कबीर के व्यक्तित्व निर्माण सबंधी दोहे अर्थ
कबीर के व्यक्तित्व निर्माण सबंधी दोहे हिंदी अर्थ
संत कबीर ने मानव जीवन का सूक्ष्मता से अध्ययन किया और गुण अवगुण की वृहद व्याख्या की है। तात्कालिक सामाजिक दशा से प्रभावित उनके विचार आज भी प्रासंगिक है। कबीर ने किसी शास्त्र की व्याख्या नहीं की वरन उन्होंने जो सहा वो लिखा। ये कबीर का अदम्य साहस है की उन्होंने सम्रज्य्वादी शक्तियों, धार्मिक शक्तियो के खिलाफ खुलकर बोला। इसे सामान्य साहस नहीं समझा जाना चाहिए, ये एक दिव्य साहस है। कबीर ने मानव जीवन में व्याप्त दुःख, अभाव अतृप्ति का अध्ययन करके इसके कारणों के बारे में बताया। जीवन का फलसफा हैं कबीर साहेब के विचार, आवश्यकता है इन्हे जीवन में उतारने की।
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय,
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।
व्यक्ति दूसरों में अवगुण, कमियां और त्रुटि ढूंढता है और परेशान रहता है। स्वंय का विश्लेषण नहीं करता है। यही दुःख का कारण है। वर्तमान सन्दर्भ में यदि हम देखें तो तमाम तरह के मानसिक अवसाद की जड़ है की हम स्वंय का विश्लेषण नहीं करते हैं। लोगों ने मुझे ऐसा क्यों कहा, मेरे साथ ऐसा क्यों किया आदि विचार मन में उठते हैं। यदि हम स्वंय का विचार करें तो हम क्या कर रहे हैं, हमारा दूसरों के प्रति व्यवहार क्या है तो समस्या समाप्त हो जाती है। स्वंय के अवगुणों का अंत करने पर चित्त में स्थिरता आती है, ईश्वर के प्रति समर्पण भाव से अहम् का नाश होता है और चिर शांति प्राप्त होती है।
ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोय।
औरन को शीतल करै, आपौ शीतल होय।
दूसरों से मीठी वाणी की आस करने से पहले स्वंय का विश्लेषण करें की हम कितना मृदु भाषी हैं। जो हम देते हैं वही लौटकर प्राप्त होता है। मृदु भाषा से दूसरों को शीतलता का अनुभव होता है और स्वंय के अहंकार का अंत होता है। हम देखते हैं की कोर्ट कचहरियों में रोज मामले आते हैं, वो क्या हैं वे सब छोटे छोटे विषय हैं जो आगे चलकर बड़े बन जाते हैं। अहंकार के वश हम दूसरों के महत्त्व को कम करके आंकते हैं, स्वंय को सर्वोच्च समझने लग जाते हैं और इसी के परिणाम से रिश्ते नाते बिगड़ते चले जाते है। चाहे घर परिवार में हो या काम धंदे में अहम् के वश जब व्यक्ति कटु शब्द बोलता है तो वो वास्तव स्वंय के लिए उन्ही शब्दों को न्योता देता है। सारांश है की मीठा बोलो और शांत रहो।
तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय,
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।
अहंकार को त्याग करके मानवता को धारण करें। सभी को ईश्वर की संतान समझे। अहंकार वश किसी के महत्त्व को कम करके आंकने से स्वंय के लिए दुःख और पीड़ा को आमंत्रित करते हैं। प्रकृति में सबका अपने स्थान पर महत्त्व है जैसे तिनका जो पावों के तले होता है उड़कर यदि आँख में गिर जाए तो गंभीर पीड़ा देता है। सभी से प्रेम करें, उन्हें अपना समझे तो किसी के प्रति इतना द्वेष आएगा ही नहीं की हम उसका अहित करने की सोचे। वस्तुतः जब हम किसी के अहित के बारे में सोचते हैं तो स्वंय का ही अहित करने में लगे रहते हैं। सबको समान समझे और उनके महत्त्व को कभी कम करके उनसे दुराचार नहीं करें। यही कुंजी है सफल और समृद्ध जीवन की।
अति का भला ना बोलना,अति की भली ना चूप
अति का भला ना बरसना, अति की भली ना धूप।
अति हर जगह वर्जित है। ज्यादा बोलना, ज्यादा चुप रहना उसी तरह से घातक है जैसे ज्यादा बरसात और ज्यादा धुप, सूखा। जीवन बैलेंस्ड होना चाहिए। इसमें ना तो किसी वस्तु की अधिकता होनी चाहिए और ना ही किसी की कमी होनी चाहिए। प्रेम की अधिकता भी सही नहीं है और प्रेम का अभाव भी सही नहीं है, ये सब नपी तुली होनी चाहिए। सम्यक जीवन के लिए आत्मानुशासन आवश्यक है। इसके लिए स्वंय के लिए वक़्त निकालें और मनन करें।
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय,
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय।
धैर्य व्यक्तित्व का गहना है। सभी कार्यों का एक निमित्त समय होता है इसलिए व्यक्ति को धैर्यपूर्वक निर्णय लेने चाहिए। अधीरता में लिए गए निर्णय कभी लाभदायक नहीं होते हैं। कबीर साहेब की वाणी है की माली पेड़ पौधों को सींचता है। ऋतू आने पर ही फल लगते हैं। धैर्य की प्राप्ति कैसे हो ? इस पर कबीर साहेब ने बताया है की जब चित स्थिर होगा तो धैर्य स्वतः ही उत्पन्न होने लगता है। चित्त स्थिर होता है माया से विमुख होने पर। भाव है की धैर्य को अपने स्वभाव में लाना चाहिए। अधीरता और जल्दबाजी में लिए गए निर्णय कभी फलदायी नहीं हो सकते हैं।
जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ,
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।
जो ढूंढता है उसे प्राप्त होता है। जैसे पानी के निचे छिपी मूलयवान वस्तुओं को प्राप्त करने के लिए डूबने का डर त्याग कर गहरे पानी में गोता लगाने वाला कुछ प्राप्त कर पाता है और जो डर का सामना नहीं कर पाता है वो किनारे पर बैठा ही रह जाता है। इस दोहे का एक भाव और है की चाहे वो सांसारिक कार्य या फिर आध्यात्मिक सन्दर्भ हों, हर क्षेत्र में गहन प्रयत्न की आवश्यकता होती है। वर्तमान सन्दर्भ में हम देखते है की व्यक्ति मेहनत नहीं करना चाहता है और परिणाम को लेकर चिंतित रहता है। प्रयत्न जड़ी गहन हो तो मनवांछित परिणाम प्राप्त किये जा सकते हैं। सतही प्रयत्न करके परिणाम के बारे में चिंतित होने से कोई लाभ नहीं होने वाला। भक्ति के विषय में कबीर ने कहा है की "ये घर प्रेम का खाला का घर नाही, सीस उतारे हाथि धरि, सो पैसे घर माहिं। भक्ति मार्ग के लिए भी त्याग, तप और गहन प्रयत्न करने होंगे। ये कोई खाला का घर नहीं है जहाँ हर कोई प्रवेश पा सके।
निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय,
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।
कबीर साहेब बताते हैं की व्यक्ति को स्वंय के दोष को पहचानने के लिए निंदक को अपने पास रखना चाहिए। घर के समक्ष वृक्ष की छांया होनी चाहिए। निंदक हमारे दोष को पहचानकर बिना पानी और साबुन के स्वभाव को निर्मल कर देता है। हम स्वंय की प्रशंशा सुनने के आदि हो चुके हैं। प्रशंशा करने वाला व्यक्ति हमें पसंद आता है लेकिन कोई त्रुटि निकाले वो पसंद नहीं आता। अहम् के वश हम स्वंय का यशोगान सुनना पसंद करते हैं। निंदक के अभाव में हमें हमारे दोषों का पता ही नहीं चल पाता है और अज्ञानवश स्वंय के दोष का विश्लेषण नहीं कर पाता है और दूसरों के अवगुणों को इंगित कर टीका टिप्पणी करता है। कबीर साहेब की वाणी है की स्वंय में सुधार लाओ तो जग सुधर जायेगा।
मांगन मरन समान है तोहि दयी मैं सीख
कहे कबीर समुझाइ के मति मांगे कोइ भीख।
मेहनत करके व्यक्ति को आजीविका कमानी चाहिए। मांगने मरण के समान है। कबीर साहेब कहते है की कोई भीख ना मांगे और स्वंय के प्रयत्न और मेहनत पर यकीन रखना चाहिए। अन्य स्थान पर विचार हैं की मांगना मरण के समान है। मांगने पर व्यक्ति का स्वाभिमान समाप्त हो जाता है, इसलिए किसी से कुछ मांगने के स्थान पर स्वंय के ऊपर यकीन होना चाहिए।
तरुबर पात सो युॅं कहे सुनो पात एक बात
या घर यही रीति है एक आबत एक जात।
कबीर साहेब की जीवन की अनिश्चता के बारे में वाणी है की मानव जीवन अनिच्छित है। यह संसार हमारा घर नहीं है। यहाँ एक आता है और एक जाता है यही संसार का नियम है। जैसे वृक्ष के पत्ते आते हैं और जीवन पूर्ण होने पर झड़ जाते हैं उसी तरह से व्यक्ति आते जाते रहते हैं यही इस जीवन का सार है। जीवन की इस अस्थिरता को आधार मान कर कबीर साहेब बताते हैं की मालिक की भक्ति कर सदाचार से जीवन व्यतीत करना ही उद्देश्य है।
कबीर लहरि समंद की, मोती बिखरे आई।
बगुला भेद न जानई, हंसा चुनी-चुनी खाई।
इस संसार में अमूल्य ज्ञान बिखरा पड़ा है। इसका भेद नहीं होने पर जैसे बगुला मोती को पहचान नहीं सकता है और उसका उपभोग नहीं कर पाता है जबकि हंस उसके विषय में बोध होने पर मोतियों को चुन चुन कर खाता है। भाव है की ज्ञान का अभाव। ज्ञान की प्राप्ति गुरु से ही संभव है। कबीर साहेब की वाणी है की गुरु के सानिध्य में ज्ञान प्राप्ति के उपरांत बोध होता है। मोती क्या है ? मोती है ईश्वर का बोध और भक्ति। जीवन स्थायी नहीं हैं, ये संसार जीव का घर नहीं है, जीवन माया के लिए नहीं बल्कि ईश्वर सुमिरन के लिए प्राप्त हुआ है।
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