अर्थ सहित कबीर साहेब के दोहे

अर्थ सहित कबीर साहेब के दोहे

कबीर के दोहे हिंदी में दोहावली Kabir Ke Dohe Hindi Me Dohawali

पानी केरा बुदबुदा, अस मानुष की जात।
देखत ही छिपि जाएगा, ज्यों तारा परभात।।
संगति भई तो क्या भया, हिरदा भया कठोर।
नौनेजा पानी चढ़ै, तऊ न भीजै कोर।
दान किए धन ना घटै, नदी ना घटै नीर।
अपनी आंखों देखिए, यों कथि गए ‘कबीर’।।
ऊंचै पानी ना टिकै, नीचै ही ठहराय।
नीचा होय सो भरि पिवै, ऊंचा प्यासा जाए।।
कौन बड़ाई जलधि मिलि, गंग नाम भो धीम।
केहि की प्रभुता नहिं घटी, पर घर गए ‘रहिम’।।
जाल परे जल जात बहि, तजि मीनन को मोह।
‘रहिमन’ मछरी नीर को, तऊ न छांड़त छोह।।
 
पानी केरा बुदबुदा, अस मानुष की जात। देखत ही छिपि जाएगा, ज्यों तारा परभात।
अर्थ: मनुष्य की जाति पानी की बुदबुदी के समान है, जो देखते ही समाप्त हो जाती है, जैसे सुबह के समय तारा गायब हो जाता है।

संगति भई तो क्या भया, हिरदा भया कठोर। नौनेजा पानी चढ़ै, तऊ न भीजै कोर।
अर्थ: यदि संगति से हृदय कठोर हो जाए, तो जैसे नाव का तना पानी में डूबने पर भी नहीं भीगता, वैसे ही वह हृदय भी नहीं भीगता।

दान किए धन ना घटै, नदी ना घटै नीर। अपनी आंखों देखिए, यों कथि गए 'कबीर'।
अर्थ: दान देने से धन कम नहीं होता, जैसे नदी का पानी देने से कम नहीं होता। अपनी आँखों से देखिए, कबीर जी ने यही कहा है।

ऊंचै पानी ना टिकै, नीचै ही ठहराय। नीचा होय सो भरि पिवै, ऊंचा प्यासा जाए।
अर्थ: ऊँचा पानी टिकता नहीं, वह नीचे ही ठहरता है। जो नीचा होता है, वह भरकर पीता है, जबकि ऊँचा प्यासा रहता है।

कौन बड़ाई जलधि मिलि, गंग नाम भो धीम। केहि की प्रभुता नहिं घटी, पर घर गए 'रहिम'।
अर्थ: गंगा के नाम का स्मरण करने से जलधि (समुद्र) भी छोटा लगता है। किसी की प्रभुता कम नहीं होती, परंतु घर जाने पर 'रहिम' जी ने यही कहा है।

जाल परे जल जात बहि, तजि मीनन को मोह। 'रहिमन' मछरी नीर को, तऊ न छांड़त छोह।
अर्थ: जाल में फंसी मछली जल से बाहर जाती है, परंतु वह जल के मोह को नहीं छोड़ती। 'रहिमन' जी कहते हैं, मछली जल को छोड़ती नहीं।
 
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