पार हुए निज आत्म ध्याकर ।
अरहनाथ नाथ वसु अरि के नाशक, हुए हस्तिनापुर के शासक ।
माँ मित्रसेना पिता सुर्दशन, चक्रवर्ती बन किया दिग्दर्शन ।
सहस चौरासी आयु प्रभु की, अवगाहना थी तीस धनुष की ।
वर्ण सुवर्ण समान था पीत, रोग शोक थे तुमसे भीत ।
ब्याह हुआ जब प्रिय कुमार का, स्वप्न हुआ साकार पिता का ।
राज्याभिषेक हुआ अरहजिन का, हुआ अभ्युदय चक्र रत्न का । ।
एक दिन देखा शरद ऋतु में, मेघ विलीन हुए क्षण भर मेँ ।
उदित हुआ वैराग्य हृदय में, तौकान्तिक सुर आए पल में ।
‘अरविन्द’ पुत्र को देकर राज, गए सहेतुक वन जिनराज ।
मंगसिर की दशमी उजियारी, परम दिगम्बर टीक्षाधारी ।
पंचमुष्टि उखाड़े केश, तन से ममन्व रहा नहीं दलेश ।
नगर चक्रपुर गए पारण हित, पढ़गाहें भूपति अपराजित ।
प्रासुक शुद्धाहार कराये, पंचाश्चर्य देव कराये ।
कठिन तपस्या करते वन में, लीन रहैं आत्म चिन्तन में ।
कार्तिक मास द्वादशी उज्जवल, प्रभु विराज्ञे आम्र वृक्ष- तल ।
अन्तर ज्ञान ज्योति प्रगटाई, हुए केवली श्री जिनराई ।
देव करें उत्सव अति भव्य, समोशरण को रचना दिव्य ।
सोलह वर्ष का मौनभंग कर, सप्तभंग जिनवाणी सुखकर ।
चौदह गुणस्थान बताये, मोह – काय-योग दर्शाये ।
सत्तावन आश्रव बतलाये, इतने ही संवर गिनवाये ।
संवर हेतु समता लाओ, अनुप्रेक्षा द्वादश मन भाओ ।
हुए प्रबुद्ध सभी नर- नारी, दीक्षा व्रत धरि बहु भारी ।
कुम्भार्प आदि गणधर तीस, अर्द्ध लक्ष थे सकल मुनीश ।
सत्यधर्म का हुआ प्रचार, दूऱ-दूर तक हुआ विहार ।
एक माह पहले निर्वेद, सहस मुनिसंग गए सम्मेद ।
चैत्र कृष्ण एकादशी के दिन, मोक्ष गए श्री अरहनाथ जिन ।
नाटक कूट को पूजे देव, कामदेव-चक्री…जिनदेव ।
जिनवर का लक्षण था मीन, धारो जैन धर्म समीचीन ।
प्राणी मात्र का जैन धर्मं है, जैन धर्म ही परम धर्मं हैं ।
पंचेन्द्रियों को जीतें जो नर, जिनेन्द्रिय वे वनते जिनवर ।
त्याग धर्म की महिमा गाई, त्याग में ही सब सुख हों भाई ।
त्याग कर सकें केवल मानव, हैं सक्षम सब देव और मानव ।
हो स्वाधीन तजो तुम भाई, बन्धन में पीडा मन लाई ।
हस्तिनापुर में दूसरी नशिया, कर्म जहाँ पर नसे घातिया ।
जिनके चररणों में धरें, शीश सभी नरनाथ ।
हम सब पूजे उन्हें, कृपा करें अरहनाथ ।
जाप: – ॐ ह्रीं अर्हं श्री अरहनाथाय नमः
राजा सुदर्शन के सूत प्यारे, प्राणी मात्र को बाए हो l
शरण तुम्हारी जो भी आए, चित्त प्रसन्नता को पाये
तुम चरणों की सेवा करके, आत्मा उज्वल हो जाए।।
श्री अरहनाथ चालीसा
श्री अरहनाथ जिनेन्द्र गुणाकर, ज्ञान-दरस-सुरव-बल रत्ऩाकर ।
कल्पवृक्ष सम सुख के सागर, पार हुए निज आत्म ध्याकर ।
अरहनाथ नाथ वसु अरि के नाशक, हुए हस्तिनापुर के शासक ।
माँ मित्रसेना पिता सुर्दशन, चक्रवर्ती बन किया दिग्दर्शन ।
सहस चौरासी आयु प्रभु की, अवगाहना थी तीस धनुष की ।
वर्ण सुवर्ण समान था पीत, रोग शोक थे तुमसे भीत ।
ब्याह हुआ जब प्रिय कुमार का, स्वप्न हुआ साकार पिता का ।
राज्याभिषेक हुआ अरहजिन का, हुआ अभ्युदय चक्र रत्न का । ।
एक दिन देखा शरद ऋतु में, मेघ विलीन हुए क्षण भर मेँ ।
उदित हुआ वैराग्य हृदय में, तौकान्तिक सुर आए पल में ।
‘अरविन्द’ पुत्र को देकर राज, गए सहेतुक वन जिनराज ।
मंगसिर की दशमी उजियारी, परम दिगम्बर टीक्षाधारी ।
पंचमुष्टि उखाड़े केश, तन से ममन्व रहा नहीं दलेश ।
नगर चक्रपुर गए पारण हित, पढ़गाहें भूपति अपराजित ।
प्रासुक शुद्धाहार कराये, पंचाश्चर्य देव कराये ।
कठिन तपस्या करते वन में, लीन रहैं आत्म चिन्तन में ।
कार्तिक मास द्वादशी उज्जवल, प्रभु विराज्ञे आम्र वृक्ष- तल ।
अन्तर ज्ञान ज्योति प्रगटाई, हुए केवली श्री जिनराई ।
देव करें उत्सव अति भव्य, समोशरण को रचना दिव्य ।
सोलह वर्ष का मौनभंग कर, सप्तभंग जिनवाणी सुखकर ।
चौदह गुणस्थान बताये, मोह – काय-योग दर्शाये ।
सत्तावन आश्रव बतलाये, इतने ही संवर गिनवाये ।
संवर हेतु समता लाओ, अनुप्रेक्षा द्वादश मन भाओ ।
हुए प्रबुद्ध सभी नर- नारी, दीक्षा व्रत धरि बहु भारी ।
कुम्भार्प आदि गणधर तीस, अर्द्ध लक्ष थे सकल मुनीश ।
सत्यधर्म का हुआ प्रचार, दूऱ-दूर तक हुआ विहार ।
एक माह पहले निर्वेद, सहस मुनिसंग गए सम्मेद ।
चैत्र कृष्ण एकादशी के दिन, मोक्ष गए श्री अरहनाथ जिन ।
नाटक कूट को पूजे देव, कामदेव-चक्री…जिनदेव ।
जिनवर का लक्षण था मीन, धारो जैन धर्म समीचीन ।
प्राणी मात्र का जैन धर्मं है, जैन धर्म ही परम धर्मं हैं ।
पंचेन्द्रियों को जीतें जो नर, जिनेन्द्रिय वे वनते जिनवर ।
त्याग धर्म की महिमा गाई, त्याग में ही सब सुख हों भाई ।
त्याग कर सकें केवल मानव, हैं सक्षम सब देव और मानव ।
हो स्वाधीन तजो तुम भाई, बन्धन में पीडा मन लाई ।
हस्तिनापुर में दूसरी नशिया, कर्म जहाँ पर नसे घातिया ।
जिनके चररणों में धरें, शीश सभी नरनाथ ।
हम सब पूजे उन्हें, कृपा करें अरहनाथ ।
जाप: – ॐ ह्रीं अर्हं श्री अरहनाथाय नमः
श्री अरनाथ भगवंत परिचय
अठारहवें तीर्थंकर भगवान श्री अरनाथ जी हैं। जिनका जन्म हस्तिनापुर के इक्ष्वाकुवंश में मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष दशमी को रेवती नक्षत्र में हुआ था. इनके माता का नाम माता मित्रा देवी रानी और पिता का नाम राजा सुदर्शन था. बचपन में इनका नाम अर कुमार था. इनके शरीर का वर्ण सुवर्ण था जबकि इनका चिन्ह मछली था. इनके यक्ष का नाम यक्षेन्द्र और यक्षिणी का नाम धारिणी देवी था. जैन धर्मावलम्बियों के अनुसार इनके गणधरों की कुल संख्या 33 थी, जिनमें कुम्भ स्वामी इनके प्रथम गणधर थे. भगवान श्री अरनाथ जी ने मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को दीक्षा की प्राप्ति की थी और दीक्षा प्राप्ति के पश्चात् 2 दिन बाद खीर से इन्होनें प्रथम पारणा किया था. दीक्षा प्राप्ति के पश्चात् 3 वर्ष तक कठोर तप करने के बाद कार्तिक शुक्ल पक्ष द्वादशी को हस्तिनापुर में ही आम के वृक्ष के नीचे भगवान श्री अरनाथ जी को कैवल्यज्ञान की प्राप्ति हुई थी.
मार्गशीर्ष मास के दशमी तिथि को भगवान श्री अरनाथ जी ने सम्मेद शिखर पर एक हज़ार साधुओं के साथ निर्वाण को प्राप्त किया था. सुन्दर भजन में श्री अरहनाथ भगवान की महिमा और उनके जीवन के अद्भुत पहलुओं का विस्तृत चित्र प्रस्तुत होता है। वे अठारहवें तीर्थंकर और सातवें चक्रवर्ती थे, जिनका जन्म हस्तिनापुर नगरी में हुआ। उनके पिता राजा सुदर्शन और माता महारानी मित्रसेना थीं। स्वर्ण वर्ण के धारी, मछली चिन्ह वाले अरहनाथ भगवान की आयु चौरासी हजार वर्ष थी, और उनका शरीर तप्त स्वर्ण सदृश था। बाल्यकाल से ही उनमें ज्ञान, संयम और विराग की गहरी भावना विद्यमान थी।
उनके जीवन में अनेक दिव्य घटनाएँ घटीं, जैसे शरद ऋतु में अचानक मेघों का विलय और हृदय में वैराग्य का उदय। उन्होंने पुत्र अरविन्द को राज्य सौंपकर स्वयं वनवास लिया और कठोर तपस्या की। मंगसिर शुक्ल दशमी को उन्होंने दीक्षा ग्रहण की और कार्तिक शुक्ल द्वादशी को केवलज्ञान प्राप्त किया। उनके समवशरण में गणधर, मुनि, आर्यिका, श्रावक-श्राविकाओं की विशाल संख्या थी, जिन्होंने उनके उपदेशों को ग्रहण कर धर्म का प्रचार किया।
अरहनाथ भगवान ने मोक्ष के मार्ग को स्पष्ट किया, जहाँ कर्मों का नाश और आत्मा की शुद्धि होती है। उन्होंने चौदह गुणस्थान, सत्तावन आश्रव और अन्य जैन सिद्धांतों को समझाया, जो जीवों को मोह, क्रोध, लोभ से मुक्त करते हैं। उनका जीवन संयम, त्याग और ज्ञान का आदर्श है, जो सभी जीवों के कल्याण के लिए प्रेरणा स्रोत है।
उनकी छवि केवल तीर्थंकर के रूप में नहीं, बल्कि एक महान शिक्षक, मोक्षमार्ग प्रदर्शक और संकटमोचक के रूप में प्रतिष्ठित है। उनके नाम का जाप और चरणों की सेवा से मनुष्य के जीवन में शांति, सुख और आध्यात्मिक उन्नति होती है। अरहनाथ भगवान की कृपा से पाप, भय, रोग और दुख दूर होते हैं, और आत्मा को अनंत आनंद की प्राप्ति होती है।
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Author - Saroj Jangir
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