तुलसीदास कवितावली हिंदी लिरिक्स Tulsidas Kavitawali Lyrics Hindi
तुलसीदास कवितावली
६१ जे रजनीचर बीर बिसाल, कराल बिलोकत काल न खाए।
ते रन-रोर कपीसकिसोर बड़े बरजोर परे फग पाये॥
लूम लपेटि, अकास निहारि कै, हाँकि हठी हनुमान चलाए।
सूखि गे गात, चले नभ जात, परे भ्रमबात, न भूतल आए॥
जो दससीसु महीधर ईसको बीस भुजा खुलि खेलनिहारो।
लोकप, दिग्गज, दानव , देव सबै सहमे सुनि साहसु भारो॥
बीर बड़ो बिरुदैत बली, अजहूँ जग जागत जासु पँवारो।
सो हनुमान हन्यो मुठिकाँ गिरि गो गिरिराजु ज्यों गाजको मारो॥
६२ दुर्गम दुर्ग, पहारतें भारे, प्रचंड महा भुजदंड बने हैं।
लक्खमें पक्खर, तिक्खन तेज, जे सूरसमाजमें गाज गने हैं॥
ते बिरुदैत बली रनबाँकुरे हाँकि हठी हनुमान हने हैं।
नामु लै रामु देखावत बंधुको घूमत घायल घायँ घने हैं॥
हाथिन सों हाथी मारे, घोरेसों सँघारे घोरे, रथनि सों रथ बिदरनि बलवानकी।
चंचल चपेट, चोट चरन चकोट चाहें, हहरानी फौजें भहरानी जातुधानकी॥
बार-बार सेवक-सराहना करत रामु, 'तुलसी' सराहै रीति साहेब सुजानकी।
लाँबी लूम लसत, लपेटि पटकत भट, देखौ देखौ, लखन! लरनि हनुमानकी॥
६३ दबकि दबोरे एक, बारिधिमें बोरे एक, मगन महीमें, एक गगन उड़ात हैं।
पकरि पछारे कर, चरन उखारे एक, चीरी-फारि डारे, एक मीजि मारे लात हैं॥
'तुलसी' लखत, रामु, रावनु, बिबुध, बिधि, चक्रपानि, चंडीपति, चंडिका सिहात हैं॥
बड़े-बड़े बानइत बीर बलवान बड़े, जातुधान, जूथप निपाते बातजात हैं॥
प्रबल प्रचंड बरिबंड बाहुदंड बीर धाए जातुधान, हनुमानु लियो घेरि कै।
महाबलपुंज कुंजरारि ज्यों गरजि, भट जहाँ-तहाँ पटके लँगूर फेरि-फेरि कै।
मारे लात, तोरे गात, भागे जात हाहा खात, कहैं, 'तुलसीस! राखि' रामकी सौं टरि कै।
ठहर-ठहर परे, कहरि-कहरि उठैं, हहरि-हहरि हरु सिध्द हँसे हेरि कै॥
६४ जाकी बाँकी बीरता सुनत सहमत सूर, जाकी आँच अबहूँ लसत लंक लाह-सी।
सोई हनुमान बलवान बाँको बानइत, जोहि जातुधान-सेना चल्यो लेत थाह-सी॥
कंपत अकंपन, सुखाय अतिकाय काय, कुंभऊकरन आइ रह्यो पाइ आह-सी।
देखे गजराज मृगराजु ज्यों गरजि धायो, बीर रघुबीरको समीरसूनु साहसी॥
झूलना
मत्त-भट-मुकुट, दसकंठ-साहस-सइल- सृंग-बिद्दरनि जनु बज्र-टाँकी।
दसन धरि धरनि चिक्करत दिग्गज, कमठु, सेषु संकुचित, संकित पिनाकी॥
चलत महि-मेरु, उच्छलत सायर सकल, बिकल बिधि बधिर दिसि-बिदसि झाँकी।
रजनिचर-घरनि घर गर्भ-अर्भक स्रवत, सुनत हनुमानकी हाँक बाँकी॥
६५ कौनकी हाँकपर चौंक चंडीसु, बिधि, चंडकर थकित फिरि तुरग हाँके।
कौनके तेज बलसीम भट भीम-से भीमता निरखि कर नयन ढाँके॥
दास-तुलसीसके बिरुद बरनत बिदुष, बीर बिरुदैत बर बैरि धाँके।
नाक नरलोक पाताल कोउ कहत किन कहाँ हनुमानु-से बीर बाँके।
जातुधानावली-मत्तकुंजरघटा निरखि मतगराजु ज्यों गिरितें टूट्यो।
बिकट चटकन चोट, चरन गहि, पटकि महि, निघटि गए सुभट, सतु सबको छूट्यो॥
'दासु तुलसी' परत धरनि धरकत, झुकत हाट-सी उठति जंबुकनि लूट्यो।
धीर रघूबीरको भीर रनबाँकुरो हाँकि हनुमान कुलि कटकु कूट्यो॥
छप्पै
कतहुँ बिटप-भूधर उपारि परसेन बरष्षत।
कतहुँ बाजिसों बाजि मर्दि, गजराज करष्षत॥
चरनचोट चटकन चकोट अरि-उर-सिर बज्जत।
बिकट कटकु बिद्दरत बीरु बारिदु जिमि गज्जत॥
लंगूर लपेटत पटकि भट, 'जयति राम, जय!उच्चरत।
तुलसीस पवननंदनु अटल जुध्द क्रुध्द कौतुक करत॥
६६ अंग-अंग दलित ललित फूले किंसुक-से हने भट लाखन लखन जातुधानके।
मारि कै, पछारि कै, उपारि भुजदंड चंड, खंडि-खंडि डारे ते बिदारे हनुमानके॥
कूदत कबंधके कदम्ब बंब-सी करत, धावत दिखावत हैं लाघौ राघौबानके।
तुलसी महेसु, बिधि, लोकपाल, देवगन, देखत बेवान चढ़े कौतुक मसानके॥
लोथिन सों लोहूके प्रबाह चले जहाँ-तहाँ मानहुँ गिरिन्ह गेरु झरना झरत हैं।
श्रोनितसरित घौर कुंजर-करारे भारे, कूलतें समूल बाजि-बिटप परत हैं॥
सुभट-सरीर नीर-चारी भारी-भारी तहाँ, सूरनि उछाहु, कूर कादर डरत हैं।
फेकरि- फेकरि फेरु फारि- फारि पेट खात, काक-कंक बालक कोलाहलु करत हैं॥
६७ ओझरीकी झोरी काँधे, आँतनिकी सेल्ही बाँधें, मूँडके कमंडल खपर किएँ कोरि कै।
जोगिनी झुटुंग झुंड-झुंड बनीं तापसीं-सी तीर-तीर बैठीं सो समर-सरि खौरि कै॥
श्रोनित सों सानि -सानि गूदा खात सतुआ-से प्रेत एक पिअत बहोरि घोरि-घोरि कै।
'तुलसि' बैताल-भूत साथ लिए भूतनाथु, हेरि- हेरि हँसत हैं हाथ-हाथ जोरि कै॥
राम सरासन तें चले तीर रहे न सरीर, हड़ावरि फूटीं।
रावन धीर न पीर गनी, लखि लै कर खफ्पर जोगिनि जूटीं॥
श्रोनित -छीट छटानि जटे तुलसी प्रभु सोहैं महा छबि छूटीं।
मानो मरक्कत-सैल बिसालमें फैलि चलीं बर बीरबहूटीं
लक्ष्मणमूर्छा
६८ मानी मैगनादसों प्रचारि भिरे भारी भट, आपने अपन पुरुषारथ न ढील की।
घायल लखनलालु लखी बिलखाने रामु, भई आस सिथिल जगन्निवास-दीलकी॥
भाईको न मोहु छोहु सीयको न तुलसीस कहैं 'मैं बिभीषनकी कछु न सबील की'।
लाज बाँह बोलेकी, नेवाजकी सँभार-सार साहेबु न रामु-से बलाइ लेउँ सीलकी॥
कानन बासु दसानन सो रिपु आननश्री ससि जीति लियो है।
बालि महा बलसालि दल्यो कपि पालि बिभीषनु भूपु कियो हैं॥
तीय हरी, रन बंधु पर्यो पै भर यो सरनागत सोच हियो है।
बाँह-पगार उदार कृपाल कहाँ रघुबीरु सो बीरु बियो है॥
६९ लीन्हो उखारि पहारु बिसाल, चल्यो तेहि काल, बिलंबु न लायो।
मारुतनंदन मारुतको, मनको, खगराजको बेगु लजायो॥
तीखी तुरा 'तुलसी' कहतो पै हिएँ उपमाको समाउ न आयो।
मानो प्रतच्छ परब्बतकी नभ। लीक लसी, कपि यों धुकि धायो॥
चल्यो हनुमानु, सुनि जातुधान कालनेमि पठयो , सो मुनि भयो, पायो फलु छलि कै।
सहसा उखारो है पहारु बहु जोजनको, रखवारे मारे भारे भूरि भट दलि कै॥
बेगु, बलु, साहस, सराहत कृपालु रामु, भरतकी कुसल, अचलु ल्यायो चलि कै।
हाथ हरिनाथके बिकाने रघुनाथ जनु, सीलसिंधु तुलसीस भलो मान्यो भलि कै॥
युध्द का अंत
७० बाप दियो काननु, भो आननु सुभाननु सो, बैरी भौ दसाननु सो, तीयको हरनु भो।
बालि बलसालि दलि, पालि कपिराजको, बिभीषनु नेवाजि, सेत सागर-तरनु भो॥
घोर रारि हेरि त्रिपुरारि-बिधि हारे हिएँ, घायल लखन बीर नर बरनु भो।
ऐसे सोकमें तिलोकु कै बिसोक पलही में, सबही को तुलसीको साहेबु सरनु भो॥
कुंभकरन्नु हन्यो रन राम, दल्यो दसकंधरु कंधर तोरे।
पूषनबंस बिभूषन-पूषन-तेज-प्रताप गरे अरि-ओरे॥
देव निसान बजावत, गावत, साँवतु गो मनभावत भो रे।
नाचत-बानर-भालु सबै 'तुलसी' कहि 'हा रे! हहा भै अहो रे'॥
७१ मारे रन रातिचर रावनु सकुल दलि, अनुकूल देव-मुनि फूल बरषतु है।
नाग, नर, किंनर, बिरंचि, हरि, हरु हेरि पुलक सरीर हिएँ हेतु हरषत हैं॥
बाम ओर जानकी कृपानिधानके बिराजैं, देखत बिषादु मिटै, मोदु करषतु हैं।
आयसु भो , लोकनि सिधारे लोकपाल सबै, 'तुलसी' निहाल कै कै दिये सरखतु हैं॥
(इति लंकाकाण्ड)
उत्तरकाण्ड
राम की कृपालुता
बालि-सो बीरु बिदारि सुकंठु, थप्यो, हरषे सुर बाजने बाजे।
पलमें दल्यो दासरथीं दसकंधरु, लंक बिभीषनु राज बिराजे॥
राम सुभाउ सुनें 'तुलसी' हिलसै अलसी हम-से गलगाजे।
कायर कूर कपूतनकी हद, तेउ गरीबनेवाज नेवाजे॥
७२ बेद पढ़ैं बिधि, संभुसभीत पुजावन रावनसों नितु आवैं।
दानव देव दयावने दीन दुखी दिन दूरहि तें सिरु नावैं॥
ऐसेउ भाग भगे दसभाल तें जो प्रभुता कबि-कोबिद गावैं।
रामसे बाम भएँ तेहि बामहि बाम सबै सुख संपति लावैं॥
बेद बिरुध्द मही, मुनि साधु ससोक किए सुरलोकु उजारो।
और कहा कहौं, तीय हरी, तबहूँ करुनाकर कोपु न धारौ॥
सेवक-छोह तें छाड़ी छमा, तुलसी लख्यो राम!सुभाउ तिहारो।
तौलों न दापु दल्यौ दसकंधर, जौलौ बिभीषन लातु न मारो॥
७३ सोक समुद्र निमज्जत काढि कपीसु कियो, जगु जानत जैसो।
नीच निसाचर बैरिको बंधु बिभीषनु कीन्ह पुरंदर कैसो॥
नाम लिएँ अपनाइ लियो तुलसी-सो, कहौं जग कौन अनैसो।
आरत आरति भंजन रामु, गरीबनेवाज न दूसरो ऐसो॥
मीत पुनीत कियो कपि भालुको , पाल्यो ज्यों काहुँ न बाल तनुजो।
सज्जन सींव बिभीषनु भो, अजहूँ बिलसै बर बंधुबधू जो॥
कोसलपाल बिना 'तुलसी' सरनागतपाल कृपाल न दूजो।
कूर, कुजाति, कुपूत, अघी, सबकी सुधरै, जो करै नरु पूजो॥
७४ तीय सिरोमनि सीय तजी, जेहिं पावककी कलुषाई दही है॥
धर्मधुरंधर बंधु तज्यो, पुरलोगनिकी बिधि बोलि कही है॥
कीस निसाचरकी करनी न सुनी, न बिलोकी, न चित्त रही है।
राम सदा सरनागतकी अनखौंहीं, अनैसी सुभायँ सही है॥
अपराध अगाध भएँ जनतें, अपने उर आनत नाहिन जू।
गनिका, गज , गीध , अजामिलके गनि पातकपुंज सिराहिं न जू॥
लिएँ बारक नामु सुधामु दियो , जेहिं धाम महामुनि जाहिं न जू।
तुलसी! भजु दीनदयालहि रे! रघुनाथ अनाथहि दाहिन जू॥
७५ प्रभु सत्य करी प्रहलादगिरा, प्रगटे नरकेहरि खंभ महाँ।
झषराज ग्रस्यो गजराजु, कृपा ततकाल बिलंबु कियो न तहाँ॥
सुर साखि दै राखी है पांडुबधू पट लूटत, कोटिक भूप जहाँ।
तुलसी! भजु सोच-बिमोचनको, जनको पनु राम न राख्यो कहाँ॥
नरनारि उघारि सभा महुँ होत दियो पटु, सोचु हर यो मनको।
प्रहलाद बिषाद-निवारन, बारन-तारन, मीत अकारनको॥
जो कहावत दीनदयाल सही, जेहि भारु सदा अपने पनको।
'तुलसी' तजि आन भरोस भजें , भगवानु भलो करिहैं जनको॥
७६ रिषिनारि उधारि, कियो सठ केवटु मीतु पुनीत, सुकीर्ति लही।
निजलोकु दयो सबरी-खगको, कपि थाप्यो, सो मालुम है सबही॥
दससीस-बिरोध सभीत बिभीषनु भूपु कियो, जग लीक रही।
करुनानिधिको भजु, रे तुलसी! रघुनाथ अनाथके नाथु सही॥
कौसिक, बिप्रबधू मिथिलाधिपके सब सोच दले पल माहैं।
बालि-दसानन-बंधु-कथा सुनि, सत्रु सुसाहेब-सीलु सराहैं॥
ऐसी अनूप कहैं तुलसी रघुनायककी अगनी गुनगाहैं।
आरत, दीन, अनाथनको रघुनाथु करैं निज हाथकी छाहैं॥
७७ तेरे बेसाहें बेसाहत औरनि, और बेसाहिकै बेचनिहारे।
ब्योम, रसातल, भूमि भरे नृप कूर, कुसाहेब सेंतिहुँ खारे॥
'तुलसी' तेहि सेवत कौन मरै! रजतें लघुको करैं मेरुतें भारे?
स्वामि सुसील समर्थ सुजान, सो तो-हो तुहीं दसरत्थ दुलारे॥
जातुधान, भालु, कपि, केवट, बिहंग जो-जो पाल्यो नाथ! सद्य सो. सो भयो काम-काजको।
आरत अनाथ दीन मलिन सरन आए, राखे अपनाइ, सो सुभाउ महाराजको॥
नामु तुलसी, पै भोंडो भाँग तें , कहायो दासु, कियो अंगीकार ऐसे बड़े दगाबाजको।
साहेबु समर्थ दसरत्थके दयालदेव! दूसरो न तो-सो तुम्हीं आपनेकी लाजको॥
७८ महबली बालि दलि, कायर सुकंठु कपि सखा किए महाराज! हो न काहू कामको।
भ्रात-घात-पातकी निसाचर सरन आएँ, कियो अंगीकार नाथ एते बड़े बामको॥
राय, दसरत्थके! समर्थ तेरे नाम लिएँ, तुलसी-से कूरको कहत जगु रामको।
आपने निवाजेकी तौ लाज महाराजको सुभाउ, समुझत मनु मुदित गुलामको॥
रूप-सीलसिंधु, गुनसिंधु, बंधु दीनको, दयानिधान, जानमनि, बीरबाहु-बोलको।
स्राध्द कियो गीधको, सराहे फल सबरीके सिला-साप-समन, निबाह्यो नेहु कोलको॥
तुलसी-उराउ होत रामको सुभाउ सुनि, को न बलि जाइ, न बिकाइ बिनु मोल को।
ऐसेहु सुसाहेबसों जाको अनुरागु न, सो बड़ोई अभागो, भागु भागो लोभ -लोलको॥
७९ सूरसिरताज, महाराजनि के महाराज जाको नामु लेतहीं सुखेतु होत ऊसरो।
साहेबु कहाँ जहान जानकीसु सो सुजानु, सुमिरें कृपालुके मरालु होत खूसरो॥
केवट, पषान, जातुधान, कपि-भालु तारे, अपनायो तुलसी-सो धींग धमधूसरो।
बोलको अटल, बाँहको पगारु, दीनबंधु, दूबरेको दानी, को दयानिधान दूसरो॥
कीबेको बिसोक लोक लोकपाल हुते सब, कहूँ कोऊ भो न चरवाहो कपि -भालुको।
पबिको पहारु कियो ख्यालही कृपाल राम, बापुरो बिभीषनु घरौंधा हुतो बालको॥
नाम-ओट लेत ही निखोट होत खोटे खल, चोट बिनु मोट पाइ भयो न निहालु को?
तुलसीकी बार बड़ी ढील होति सीलसिंधु! बिगरी सुधारिबेको दूसरो दयालु को॥
८० नामु लिएँ पूतको पुनीत कियो पातकीसु, आरति निवारी 'प्रभु पाहि' कहें पीलकी।
छलनिको छोंडी, सो निगोड़ी छोटी जाति -पाँति कीन्ही लीन आपुमें सुनारी भोंड़े भीलकी॥
तुलसी औ तोरिबो बिसारबो न अंत मोहि, नीकें है प्रतीति रावरे सुभाव-सीलकी।
देऊ, तो दयानिकेत, देत दादि दीननको, मेरी बार मेरें ही अभाग नाथ ढील की॥
आगें परे पाहन कृपाँ किरात, कोलनी, कपीस, निसिचर अपनाए नाएँ माथ जू।
साँची सेवकाई हनुमान की सुजानराय, रिनियाँ कहाए हौ, बिकाने ताके हाथ जू॥
तुलसी-से खोटे खरे होत ओट नाम ही कीं , तेजी माटी मगहू की मृगमद साथ जू।
बात चलें बातको न मानिबो बिलगु, बलि, काकीं सेवाँ रीझिकै नेवाजो रघुनाथ जू?
८१ कौसिककी चलत, पषानकी परस पाय, टूटत धनुष बनि गई है जनककी।
कोल, पसु, सबरी, बिहंग, भालु, रातिचर, रतिनके लालचचिन प्रापति मनककी॥
कोटि-कला-कुसल कृपाल नतपाल! बलि, बातहू केतिक तिन तुलसी तनककी।
राय दसरत्थ के समत्थ राम राजमनि! तेरें हेरें लोपै लिपि बिधिहू गनककी॥
सिला-श्राप पापु गुह-गीधको मिलापु सबरीके पास आपु चलि गए हौ सो सुनी मैं।
सेवक सराहे कपिनायकु बिभीषनु भरतसभा सादर सनेह सुरधुनी मैं॥
आलसी- अभागी-अघी-आरत -अनाथपाल साहेबु समर्थ एकु, नीकें मन गुनी मैं।
दोष-दुख-दारिद-दलैया दीनबंधु राम! 'तुलसी' न दूसरो दयानिधानु दुनी मैं॥
८२ मीतु बालिबंधु, पूतु, दूतु, दसकंधबंधु सचिव, सराधु कियो सबरी-जटाइको।
लंक जरी जोहें जियँ सोचसो बिभीषनुको, कहौ ऐसे साहेबकी सेवाँ न खटाइ को॥
बड़े एक-एकतें अनेक लोक लोकपाल, अपने-अपनेको तौ कहैगो घटाइ को।
साँकरेके सेइबे, सराहिबे, सुमिरिबेको रामु सो न साहेबु न कुमति-कटाइ को॥
भूमिपाल, ब्यालपाल, नाकपाल, लोकपाल कारन कृपाल, मैं सबैके जीकी थाह ली।
कादरको आदरु काहूकें नाहिं देखिअत, सबनि सोहात है सेवा-सुजानि टाहली॥
तुलसी सुभायँ कहै, नाहीं कछु पच्छपातु, कौनें ईस किए कीस भालु खास माहली।
रामही के द्वारे पै बोलाइ सनमानिअत मोसे दीन दूबरे कपूत कूर काहली॥
८३ सेवा अनुरूप फल देत भूप कूप ज्यों, बिहूने गुन पथिक पिआसे जात पथके।
लेखें-जोखै चित'तुलसी' स्वारथ हित, नीकें देखे देवता देवैया घने गथके॥
गीधु मानो गुरु कपि-भालु माने मीत कै, पूनीत गीत साके सब साहेब समत्थके।
और भूप परखि सुलाखि तौलि ताइ लेत, लसमके खसमु तुहीं पै दसरत्थके॥
केवल राम ही से माँगो
रीति महाराजकी, नेवाजिए जो माँगनो, सो दोष-दुख-दारिद दरिद्र कै-कै छोड़िए।
नामु जाको कामतरु देत फल चारि, ताहि 'तुलसी' बिहाइकै बबूर-रेंड़ गोड़िए॥
जाचे को नरेस, देस-देसको कलेसु करै देहैं तौ प्रसन्न ह्वै बड़ी बड़ाई बौड़िए।
कृपा-पाथनाथ लोकनाथ-नाथ सीतानाथ तजि रघुनाथ हाथ और काहि औड़िये॥
८४ जाकें बिलोकत लोकप होत, बिसोक लहैं सुरलोग सुठौरहि।
सो कमला तजि चंचलता, करि कोटि कला रिझवै सुरमौरहि॥
ताको कहाइ, कहै तुलसी, तूँ लजाहि न मागत कूकुर-कौरहि।
जानकी-जीवनको जनु ह्वै जरि जाउ सो जीह जो जाचत औरहि॥
जड़ पंच मिलै जेहिं देह करी, करनी लखु धौं धरनीधरकी।
जनकी कहु, क्यों करिहै न सँभार, जो सार करै सचराचरकी॥
तुलसी! कहु राम समान को आन है, सेवकि जासु रमा घरकी।
जगमें गति जाहि जगत्पतिकी परवाह है ताहि कहा नरकी॥
८५ जग जाचिअ कोउ न, जाचिअ जौं जियँ जाचा जानकीजानहि रे।
जेहि जाचत जाचकता जरि जाइ, जो जारति जोर जहानहि रे॥
गति देखु बिचारि बिभीषनकी, अरु आनु हिए हनुमानहि रे।
तुलसी! भजु दारिद-दोष-दवानल संकट-कोटि कृपानहि रे॥
उद्बोधन
सुनु कान दिएँ, नितु नेमु लिएँ रघुनाथहिके गुनगाथहि रे।
सुखमंदिर सुंदर रुपु सदा उर आनि धरें धनु-भाथहि रे॥
रसना निसि-बासर सादर सों तुलसी! जपु जानकीनाथहि रे।
करु संग सुसील सुसंतन सों, तजि कूर, कुफंथ कुसाथहि रे॥
८६ सुत, दार, अगारु, सखा, परिवारु बिलोकु महा कुसमाजहि रे।
सबकी ममता तजि कै, समता सजि, संतसभाँ न बिराजहि रे॥
नरदेह कहा, करि देखु बिचारु, बिगारु गँवार न काजहि रे।
जनि डोलहि लोलुप कूकरु ज्यों, तुलसी भजु कोसलराजहि रे॥
बिषया परनारि निसा-तरुनाई सो पाइ पर यो अनुरागहि रे।
जमके पहरु दुख, रोग बियोग बिलोकत हू न बिरागहि रे॥
ममता बस तैं सब भूलि गयो, भयो भोरु महा भय भागहि रे।
जरठाइ दिसाँ , रबिकालु अग्यो, अजहूँ जड़ जीव! न जागहि रे॥
८७ जनम्यो जेहिं जोनि, अनेक क्रिया सुख लागि करीं, न परैं बरनी।
जननी-जनकादि हितु भये भूरि बहोरि भई उरकी जरनी॥
तुलसी! अब रामको दासु कहाइ, हिएँ धरु चातककी धरनी।
करि हंसको बेषु बड़ो सबसों, तजि दे बक-बायसकी करनी॥
भलि भारतभूमि, भलें कुल जन्मु, समाजु सरीरु भलो लहि कै।
करषा तजि कै परुषा बरषा हिम, मारुत, घाम सदा सहि कै॥
जो भजै भगवानु सयान सोई, 'तुलसी' हठ चातकु ज्यों गहि कै॥
नतु और सबै बिषबीज बए, हर हाटक कामदुहा नहि कै॥
जो सुकृती सुचिमंत सुसंत सुजान सुसीलसिरोमनि स्वै।
सुर-तीरथ तासु मनावत आवत , पावन होत हैं ता तनु छ्वै॥
गुनगेह सनेहको भाजनु सो, सब ही सों उठाइ कहौं भुज द्वै।
सतिभायँ सदा छल छाड़ि सबै'तुलसी' जो रहै रघुबीरको ह्वै॥
विनय
सो जननी, सो पिता, सोइ भाइ, सोभामिनि, सो सुतु, सो हित मेरो।
सोइ सगो, सो सखा, सोइ सेवकु, सो गुरु, सो सुरु, साहेबु चेरो॥
सो 'तुलसी' प्रिय प्रान समान, कहाँ लौं बनाइ कहौं बहुतेरो।
जो तजि देहको, गेहको नेहु, सनेहसो रामको होइ सबेरो॥
रामु हैं मातु, पिता, गुरु, बंधु, औ संगी, सखा, सुतु, स्वामि, सनेही।
रामकी सौंह, भरोसो है रामको, राम रँग्यो, रुचि राच्यो न केही॥
जीअत रामु, मुएँ पुनि रामु, सदा रघुनाथहि की गति जेही।
सोई जिए जगमें, 'तुलसी' नतु डोलत और मुए धरि देही॥
राम प्रेम ही सार है
सियराम-सरुपु अगाध अनूप बिलोचन-मीनको जलु है।
श्रुति रामकथा, मुख रामको नामु, हिएँ पुनि रामहिको थलु है॥
मति रामहि सों, गति रामहि सों, रति रामसों, रामहि को बलु है।
सबकी न कहै, तुलसीके मतें इतनो जग जीवनको फलु है॥
दसरत्थके दानि सिरोमनि राम! पुरान प्रसिध्द सुन्यो जसु मैं।
नर नाग सुरासर जाचक जो, तुमसों मन भावत पायो न कैं॥
तुलसी कर जोरि करै बिनती, जो कृपा करि दीनदयाल सुनैं।
जेहि देह सनेहु न रावरे सों, असि देह धराइ कै जायँ जियैं॥
झूठो है, झूठो है, झूठो सदा जगु, संत कहंत जे अंतु लहा है॥
ताको सहै सठ! संकट कोटिक, काढ़त दंत, करंत हहा है॥
जानपनीको गुमान बढ़ो, तुलसीके बिचार गँवार महा है।
जानकीजीवनु जान न जान्यो तौ जान कहावत जान्यो कहा है॥
८८ तिन्ह तें खर, सूकर, स्वान भले, जड़ता बस ते न कहैं कछु वै।
'तुलसी' जेहि रामसों नेहु नहीं सो सही पसु पूँछ, बिषान न द्वै।
जननी कत भार मुई दस मास, भई किन बाँझ, गई किन च्वै।
जरि जाउ सो जीवनु, जानकीनाथ! जियै जगमें तुम्हरौ बिनु ह्वै॥
गज-बाजि-घटा, भले भूरि भटा, बनिता, सुत भौंह तकैं सब वै।
धरनी, धनु धाम सरीरु भलो, सुरलोकहु चाहि इहै सुख स्वै।
सब फोटक साटक है तुलसी, अपनो न कछू सपनो दिन द्वै।
जरि जाउ सो जीवन जानकीनाथ! जियै जगमें तुम्हरो बिनु ह्वै॥
सुरराज सो राज-समाजु, समृध्दि बिरंचि, धनाधिप-सो धनु भौ।
पवमानु-सो पावकु-सो, जमु, सोमु-सो, पूषनु-सो भवभूषनु भो॥
करि जोग, समीरन साधि, समाधि कै धीर बड़ो, बसहू मनु भो।
सब जाय, सुभायँ कहै तुलसी, जो नै जानकीजीवनको जनु भो॥
८९ कामु-से रूप, प्रताप दिनेसु-से, सोमु-से सील, गनेसु-से माने।
हरिचंदु-से साँचे, बड़े बिधि-से, मघवा-से महीप बिषै-सुख-साने॥
सुक-से मुनि, सारद-से बकता, चिरजीवन लोमस तें अधिकाने।
ऐसे भए तौ कहा 'तुलसी, ' जो पै राजिवलोचन रामु न जाने॥
झूमत द्वार अनेक मतंग जँजीर-जरे, मद अंबु चुचाते।
तीखे तुरंग मनोगति-चंचल, पौनके गौनहु तें बढ़ि जाते॥
भीतर चंद्रमुखी अवलोकति, बाहर भूप करे न समाते।
ऐसे भए तौ कहा, तुलसी, जो पै जानकीनाथके रंग न राते॥
राज सुरेस पचासकको बिधिके करको जो पटो लिखि पाएँ।
पूत सुपूत, पुनीत प्रिया, निज सुंदरताँ रतिको मदु नाएँ॥
संपति-सिध्दि सबै 'तुलसी' मनकी मनसा चतवैं चितु लाएँ॥
जानकीजीवनु जाने बिना जग ऐसेउ जीव न जीव कहाएँ॥
९० कृसगात ललात जो रोटिन को, घरवात घरें खुरपा-खरिया।
तिन्ह सोनेके मेरु-से ढेर लहे, मनु तौ न भरो, घरु पै भरिया॥
'तुलसी' दुखु दूनो दसा दुहुँ देखि, कियो मुखु दारिद को करिया।
तजि आस भो दासु रघुप्पतिको, दसरथ्तको दानि दया-दरिया॥
को भरिहे हरिके रितएँ, रितवै पुनि को, हरि जौं भरिहै।
उथपै तेहि को, जेहि रामु थपै, थपिहै तेहि को, हरि जौं टरिहै॥
तुलसी यहु जानि हिएँ अपनें सपनें नहि कालहु तें डरिहै।
कुमयाँ कछु हानि न औरनकीं, जो पै जानकी-नाथु मया करिहै॥
ब्याल कराल महाबिष, पावक मत्तगयंदहु के रद तोरे।
साँसति संकि चली, डरपे हुते किंकर, ते करनी मुख मोरे॥
नेकु बिषादु नहीं प्रहलादहि कारन केहरिके बल हो रे।
कौनकी त्रास करै तुलसी जो पै राखिहै राम, तौ मारिहै को रे।
६१ जे रजनीचर बीर बिसाल, कराल बिलोकत काल न खाए।
ते रन-रोर कपीसकिसोर बड़े बरजोर परे फग पाये॥
लूम लपेटि, अकास निहारि कै, हाँकि हठी हनुमान चलाए।
सूखि गे गात, चले नभ जात, परे भ्रमबात, न भूतल आए॥
जो दससीसु महीधर ईसको बीस भुजा खुलि खेलनिहारो।
लोकप, दिग्गज, दानव , देव सबै सहमे सुनि साहसु भारो॥
बीर बड़ो बिरुदैत बली, अजहूँ जग जागत जासु पँवारो।
सो हनुमान हन्यो मुठिकाँ गिरि गो गिरिराजु ज्यों गाजको मारो॥
६२ दुर्गम दुर्ग, पहारतें भारे, प्रचंड महा भुजदंड बने हैं।
लक्खमें पक्खर, तिक्खन तेज, जे सूरसमाजमें गाज गने हैं॥
ते बिरुदैत बली रनबाँकुरे हाँकि हठी हनुमान हने हैं।
नामु लै रामु देखावत बंधुको घूमत घायल घायँ घने हैं॥
हाथिन सों हाथी मारे, घोरेसों सँघारे घोरे, रथनि सों रथ बिदरनि बलवानकी।
चंचल चपेट, चोट चरन चकोट चाहें, हहरानी फौजें भहरानी जातुधानकी॥
बार-बार सेवक-सराहना करत रामु, 'तुलसी' सराहै रीति साहेब सुजानकी।
लाँबी लूम लसत, लपेटि पटकत भट, देखौ देखौ, लखन! लरनि हनुमानकी॥
६३ दबकि दबोरे एक, बारिधिमें बोरे एक, मगन महीमें, एक गगन उड़ात हैं।
पकरि पछारे कर, चरन उखारे एक, चीरी-फारि डारे, एक मीजि मारे लात हैं॥
'तुलसी' लखत, रामु, रावनु, बिबुध, बिधि, चक्रपानि, चंडीपति, चंडिका सिहात हैं॥
बड़े-बड़े बानइत बीर बलवान बड़े, जातुधान, जूथप निपाते बातजात हैं॥
प्रबल प्रचंड बरिबंड बाहुदंड बीर धाए जातुधान, हनुमानु लियो घेरि कै।
महाबलपुंज कुंजरारि ज्यों गरजि, भट जहाँ-तहाँ पटके लँगूर फेरि-फेरि कै।
मारे लात, तोरे गात, भागे जात हाहा खात, कहैं, 'तुलसीस! राखि' रामकी सौं टरि कै।
ठहर-ठहर परे, कहरि-कहरि उठैं, हहरि-हहरि हरु सिध्द हँसे हेरि कै॥
६४ जाकी बाँकी बीरता सुनत सहमत सूर, जाकी आँच अबहूँ लसत लंक लाह-सी।
सोई हनुमान बलवान बाँको बानइत, जोहि जातुधान-सेना चल्यो लेत थाह-सी॥
कंपत अकंपन, सुखाय अतिकाय काय, कुंभऊकरन आइ रह्यो पाइ आह-सी।
देखे गजराज मृगराजु ज्यों गरजि धायो, बीर रघुबीरको समीरसूनु साहसी॥
झूलना
मत्त-भट-मुकुट, दसकंठ-साहस-सइल- सृंग-बिद्दरनि जनु बज्र-टाँकी।
दसन धरि धरनि चिक्करत दिग्गज, कमठु, सेषु संकुचित, संकित पिनाकी॥
चलत महि-मेरु, उच्छलत सायर सकल, बिकल बिधि बधिर दिसि-बिदसि झाँकी।
रजनिचर-घरनि घर गर्भ-अर्भक स्रवत, सुनत हनुमानकी हाँक बाँकी॥
६५ कौनकी हाँकपर चौंक चंडीसु, बिधि, चंडकर थकित फिरि तुरग हाँके।
कौनके तेज बलसीम भट भीम-से भीमता निरखि कर नयन ढाँके॥
दास-तुलसीसके बिरुद बरनत बिदुष, बीर बिरुदैत बर बैरि धाँके।
नाक नरलोक पाताल कोउ कहत किन कहाँ हनुमानु-से बीर बाँके।
जातुधानावली-मत्तकुंजरघटा निरखि मतगराजु ज्यों गिरितें टूट्यो।
बिकट चटकन चोट, चरन गहि, पटकि महि, निघटि गए सुभट, सतु सबको छूट्यो॥
'दासु तुलसी' परत धरनि धरकत, झुकत हाट-सी उठति जंबुकनि लूट्यो।
धीर रघूबीरको भीर रनबाँकुरो हाँकि हनुमान कुलि कटकु कूट्यो॥
छप्पै
कतहुँ बिटप-भूधर उपारि परसेन बरष्षत।
कतहुँ बाजिसों बाजि मर्दि, गजराज करष्षत॥
चरनचोट चटकन चकोट अरि-उर-सिर बज्जत।
बिकट कटकु बिद्दरत बीरु बारिदु जिमि गज्जत॥
लंगूर लपेटत पटकि भट, 'जयति राम, जय!उच्चरत।
तुलसीस पवननंदनु अटल जुध्द क्रुध्द कौतुक करत॥
६६ अंग-अंग दलित ललित फूले किंसुक-से हने भट लाखन लखन जातुधानके।
मारि कै, पछारि कै, उपारि भुजदंड चंड, खंडि-खंडि डारे ते बिदारे हनुमानके॥
कूदत कबंधके कदम्ब बंब-सी करत, धावत दिखावत हैं लाघौ राघौबानके।
तुलसी महेसु, बिधि, लोकपाल, देवगन, देखत बेवान चढ़े कौतुक मसानके॥
लोथिन सों लोहूके प्रबाह चले जहाँ-तहाँ मानहुँ गिरिन्ह गेरु झरना झरत हैं।
श्रोनितसरित घौर कुंजर-करारे भारे, कूलतें समूल बाजि-बिटप परत हैं॥
सुभट-सरीर नीर-चारी भारी-भारी तहाँ, सूरनि उछाहु, कूर कादर डरत हैं।
फेकरि- फेकरि फेरु फारि- फारि पेट खात, काक-कंक बालक कोलाहलु करत हैं॥
६७ ओझरीकी झोरी काँधे, आँतनिकी सेल्ही बाँधें, मूँडके कमंडल खपर किएँ कोरि कै।
जोगिनी झुटुंग झुंड-झुंड बनीं तापसीं-सी तीर-तीर बैठीं सो समर-सरि खौरि कै॥
श्रोनित सों सानि -सानि गूदा खात सतुआ-से प्रेत एक पिअत बहोरि घोरि-घोरि कै।
'तुलसि' बैताल-भूत साथ लिए भूतनाथु, हेरि- हेरि हँसत हैं हाथ-हाथ जोरि कै॥
राम सरासन तें चले तीर रहे न सरीर, हड़ावरि फूटीं।
रावन धीर न पीर गनी, लखि लै कर खफ्पर जोगिनि जूटीं॥
श्रोनित -छीट छटानि जटे तुलसी प्रभु सोहैं महा छबि छूटीं।
मानो मरक्कत-सैल बिसालमें फैलि चलीं बर बीरबहूटीं
लक्ष्मणमूर्छा
६८ मानी मैगनादसों प्रचारि भिरे भारी भट, आपने अपन पुरुषारथ न ढील की।
घायल लखनलालु लखी बिलखाने रामु, भई आस सिथिल जगन्निवास-दीलकी॥
भाईको न मोहु छोहु सीयको न तुलसीस कहैं 'मैं बिभीषनकी कछु न सबील की'।
लाज बाँह बोलेकी, नेवाजकी सँभार-सार साहेबु न रामु-से बलाइ लेउँ सीलकी॥
कानन बासु दसानन सो रिपु आननश्री ससि जीति लियो है।
बालि महा बलसालि दल्यो कपि पालि बिभीषनु भूपु कियो हैं॥
तीय हरी, रन बंधु पर्यो पै भर यो सरनागत सोच हियो है।
बाँह-पगार उदार कृपाल कहाँ रघुबीरु सो बीरु बियो है॥
६९ लीन्हो उखारि पहारु बिसाल, चल्यो तेहि काल, बिलंबु न लायो।
मारुतनंदन मारुतको, मनको, खगराजको बेगु लजायो॥
तीखी तुरा 'तुलसी' कहतो पै हिएँ उपमाको समाउ न आयो।
मानो प्रतच्छ परब्बतकी नभ। लीक लसी, कपि यों धुकि धायो॥
चल्यो हनुमानु, सुनि जातुधान कालनेमि पठयो , सो मुनि भयो, पायो फलु छलि कै।
सहसा उखारो है पहारु बहु जोजनको, रखवारे मारे भारे भूरि भट दलि कै॥
बेगु, बलु, साहस, सराहत कृपालु रामु, भरतकी कुसल, अचलु ल्यायो चलि कै।
हाथ हरिनाथके बिकाने रघुनाथ जनु, सीलसिंधु तुलसीस भलो मान्यो भलि कै॥
युध्द का अंत
७० बाप दियो काननु, भो आननु सुभाननु सो, बैरी भौ दसाननु सो, तीयको हरनु भो।
बालि बलसालि दलि, पालि कपिराजको, बिभीषनु नेवाजि, सेत सागर-तरनु भो॥
घोर रारि हेरि त्रिपुरारि-बिधि हारे हिएँ, घायल लखन बीर नर बरनु भो।
ऐसे सोकमें तिलोकु कै बिसोक पलही में, सबही को तुलसीको साहेबु सरनु भो॥
कुंभकरन्नु हन्यो रन राम, दल्यो दसकंधरु कंधर तोरे।
पूषनबंस बिभूषन-पूषन-तेज-प्रताप गरे अरि-ओरे॥
देव निसान बजावत, गावत, साँवतु गो मनभावत भो रे।
नाचत-बानर-भालु सबै 'तुलसी' कहि 'हा रे! हहा भै अहो रे'॥
७१ मारे रन रातिचर रावनु सकुल दलि, अनुकूल देव-मुनि फूल बरषतु है।
नाग, नर, किंनर, बिरंचि, हरि, हरु हेरि पुलक सरीर हिएँ हेतु हरषत हैं॥
बाम ओर जानकी कृपानिधानके बिराजैं, देखत बिषादु मिटै, मोदु करषतु हैं।
आयसु भो , लोकनि सिधारे लोकपाल सबै, 'तुलसी' निहाल कै कै दिये सरखतु हैं॥
(इति लंकाकाण्ड)
उत्तरकाण्ड
राम की कृपालुता
बालि-सो बीरु बिदारि सुकंठु, थप्यो, हरषे सुर बाजने बाजे।
पलमें दल्यो दासरथीं दसकंधरु, लंक बिभीषनु राज बिराजे॥
राम सुभाउ सुनें 'तुलसी' हिलसै अलसी हम-से गलगाजे।
कायर कूर कपूतनकी हद, तेउ गरीबनेवाज नेवाजे॥
७२ बेद पढ़ैं बिधि, संभुसभीत पुजावन रावनसों नितु आवैं।
दानव देव दयावने दीन दुखी दिन दूरहि तें सिरु नावैं॥
ऐसेउ भाग भगे दसभाल तें जो प्रभुता कबि-कोबिद गावैं।
रामसे बाम भएँ तेहि बामहि बाम सबै सुख संपति लावैं॥
बेद बिरुध्द मही, मुनि साधु ससोक किए सुरलोकु उजारो।
और कहा कहौं, तीय हरी, तबहूँ करुनाकर कोपु न धारौ॥
सेवक-छोह तें छाड़ी छमा, तुलसी लख्यो राम!सुभाउ तिहारो।
तौलों न दापु दल्यौ दसकंधर, जौलौ बिभीषन लातु न मारो॥
७३ सोक समुद्र निमज्जत काढि कपीसु कियो, जगु जानत जैसो।
नीच निसाचर बैरिको बंधु बिभीषनु कीन्ह पुरंदर कैसो॥
नाम लिएँ अपनाइ लियो तुलसी-सो, कहौं जग कौन अनैसो।
आरत आरति भंजन रामु, गरीबनेवाज न दूसरो ऐसो॥
मीत पुनीत कियो कपि भालुको , पाल्यो ज्यों काहुँ न बाल तनुजो।
सज्जन सींव बिभीषनु भो, अजहूँ बिलसै बर बंधुबधू जो॥
कोसलपाल बिना 'तुलसी' सरनागतपाल कृपाल न दूजो।
कूर, कुजाति, कुपूत, अघी, सबकी सुधरै, जो करै नरु पूजो॥
७४ तीय सिरोमनि सीय तजी, जेहिं पावककी कलुषाई दही है॥
धर्मधुरंधर बंधु तज्यो, पुरलोगनिकी बिधि बोलि कही है॥
कीस निसाचरकी करनी न सुनी, न बिलोकी, न चित्त रही है।
राम सदा सरनागतकी अनखौंहीं, अनैसी सुभायँ सही है॥
अपराध अगाध भएँ जनतें, अपने उर आनत नाहिन जू।
गनिका, गज , गीध , अजामिलके गनि पातकपुंज सिराहिं न जू॥
लिएँ बारक नामु सुधामु दियो , जेहिं धाम महामुनि जाहिं न जू।
तुलसी! भजु दीनदयालहि रे! रघुनाथ अनाथहि दाहिन जू॥
७५ प्रभु सत्य करी प्रहलादगिरा, प्रगटे नरकेहरि खंभ महाँ।
झषराज ग्रस्यो गजराजु, कृपा ततकाल बिलंबु कियो न तहाँ॥
सुर साखि दै राखी है पांडुबधू पट लूटत, कोटिक भूप जहाँ।
तुलसी! भजु सोच-बिमोचनको, जनको पनु राम न राख्यो कहाँ॥
नरनारि उघारि सभा महुँ होत दियो पटु, सोचु हर यो मनको।
प्रहलाद बिषाद-निवारन, बारन-तारन, मीत अकारनको॥
जो कहावत दीनदयाल सही, जेहि भारु सदा अपने पनको।
'तुलसी' तजि आन भरोस भजें , भगवानु भलो करिहैं जनको॥
७६ रिषिनारि उधारि, कियो सठ केवटु मीतु पुनीत, सुकीर्ति लही।
निजलोकु दयो सबरी-खगको, कपि थाप्यो, सो मालुम है सबही॥
दससीस-बिरोध सभीत बिभीषनु भूपु कियो, जग लीक रही।
करुनानिधिको भजु, रे तुलसी! रघुनाथ अनाथके नाथु सही॥
कौसिक, बिप्रबधू मिथिलाधिपके सब सोच दले पल माहैं।
बालि-दसानन-बंधु-कथा सुनि, सत्रु सुसाहेब-सीलु सराहैं॥
ऐसी अनूप कहैं तुलसी रघुनायककी अगनी गुनगाहैं।
आरत, दीन, अनाथनको रघुनाथु करैं निज हाथकी छाहैं॥
७७ तेरे बेसाहें बेसाहत औरनि, और बेसाहिकै बेचनिहारे।
ब्योम, रसातल, भूमि भरे नृप कूर, कुसाहेब सेंतिहुँ खारे॥
'तुलसी' तेहि सेवत कौन मरै! रजतें लघुको करैं मेरुतें भारे?
स्वामि सुसील समर्थ सुजान, सो तो-हो तुहीं दसरत्थ दुलारे॥
जातुधान, भालु, कपि, केवट, बिहंग जो-जो पाल्यो नाथ! सद्य सो. सो भयो काम-काजको।
आरत अनाथ दीन मलिन सरन आए, राखे अपनाइ, सो सुभाउ महाराजको॥
नामु तुलसी, पै भोंडो भाँग तें , कहायो दासु, कियो अंगीकार ऐसे बड़े दगाबाजको।
साहेबु समर्थ दसरत्थके दयालदेव! दूसरो न तो-सो तुम्हीं आपनेकी लाजको॥
७८ महबली बालि दलि, कायर सुकंठु कपि सखा किए महाराज! हो न काहू कामको।
भ्रात-घात-पातकी निसाचर सरन आएँ, कियो अंगीकार नाथ एते बड़े बामको॥
राय, दसरत्थके! समर्थ तेरे नाम लिएँ, तुलसी-से कूरको कहत जगु रामको।
आपने निवाजेकी तौ लाज महाराजको सुभाउ, समुझत मनु मुदित गुलामको॥
रूप-सीलसिंधु, गुनसिंधु, बंधु दीनको, दयानिधान, जानमनि, बीरबाहु-बोलको।
स्राध्द कियो गीधको, सराहे फल सबरीके सिला-साप-समन, निबाह्यो नेहु कोलको॥
तुलसी-उराउ होत रामको सुभाउ सुनि, को न बलि जाइ, न बिकाइ बिनु मोल को।
ऐसेहु सुसाहेबसों जाको अनुरागु न, सो बड़ोई अभागो, भागु भागो लोभ -लोलको॥
७९ सूरसिरताज, महाराजनि के महाराज जाको नामु लेतहीं सुखेतु होत ऊसरो।
साहेबु कहाँ जहान जानकीसु सो सुजानु, सुमिरें कृपालुके मरालु होत खूसरो॥
केवट, पषान, जातुधान, कपि-भालु तारे, अपनायो तुलसी-सो धींग धमधूसरो।
बोलको अटल, बाँहको पगारु, दीनबंधु, दूबरेको दानी, को दयानिधान दूसरो॥
कीबेको बिसोक लोक लोकपाल हुते सब, कहूँ कोऊ भो न चरवाहो कपि -भालुको।
पबिको पहारु कियो ख्यालही कृपाल राम, बापुरो बिभीषनु घरौंधा हुतो बालको॥
नाम-ओट लेत ही निखोट होत खोटे खल, चोट बिनु मोट पाइ भयो न निहालु को?
तुलसीकी बार बड़ी ढील होति सीलसिंधु! बिगरी सुधारिबेको दूसरो दयालु को॥
८० नामु लिएँ पूतको पुनीत कियो पातकीसु, आरति निवारी 'प्रभु पाहि' कहें पीलकी।
छलनिको छोंडी, सो निगोड़ी छोटी जाति -पाँति कीन्ही लीन आपुमें सुनारी भोंड़े भीलकी॥
तुलसी औ तोरिबो बिसारबो न अंत मोहि, नीकें है प्रतीति रावरे सुभाव-सीलकी।
देऊ, तो दयानिकेत, देत दादि दीननको, मेरी बार मेरें ही अभाग नाथ ढील की॥
आगें परे पाहन कृपाँ किरात, कोलनी, कपीस, निसिचर अपनाए नाएँ माथ जू।
साँची सेवकाई हनुमान की सुजानराय, रिनियाँ कहाए हौ, बिकाने ताके हाथ जू॥
तुलसी-से खोटे खरे होत ओट नाम ही कीं , तेजी माटी मगहू की मृगमद साथ जू।
बात चलें बातको न मानिबो बिलगु, बलि, काकीं सेवाँ रीझिकै नेवाजो रघुनाथ जू?
८१ कौसिककी चलत, पषानकी परस पाय, टूटत धनुष बनि गई है जनककी।
कोल, पसु, सबरी, बिहंग, भालु, रातिचर, रतिनके लालचचिन प्रापति मनककी॥
कोटि-कला-कुसल कृपाल नतपाल! बलि, बातहू केतिक तिन तुलसी तनककी।
राय दसरत्थ के समत्थ राम राजमनि! तेरें हेरें लोपै लिपि बिधिहू गनककी॥
सिला-श्राप पापु गुह-गीधको मिलापु सबरीके पास आपु चलि गए हौ सो सुनी मैं।
सेवक सराहे कपिनायकु बिभीषनु भरतसभा सादर सनेह सुरधुनी मैं॥
आलसी- अभागी-अघी-आरत -अनाथपाल साहेबु समर्थ एकु, नीकें मन गुनी मैं।
दोष-दुख-दारिद-दलैया दीनबंधु राम! 'तुलसी' न दूसरो दयानिधानु दुनी मैं॥
८२ मीतु बालिबंधु, पूतु, दूतु, दसकंधबंधु सचिव, सराधु कियो सबरी-जटाइको।
लंक जरी जोहें जियँ सोचसो बिभीषनुको, कहौ ऐसे साहेबकी सेवाँ न खटाइ को॥
बड़े एक-एकतें अनेक लोक लोकपाल, अपने-अपनेको तौ कहैगो घटाइ को।
साँकरेके सेइबे, सराहिबे, सुमिरिबेको रामु सो न साहेबु न कुमति-कटाइ को॥
भूमिपाल, ब्यालपाल, नाकपाल, लोकपाल कारन कृपाल, मैं सबैके जीकी थाह ली।
कादरको आदरु काहूकें नाहिं देखिअत, सबनि सोहात है सेवा-सुजानि टाहली॥
तुलसी सुभायँ कहै, नाहीं कछु पच्छपातु, कौनें ईस किए कीस भालु खास माहली।
रामही के द्वारे पै बोलाइ सनमानिअत मोसे दीन दूबरे कपूत कूर काहली॥
८३ सेवा अनुरूप फल देत भूप कूप ज्यों, बिहूने गुन पथिक पिआसे जात पथके।
लेखें-जोखै चित'तुलसी' स्वारथ हित, नीकें देखे देवता देवैया घने गथके॥
गीधु मानो गुरु कपि-भालु माने मीत कै, पूनीत गीत साके सब साहेब समत्थके।
और भूप परखि सुलाखि तौलि ताइ लेत, लसमके खसमु तुहीं पै दसरत्थके॥
केवल राम ही से माँगो
रीति महाराजकी, नेवाजिए जो माँगनो, सो दोष-दुख-दारिद दरिद्र कै-कै छोड़िए।
नामु जाको कामतरु देत फल चारि, ताहि 'तुलसी' बिहाइकै बबूर-रेंड़ गोड़िए॥
जाचे को नरेस, देस-देसको कलेसु करै देहैं तौ प्रसन्न ह्वै बड़ी बड़ाई बौड़िए।
कृपा-पाथनाथ लोकनाथ-नाथ सीतानाथ तजि रघुनाथ हाथ और काहि औड़िये॥
८४ जाकें बिलोकत लोकप होत, बिसोक लहैं सुरलोग सुठौरहि।
सो कमला तजि चंचलता, करि कोटि कला रिझवै सुरमौरहि॥
ताको कहाइ, कहै तुलसी, तूँ लजाहि न मागत कूकुर-कौरहि।
जानकी-जीवनको जनु ह्वै जरि जाउ सो जीह जो जाचत औरहि॥
जड़ पंच मिलै जेहिं देह करी, करनी लखु धौं धरनीधरकी।
जनकी कहु, क्यों करिहै न सँभार, जो सार करै सचराचरकी॥
तुलसी! कहु राम समान को आन है, सेवकि जासु रमा घरकी।
जगमें गति जाहि जगत्पतिकी परवाह है ताहि कहा नरकी॥
८५ जग जाचिअ कोउ न, जाचिअ जौं जियँ जाचा जानकीजानहि रे।
जेहि जाचत जाचकता जरि जाइ, जो जारति जोर जहानहि रे॥
गति देखु बिचारि बिभीषनकी, अरु आनु हिए हनुमानहि रे।
तुलसी! भजु दारिद-दोष-दवानल संकट-कोटि कृपानहि रे॥
उद्बोधन
सुनु कान दिएँ, नितु नेमु लिएँ रघुनाथहिके गुनगाथहि रे।
सुखमंदिर सुंदर रुपु सदा उर आनि धरें धनु-भाथहि रे॥
रसना निसि-बासर सादर सों तुलसी! जपु जानकीनाथहि रे।
करु संग सुसील सुसंतन सों, तजि कूर, कुफंथ कुसाथहि रे॥
८६ सुत, दार, अगारु, सखा, परिवारु बिलोकु महा कुसमाजहि रे।
सबकी ममता तजि कै, समता सजि, संतसभाँ न बिराजहि रे॥
नरदेह कहा, करि देखु बिचारु, बिगारु गँवार न काजहि रे।
जनि डोलहि लोलुप कूकरु ज्यों, तुलसी भजु कोसलराजहि रे॥
बिषया परनारि निसा-तरुनाई सो पाइ पर यो अनुरागहि रे।
जमके पहरु दुख, रोग बियोग बिलोकत हू न बिरागहि रे॥
ममता बस तैं सब भूलि गयो, भयो भोरु महा भय भागहि रे।
जरठाइ दिसाँ , रबिकालु अग्यो, अजहूँ जड़ जीव! न जागहि रे॥
८७ जनम्यो जेहिं जोनि, अनेक क्रिया सुख लागि करीं, न परैं बरनी।
जननी-जनकादि हितु भये भूरि बहोरि भई उरकी जरनी॥
तुलसी! अब रामको दासु कहाइ, हिएँ धरु चातककी धरनी।
करि हंसको बेषु बड़ो सबसों, तजि दे बक-बायसकी करनी॥
भलि भारतभूमि, भलें कुल जन्मु, समाजु सरीरु भलो लहि कै।
करषा तजि कै परुषा बरषा हिम, मारुत, घाम सदा सहि कै॥
जो भजै भगवानु सयान सोई, 'तुलसी' हठ चातकु ज्यों गहि कै॥
नतु और सबै बिषबीज बए, हर हाटक कामदुहा नहि कै॥
जो सुकृती सुचिमंत सुसंत सुजान सुसीलसिरोमनि स्वै।
सुर-तीरथ तासु मनावत आवत , पावन होत हैं ता तनु छ्वै॥
गुनगेह सनेहको भाजनु सो, सब ही सों उठाइ कहौं भुज द्वै।
सतिभायँ सदा छल छाड़ि सबै'तुलसी' जो रहै रघुबीरको ह्वै॥
विनय
सो जननी, सो पिता, सोइ भाइ, सोभामिनि, सो सुतु, सो हित मेरो।
सोइ सगो, सो सखा, सोइ सेवकु, सो गुरु, सो सुरु, साहेबु चेरो॥
सो 'तुलसी' प्रिय प्रान समान, कहाँ लौं बनाइ कहौं बहुतेरो।
जो तजि देहको, गेहको नेहु, सनेहसो रामको होइ सबेरो॥
रामु हैं मातु, पिता, गुरु, बंधु, औ संगी, सखा, सुतु, स्वामि, सनेही।
रामकी सौंह, भरोसो है रामको, राम रँग्यो, रुचि राच्यो न केही॥
जीअत रामु, मुएँ पुनि रामु, सदा रघुनाथहि की गति जेही।
सोई जिए जगमें, 'तुलसी' नतु डोलत और मुए धरि देही॥
राम प्रेम ही सार है
सियराम-सरुपु अगाध अनूप बिलोचन-मीनको जलु है।
श्रुति रामकथा, मुख रामको नामु, हिएँ पुनि रामहिको थलु है॥
मति रामहि सों, गति रामहि सों, रति रामसों, रामहि को बलु है।
सबकी न कहै, तुलसीके मतें इतनो जग जीवनको फलु है॥
दसरत्थके दानि सिरोमनि राम! पुरान प्रसिध्द सुन्यो जसु मैं।
नर नाग सुरासर जाचक जो, तुमसों मन भावत पायो न कैं॥
तुलसी कर जोरि करै बिनती, जो कृपा करि दीनदयाल सुनैं।
जेहि देह सनेहु न रावरे सों, असि देह धराइ कै जायँ जियैं॥
झूठो है, झूठो है, झूठो सदा जगु, संत कहंत जे अंतु लहा है॥
ताको सहै सठ! संकट कोटिक, काढ़त दंत, करंत हहा है॥
जानपनीको गुमान बढ़ो, तुलसीके बिचार गँवार महा है।
जानकीजीवनु जान न जान्यो तौ जान कहावत जान्यो कहा है॥
८८ तिन्ह तें खर, सूकर, स्वान भले, जड़ता बस ते न कहैं कछु वै।
'तुलसी' जेहि रामसों नेहु नहीं सो सही पसु पूँछ, बिषान न द्वै।
जननी कत भार मुई दस मास, भई किन बाँझ, गई किन च्वै।
जरि जाउ सो जीवनु, जानकीनाथ! जियै जगमें तुम्हरौ बिनु ह्वै॥
गज-बाजि-घटा, भले भूरि भटा, बनिता, सुत भौंह तकैं सब वै।
धरनी, धनु धाम सरीरु भलो, सुरलोकहु चाहि इहै सुख स्वै।
सब फोटक साटक है तुलसी, अपनो न कछू सपनो दिन द्वै।
जरि जाउ सो जीवन जानकीनाथ! जियै जगमें तुम्हरो बिनु ह्वै॥
सुरराज सो राज-समाजु, समृध्दि बिरंचि, धनाधिप-सो धनु भौ।
पवमानु-सो पावकु-सो, जमु, सोमु-सो, पूषनु-सो भवभूषनु भो॥
करि जोग, समीरन साधि, समाधि कै धीर बड़ो, बसहू मनु भो।
सब जाय, सुभायँ कहै तुलसी, जो नै जानकीजीवनको जनु भो॥
८९ कामु-से रूप, प्रताप दिनेसु-से, सोमु-से सील, गनेसु-से माने।
हरिचंदु-से साँचे, बड़े बिधि-से, मघवा-से महीप बिषै-सुख-साने॥
सुक-से मुनि, सारद-से बकता, चिरजीवन लोमस तें अधिकाने।
ऐसे भए तौ कहा 'तुलसी, ' जो पै राजिवलोचन रामु न जाने॥
झूमत द्वार अनेक मतंग जँजीर-जरे, मद अंबु चुचाते।
तीखे तुरंग मनोगति-चंचल, पौनके गौनहु तें बढ़ि जाते॥
भीतर चंद्रमुखी अवलोकति, बाहर भूप करे न समाते।
ऐसे भए तौ कहा, तुलसी, जो पै जानकीनाथके रंग न राते॥
राज सुरेस पचासकको बिधिके करको जो पटो लिखि पाएँ।
पूत सुपूत, पुनीत प्रिया, निज सुंदरताँ रतिको मदु नाएँ॥
संपति-सिध्दि सबै 'तुलसी' मनकी मनसा चतवैं चितु लाएँ॥
जानकीजीवनु जाने बिना जग ऐसेउ जीव न जीव कहाएँ॥
९० कृसगात ललात जो रोटिन को, घरवात घरें खुरपा-खरिया।
तिन्ह सोनेके मेरु-से ढेर लहे, मनु तौ न भरो, घरु पै भरिया॥
'तुलसी' दुखु दूनो दसा दुहुँ देखि, कियो मुखु दारिद को करिया।
तजि आस भो दासु रघुप्पतिको, दसरथ्तको दानि दया-दरिया॥
को भरिहे हरिके रितएँ, रितवै पुनि को, हरि जौं भरिहै।
उथपै तेहि को, जेहि रामु थपै, थपिहै तेहि को, हरि जौं टरिहै॥
तुलसी यहु जानि हिएँ अपनें सपनें नहि कालहु तें डरिहै।
कुमयाँ कछु हानि न औरनकीं, जो पै जानकी-नाथु मया करिहै॥
ब्याल कराल महाबिष, पावक मत्तगयंदहु के रद तोरे।
साँसति संकि चली, डरपे हुते किंकर, ते करनी मुख मोरे॥
नेकु बिषादु नहीं प्रहलादहि कारन केहरिके बल हो रे।
कौनकी त्रास करै तुलसी जो पै राखिहै राम, तौ मारिहै को रे।