कबीर माला काठ की कहि समझावै तोहि मीनिंग
कबीर माला काठ की, कहि समझावै तोहि।
मन न फिरावै आपणों, कहा फिरावै मोहि॥
Kabir Mala Kath Ki, Kahi Samjhave Tohi,
Man Na Firave Aapano, Kahan Firave Mohi.
कबीर माला काठ की : लकड़ी की माला कहकर समझाती है.
कहि समझावै तोहि : कहकर तुमको समझाती है.
मन न फिरावै आपणों : अपने मन को फिराता नहीं है.
कहा फिरावै मोहि : मुझको क्यों फिरा रहे हो.
माला : काठ की माला.
काठ की : लकड़ी, काष्ठ
कहि : कहकर, बोलकर.
समझावै : समझाती है.
तोहि : तुमको.
मन न : मन को नहीं.
फिरावै : फिराते हो.
आपणों : अपने.
कहा : कहाँ, क्यों.
फिरावै : फिराते हो, घुमाते हो.
मोहि : मुझको.
कबीर साहेब की वाणी है की काष्ठ की माला साधक को बोलकर समझाती है की तुम मुझको क्यों फिरा रहे हो? वे समझाती है की तुम व्यर्थ में क्यों मुझको फिराते हो, अपने मन को क्यों नहीं फिराते हो?
भाव है की कर्मकांड और सांकेतिक भक्ति से व्यक्ति को भले ही मन में संतोष कर ले की उसने भक्ति की है, लेकिन ये सभी व्यर्थ हैं. मूर्तिपूजा, विभिन्न तरह के, रंग के कपडे धारण करना, तीर्थ करना आदि सभी व्यर्थ हैं. ये भक्ति नहीं है और इनसे कोई कार्य सिद्ध नहीं होने वाला है. सच्चे हृदय से इश्वर की भक्ति करने पर ही इश्वर की प्राप्ति संभव हो सकती है. भक्ति नितांत ही आत्मिक और आंतरिक विषय का मामला है. चित्तवृति को सांसारिक कार्यों से हटाकर इश्वर की भक्ति में लगाना आवश्यक है.
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Author - Saroj Jangir
दैनिक रोचक विषयों पर में 20 वर्षों के अनुभव के साथ, मैं कबीर के दोहों को अर्थ सहित, कबीर भजन, आदि को सांझा करती हूँ, मेरे इस ब्लॉग पर। मेरे लेखों का उद्देश्य सामान्य जानकारियों को पाठकों तक पहुंचाना है। मैंने अपने करियर में कई विषयों पर गहन शोध और लेखन किया है, जिनमें जीवन शैली और सकारात्मक सोच के साथ वास्तु भी शामिल है....अधिक पढ़ें।
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