कबीर के दोहे हिंदी अर्थ सहित Kabir Ke Dohe Hindi Arth Sahit

कबीर के दोहे हिंदी में Kabir Ke Dohe Hindi Meaning

कबीर के विचार कालजयी हैं, भक्तिकाल में भी सार्थक थे और आज भी प्रासंगिक हैं। कबीर के इन विचारों को जीवन में उतारकर जीवन में मनवांछित सफलता प्राप्त की जा सकती है। 
 
कबीर के दोहे हिंदी अर्थ सहित Kabir Ke Dohe Hindi Arth Sahit
 
जिन घर साधू न पुजिये, घर की सेवा नाही ।
ते घर मरघट जानिए, भुत बसे तिन माही ।

कबीर के दोहे का हिंदी अर्थ/भावार्थ Kabir Ke Dohe Hindi Meaning

जिस घर में साधु और सत्य की पूजा नहीं होती वो मरघट के समान है और उस घर में भूत प्रेत बसते हैं। भाव है की समाज में सत्य और संतजन का स्थान होना चाहिए। उनकी शिक्षाओं को सम्मान मिलना चाहिए। वर्तमान सन्दर्भ में जो सत्य की राह पर चलने वाले संतजन हैं वो समाज से दुत्कार दिए जाते हैं और जो पाखंडी है, छद्माचरण करके हजारों अनुयायी बना लेते हैं उन्हें समाज सम्मान की दृष्टि से देखता है। सुबह टीवी पर प्रवचन देते दिखाई पड़ते हैं। जरूरत है सच्चे संतजन को परखा जाय और उनका सम्मान किया जाय। ढोंगी साधु सदा से होते आये हैं, रावण भी ढोंगी साधु बनकर ही माता सीता का हरण कर सका था। परिवार में आये साधु का यथा सामर्थ्य सम्मान किया जाना चाहिए और उनकी शिक्षाओं को जीवन में उतरना चाहिए। कबीर साहेब की वाणी में संतजन की पहचान और उनके बारे में बताया गया है। एक विषय है की कबीर ने सत्य की राह चुनी और उसी पर चलने की सलाह दी, लेकिन कुछ लोग उनके ही बताये मार्ग से विमुख हो गए हैं। कुछ लोग कबीर साहेब की ही मूर्ति बना कर उनकी पूजा कर रहे हैं जो की कबीर साहेब के मूल सिधान्तों के विरुद्ध है।

दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय ।
जो सुख में सुमिरन करे, तो दुःख काहे को होय ।


सुख और दुःख मनः स्थिति हैं। सुख और दुःख का कोई अस्तित्व नहीं है, जैसा हम हमारे मन को बना लेते हैं वैसा ही हमें अनुभव होने लगता है। बात मनोवैज्ञानिक है। कबीर साहेब की वाणी है की दुःख होने पर इश्वर का सुमिरन सभी करते हैं लेकिन सुख होने पर मालिक का सुमिरन नहीं करते हैं। यदि सुख की अवस्था में मालिक को याद किया जाय तो दुःख होगा ही नहीं। सुख की अवस्था में हमें सही और गलत का आभास नहीं होता है और हम सत्य के मार्ग से विमुख हो जाते हैं। सत्य से विमुख होना ही समस्त दुखों का कारन बन जाता है। सुख की स्थिति में सत्य के मार्ग पर चले और सदाचरण करे तो दुःख किसी बात का नहीं। जो भी स्थिति हो मालिक को नहीं भूलना चाहिए।

झिरमिर- झिरमिर बरसिया, पाहन ऊपर मेंह।
माटी गलि सैजल भई, पांहन बोही तेह॥


बरसात होने पर मिटटी भीग कर सजल हो गयी है लेकिन लेकिन पत्थर वैसा ही बना रहता रहता है। पत्थर पर बरसात के पानी का कोई असर नहीं पड़ता है, वो सख्त ही बना रहता है।
भाव है की संतजन मिटटी की तरह से होते हैं जिनपर गुरु के उपदेशों का प्रभाव पड़ता है। लेकिन असंतजन की प्रवृति पत्थर के समान होती ही जिस पर गुरु के सद्विचारों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।सवभाव की सरलता संतजन की विशेषता होती है। जैसे मिट्टी पानी को अपने अन्दर ग्रहण करके नम हो जाती है उसी भांति हमें ज्ञान को स्वंय में ग्रहण कर लेना चाहिए। दूसरा भाव है की पत्थर की भांति व्यक्ति अहंकारी होता है और ज्ञान की प्राप्ति नहीं कर सकता है। ज्ञान प्राप्ति के लिए मिट्टी की भांति ग्राह्य शक्ति होनी चाहिए। ग्राह्य शक्ति के लिए अहंकार त्याग आवश्यक है। अन्य स्थान पर कबीर साहेब की वाणी है की ज्ञान प्राप्ति के लिए विनय आवश्यक है।

जीना थोड़ा ही भला, हरि का सुमरन होई
लाख बरस का जीवना, लिखै धरै ना कोई।


जीवन लम्बा नहीं उपयोगी होना चाहिए। उस लम्बे जीवन का क्या लाभ जो दूसरों और स्वंय के लिए लाभदायक ना हो। कबीर साहेब कहते हैं की लाख बरस के जीवन का क्या लाभ जो उपयोगी न हो और उसका हिसाब किताब कौन रखे। कबीर साहेब की वाणी का अध्ययन करें तो ज्ञात होता है की जीवन परमार्थी होना चाहिए। जन कल्याण के साथ साथ भक्ति भाव आवश्यक है। दूसरों की सहायता करना, वंचित की मदद करना जीवन का उद्देश्य होना चाहिए।

चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोये ।
दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोए ।


कबीर ने माया की विशेष रूप से व्याख्या की है। माया और जीवन की क्षण भंगुरता के मध्य व्यक्ति दो पाटों के बीच पिसता रहता है। माया के पाश में फंसकर व्यक्ति जीवन के उद्देश्य को भूल जाता है लेकिन मृत्यु निश्चित है जो उसे पुकारती रहती है। माया भ्रम पैदा करती है और व्यक्ति को सद्मार्ग से विमुख कर देती है। माया से वशीभूत व्यक्ति हर वक़्त माया के भरम जाल में रहता है। माया उसे अनैतिक रास्ते पर ले जाती है। माया नश्वर है वह सदा से जीव को लुभाती है लेकिन इंसान आते हैं जाते हैं। माया दीपक की तरह से है जो पतंगों को अपनी और आकर्षित करती है। इन पाटों से बच कौन सकता है ? जो इश्वर के चरणों में लिपट जाए। संतजन के प्रभाव से माया का भ्रम जाल कट जाता है और उसे प्रकाश दिखाई देने लगता है। इश्वर भक्ति के माध्यम से वह आवागमन के फेर से मुक्त हो जाता है। इश्वर की शरण में जाने से काम क्रोध, मोह माया का भ्रम दूर होने लगता है। व्यक्ति काया में रहते हुए भी काया से मुक्त हो जाता है। व्यक्ति समस्त बन्धनों से मुक्त हो जाता है। इस अवस्था को निर्वाण , परम पद और अभय पद के नाम से जाना जाता है। इश्वर में आस्था ही समस्त दुखों से मुक्त करवा सकती है। 

रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय ।
हीरा जन्म अमोल सा, कोड़ी बदले जाय ॥


बड़े ही जतन से इश्वर ने मानुष की काया में जन्म दिया है जिसे माया के भ्रम के कारन मानुष कौड़ियों के भाव से समाप्त कर देता है। हीरे के तुली मानुष जीवन को कौड़ी में बदल कर रख देता है। जीवन की महत्ता और उद्देश्य को माया प्रभावित करती है। माया के वशीभूत व्यक्ति इस संसार को ही स्थायी घर समझने लग जाता है। स्थायी तो इश्वर का नाम है। कबीर साहेब की वाणी है की जीव बाल्यकाल सो कर बीता देता है, जवानी दंभ में और चालीस तक घर गृहस्थी और माया का भ्रम में उलझ जाता है। बुढ़ापे तक आते आते शारीर क्षीण होने लगता है। शरीर साथ नहीं देता है, बात कफ्फ और रोग घेर लेते हैं। अब वो मालिक को पुकार लगाता है लेकिन उसकी पुकार सुने कौन। भाव है की बहुत प्रयत्नों के बाद मानव जीवन मिला है जो की अमूल्य है, मालिक की भक्ति करने के लिए मिला है। इसे माया के भरम में फँस कर व्यर्थ गवाना नहीं चाहिए।

माली आवत देख के, कलियन कहे पुकार।
फूले फूले चुन लिए, कलि हमारी बार ।


जीवन स्थायी नहीं है, जो आया है उसे जाना ही होगा यही संसार का चक्र है, नियम है। उदाहरण है की माली को आते देख कलि पुकार करती हैं की माली फूलों को चुनकर ले जा रहा है। आज नहीं तो कल हमारी बारी है। जिसकी उत्पत्ति हुयी है उसका अंत निश्चित है। इस आवागमन से मुक्त होने के लिए साहेब की वाणी है की प्रभु के चरणों में लिपट कर उनका सुमिरन किया जाय। वो सबका मालिक है। समस्त ब्रह्माण्ड और जीव जंतु उसके द्वारा ही बनाए हुए हैं। वो सबका स्वामी है और दयालु है।

बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।
पंछी को छाया नहीं फल लागे अति दूर ॥


कबीर साहेब के विचार सदा से मानवतावादी रहे हैं। निर्धन और दरिद्र की सहायता, समाज के हाशिये पर आया चुके लोगों की सहायता, असहाय के लिए मदद के लिए लोगों को प्रेरित किया है। जैसे खजूर का वृक्ष बड़ा होता है लेकिन उसके फल बहुत ऊँचाई पर लगते हैं और किसी को उसकी छांया का लाभ भी प्राप्त नहीं हो पाता है उसी प्रकार से यदि कोई सबल है, समर्थ है तो उसे लोगों की मदद करनी चाहिए अन्यथा उसके सामर्थ्य का कोई ओचित्य नहीं है। कबीर साहेब की वाणी प्रगतिशीलता की सूचक है जिसका ध्येय है निरंतर आगे बढ़ना, लेकिन सभी को साथ लेकर। तात्कालिक समय पर कबीर साहेब ने मानवता के जिस रूप को प्रसारित किया वो अदभुद थी जिसके कारन एक दुसरे को समझने में सहायता हुयी। कबीर साहेब ने उंच नीच, निर्धन और अमीर को एक ही इश्वर की संतान बताया और एक दुसरे के समीप आने का अवसर प्रदान किया। निश्चित ही इससे समाज में एकता और समरूपता आई। 

साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय।
सार-सार को गहि रहै थोथा देई उडाय।


संतजन की विशेषता बताते हुए कबीर साहेब की वाणी है की संसार में नाना विषयों पर आधारित ज्ञान मौजूद है। संतजन को उनमे से उपयोगी विचारों को रख लेना चाहिए और व्यर्थ के कचरे को उसी तरह से उड़ा देना चाहिए जैसे अनाज साफ़ करने वाला सूप अनाज और कचरे को अलग अलग कर देता है। समाज में हर मत सबंधी विचार धाराए सदा से रही है। कबीर साहेब के विचारधारा मानवतावाद पर आधारित रही हैं। वेद, पुराण, मंदिर, मस्जिद सभी को मानव के लिए बताया और इनका महत्त्व तभी हो सकता है जब ये लोक कल्याणकारी हों। उत्पीडित, शोषित, वंचित, दलित, अधिकार से वंचित लोगों के लिए समता लाने का उद्घोष किया। भाव है की उसी ज्ञान को ग्रहण करो जो लोक मंगल के लिए हो, जिसमे सबका भला हो। व्यर्थ के ज्ञान को कचरा समझ कर मूल्यवान ज्ञान से अलग कर लो। 

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