कबीर के दोहे हिंदी अर्थ सहित Kabir Ke Dohe Hindi Arth Sahit

कबीर के दोहे हिंदी अर्थ सहित Kabir Ke Dohe Hindi Arth Sahit-कबीर के दोहे हिंदी मीनिंग

कबीर के विचार अनमोल हैं और जीवन जीने की कला सिखाते हैं और इसके साथ सार्थक जीवन की विचारधारा को प्रदर्शित करते हैं। चरित्र निर्माण के सबंध में कबीर साहेब के विचारों का कोई सानी नहीं है। कबीर के विचार वो हैं जो उन्होंने स्वंय महसूस किये और जिए। ये विचार मात्र किताबी ज्ञान नहीं है। जो कबीर साहेब ने भोगा वो लिखा। गूढ़ विचारों को बड़े ही सरल भाषा में व्यक्त करने की साहेब की विलक्षण प्रतिभा थी। उनके दोहे गागर में सागर हैं। कबीर साहेब के विचारों को जीवन में उतारने के बाद किसी आध्यात्मिक गुरु और पर्सनलिटी डेवलपमेंट की आवश्यकता नहीं है।

कबीर के दोहे हिंदी अर्थ सहित Kabir Ke Dohe Hindi Arth Sahit

जब गुण को गाहक मिले, तब गुण लाख बिकाई।
जब गुण को गाहक नहीं, तब कौड़ी बदले जाई।


गुणों का महत्त्व तभी है तब उसे पहचानने वाले व्यक्ति के समक्ष उन्हें रखा जाय। गुणों के पारखी के अभाव में उनका महत्त्व कौड़ी में बदल जाता है। इसलिए संतजन की संगती को कबीर साहेब ने आवश्यक माना है। वर्तमान सन्दर्भ में हम पाते हैं की पॉप एन्ड शो का युग है। लेकिन फिर भी जहां कुछ नया हो रहा है, वहां गुणों की पहचान होती है। वर्तमान में जहाँ चाटुकारिता है वहां कुछ भी मंगल और श्रेष्ठ पैदा नहीं हो रहा है। धन्य हैं वे राष्ट्र जहाँ गुणों को पहचानकर उनकी कदर होती है। यह द्योतक है सामाजिक उत्थान का।

संत ना छाडै संतई, जो कोटिक मिले असंत
चन्दन भुवंगा बैठिया, तऊ सीतलता न तजंत।


संतजन दुर्जनों के मध्य भी अपने स्वभाव का त्याग नहीं करते हैं। दुर्जन के अवगुण संतजन को मार्ग से विमुख नहीं कर पाते हैं। जैसे चन्दन के वृक्ष पर सांप लिपटे रहते हैं फिर भी वो अपनी शीतलता और खुशबू का त्याग नहीं करता है वैसे ही संतजनों का स्वभाव स्थिर बना रहता है। भाव है की हमें हमारे स्वभाव में स्थिरता लानी चाहिए जो की काल और परिस्थितियों में सम बनी रहे। हमें प्रयत्न करना चाहिए की बुराई का हम पर कोई प्रभाव नहीं पड़े और हम हमारे गुणों को बनाये रखे।

मन चलता तन भी चले, ताते मन को घेर
तन मन दोई बसि करै, राई होये सुमेर।


अस्थिर मनः स्थिति से ही समस्त संकट और दुःख दर्द उत्पन्न होते हैं। मन के अनुसार ही शरीर क्रियाशील होता है। मन अस्थिर होता है तो क्रिया स्वरुप मन भी अस्थिर होता है। मन में स्थिरता आने पर राई भी सुमेरु के समान विशाल हो सकता है। भाव है की जीवन में भले ही कोई भी क्षेत्र हो, स्थिरता आवशयक है। चंचल मन किसी कार्य को परिणीति तक पहुंचने नहीं देता। मन माया की और आकर्षित होता है और व्यक्ति के मार्ग को विचलित कर देता है। मन को काबू में करने के उपरांत साधना सफल हो पाती है। वर्तमान सन्दर्भ में इसकी महत्ता देखें तो व्यक्ति अपने कार्य क्षेत्र को पुरे मनोयोग से नहीं करता है। मन विचलित रहता है और उसे भिन्न भिन्न क्षेत्रों में लेकर जाता है जिससे वो किसी भी क्षेत्र में प्रखर को हासिल नहीं कर पाता है। मन के स्थिर होने पर व्यक्ति एक कार्य को पूर्ण मनोयोग से करता है और उसमे सफलता प्राप्त करता है। मन की साधना भी कोई आसान कार्य नहीं है। इसे जतन पूर्वक काबू में करना पड़ता है।

तन को जोगी सब करें, मन को बिरला कोई।
सब सिद्धि सहजे पाइए, जे मन जोगी होइ।


तन और मन जो जोगी करने में भेद हैं। तन तो जोगी करना आसान है। गेरुआ धारण कर लेना, कंठी माला पहन लेने से जोगी तन ही होता है। तन को जोगी करने से कोई लाभ नहीं होता है। मन को जोगी करना आसान नहीं होता है लेकिन मन को जोगी करने से ही सिद्धि की प्राप्ति होती है। विषय वासनाएं, लोभ, लालच, और तृष्णा का त्याग करने से ही मन जोगी होता है। मन की भी साधना होती है। मन को काबू करना आसान नहीं है। इसके लिए संतजन का सानिध्य आवश्यक है। संतजन सद्मार्ग बताते हैं और उनकी शिक्षाओं से मन को माया से दूर रखा जा सकता है।

कबीर के दोहे हिंदी अर्थ सहित Kabir Ke Dohe Hindi Arth Sahit-कबीर के दोहे हिंदी मीनिंग 

कबीर सो धन संचे, जो आगे को होय।
सीस चढ़ाए पोटली, ले जात न देख्यो कोय।


माया के सबंध में कबीर के विचार अत्यंत ही स्पष्ट और वृहद हैं। कबीर साहेब ने बताया है की माया महा ठगिनी है जो जीव को सद्मार्ग से विमुख कर देती है। माया जीवन के लिए आवश्यक भी है लेकिन माया के फाँस में फंसकर माया को एकत्रित करने में लग जाते हैं। माया अनंत है वो कभी समाप्त नहीं होती है। मनुष्य मर जाते हैं लेकिन माया स्थायी है वो जीव को अपने फाँस में फसाती आयी है। साहेब बताते हैं की किसी ने माया को मृत्यु उपरांत अपने साथ ले जाते नहीं देखा है। भाव है की माया के संग्रह का कोई औचित्य नहीं है। जिसने माया को पहचानकर इसका त्याग कर दिया है ये उसके पीछे भागती है और जो इसका संग्रह करने को आतुर हो जाते हैं वो उन्हें अधिक लालच देती है। जीवन का उद्देश्य माया नहीं बल्कि राम का सुमिरन और उसकी बंदगी में है।

तन का बैरी कोई नहीं जो मन सीतल होये
तु आपा को डारी दे, दया करै सब कोई।


अहंकार के त्यागने के उपरांत मन शीतल हो जाता है। अभिमान के समाप्त होने पर कोई बैरी नहीं रहता है। स्वंय के श्रेष्ठ होने का अभिमान, धनि, ज्ञानी होने का अभिमान, रावण को शक्तिशाली होने का अभिमान, अभिमान कई भाँती के हो सकते हैं। अभिमान उत्पन्न कब होते हैं जब व्यक्ति का मन मलिन होता है। मन को शीतल करने के उपरांत अभिमान समाप्त हो जाता है। मन शीतल होता है मालिक के नाम सुमिरन से। मुझ से बड़ा कौन, ईश्वर। जब ये भाव उत्पन्न हो जाता है तो मन स्थिर हो जाता है। कबीर साहेब की वाणी है की इस तन का बैरी कोई नहीं जब मन से अहंकार का भाव समाप्त हो जाता है और वो शीतल हो जाय।

जब मैं था तब हरी नहीं, अब हरी है मैं नाही ।
सब अँधियारा मिट गया, दीपक देखा माही ।।


कबीर के दोहे हिंदी अर्थ सहित Kabir Ke Dohe Hindi Arth Sahit-कबीर के दोहे हिंदी मीनिंग 

अहम् जब तक है ईश्वर नहीं है। अहम् की समाप्ति के उपरांत ही ईश्वर का भान होता है और अँधियारा मिट जाता है। राम का नाम ही दीपक है। साहेब अन्य जगह बताते हैं की " प्रेम गली अति सांकरी जामें दो न समाहीं। भाव है की प्रेम में द्वैत भाव नहीं हो सकता है। ईश्वर का भान होने पर स्वंय का अहम् स्वतः ही समाप्त हो जाता है।

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