बीत गये दिन भजन बिना रे भजन
बीत गये दिन भजन बिना रे ।
भजन बिना रे भजन बिना रे ॥
बाल अवस्था खेल गवांयो ।
जब यौवन तब मान घना रे ॥
लाहे कारण मूल गवाँयो ।
अजहुं न गयी मन की तृष्णा रे ॥
कहत कबीर सुनो भई साधो ।
पार उतर गये संत जना रे ॥
भजन बिना रे भजन बिना रे ॥
बाल अवस्था खेल गवांयो ।
जब यौवन तब मान घना रे ॥
लाहे कारण मूल गवाँयो ।
अजहुं न गयी मन की तृष्णा रे ॥
कहत कबीर सुनो भई साधो ।
पार उतर गये संत जना रे ॥
Beet Gaye Din Bhajan Bina Re .
Bhajan Bina Re Bhajan Bina Re .
Baal Avastha Khel Gavaanyo .
Jab Yauvan Tab Maan Ghana Re .
Laahe Kaaran Mool Gavaanyo .
Ajahun Na Gayee Man Kee Trshna Re .
Kahat Kabeer Suno Bhee Saadho .
Paar Utar Gaye Sant Jana Re .
Bhajan Bina Re Bhajan Bina Re .
Baal Avastha Khel Gavaanyo .
Jab Yauvan Tab Maan Ghana Re .
Laahe Kaaran Mool Gavaanyo .
Ajahun Na Gayee Man Kee Trshna Re .
Kahat Kabeer Suno Bhee Saadho .
Paar Utar Gaye Sant Jana Re .
Beet Gaye Din Bhajan Bina Re- Jagjit Singh (Singer)
सुंदर भजन में जीवन की सच्चाई उभरती है कि बिना भजन के दिन व्यर्थ चले जाते हैं। श्रीकृष्णजी का नाम जपे बिना जीवन अधूरा सा लगता है, जैसे कोई प्यासा पानी के बिना तड़पता रहे।
बचपन खेल-कूद में बीत गया, जवानी में मान-मोह की चमक में खो गए। दुनिया की माया के पीछे भागते-भागते असल धन, यानी भक्ति का मूल, कहीं गुम हो गया। फिर भी मन की तृष्णा शांत नहीं होती, जैसे कोई सागर को भरने की कोशिश में थक जाए।
कबीर की वाणी साफ कहती है कि साधु-संतों ने भजन के सहारे भवसागर पार कर लिया। उनका रास्ता हमें दिखाता है कि सच्ची भक्ति ही जीवन का असली मोल है। जैसे कोई नाविक तूफान में भी किनारा पा ले, वैसे ही श्रीकृष्णजी का भजन मन को राह दिखाता है।
जीवन का सच यही है कि बिना भगवान के नाम के हर पल अधूरा है। मन को शुद्ध कर, भजन में डूबो, तो वो सुख मिलता है जो दुनिया की कोई चीज नहीं दे सकती। जैसे कोई अंधेरे में दीया जलाए, वैसे ही भजन जीवन में उजाला लाता है। कबीर दास जी कहते हैं, "बीत गए दिन भजन बिना रे" अर्थात हमारा जीवन ईश्वर के स्मरण, भक्ति और ध्यान के बिना व्यर्थ जा रहा है।
कबीर दास जी आगे बताते हैं कि यह कैसे हो रहा है। "बाल अवस्था खेल गवाँयो, जब यौवन तब मान घना रे।" हम अपना बचपन खेल-कूद में बिता देते हैं। जब हम युवा होते हैं, तो अहंकार और मान-सम्मान की भावना में डूब जाते हैं। हम सोचते हैं कि हम ही सब कुछ हैं, और इस अहंकार में हम अपने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण समय गँवा देते हैं।
"लाहे कारण मूल गवाँयो, अजहुं न गयी मन की तृष्णा रे।" यहां कबीर जी हमें समझाते हैं कि हम सांसारिक लाभ (लाहे) कमाने के लिए अपने जीवन के मूल उद्देश्य (मूल) को भूल गए हैं। हमारा जन्म ईश्वर को जानने के लिए हुआ था, लेकिन हम धन, मान और पद के पीछे भागते रहे। इतना सब कुछ पाने के बाद भी हमारे मन की लालसा (तृष्णा) शांत नहीं हुई।
"कहत कबीर सुनो भई साधो, पार उतर गए संत जना रे।" अंत में, कबीर दास जी हमें एक मार्ग दिखाते हैं। वे कहते हैं कि हे संतो, सुनो! जो लोग इस जीवन के सत्य को समझ गए, जिन्होंने अपनी तृष्णा का त्याग कर भक्ति और भजन का मार्ग अपनाया, वे इस भवसागर से पार हो गए।
बचपन खेल-कूद में बीत गया, जवानी में मान-मोह की चमक में खो गए। दुनिया की माया के पीछे भागते-भागते असल धन, यानी भक्ति का मूल, कहीं गुम हो गया। फिर भी मन की तृष्णा शांत नहीं होती, जैसे कोई सागर को भरने की कोशिश में थक जाए।
कबीर की वाणी साफ कहती है कि साधु-संतों ने भजन के सहारे भवसागर पार कर लिया। उनका रास्ता हमें दिखाता है कि सच्ची भक्ति ही जीवन का असली मोल है। जैसे कोई नाविक तूफान में भी किनारा पा ले, वैसे ही श्रीकृष्णजी का भजन मन को राह दिखाता है।
जीवन का सच यही है कि बिना भगवान के नाम के हर पल अधूरा है। मन को शुद्ध कर, भजन में डूबो, तो वो सुख मिलता है जो दुनिया की कोई चीज नहीं दे सकती। जैसे कोई अंधेरे में दीया जलाए, वैसे ही भजन जीवन में उजाला लाता है। कबीर दास जी कहते हैं, "बीत गए दिन भजन बिना रे" अर्थात हमारा जीवन ईश्वर के स्मरण, भक्ति और ध्यान के बिना व्यर्थ जा रहा है।
कबीर दास जी आगे बताते हैं कि यह कैसे हो रहा है। "बाल अवस्था खेल गवाँयो, जब यौवन तब मान घना रे।" हम अपना बचपन खेल-कूद में बिता देते हैं। जब हम युवा होते हैं, तो अहंकार और मान-सम्मान की भावना में डूब जाते हैं। हम सोचते हैं कि हम ही सब कुछ हैं, और इस अहंकार में हम अपने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण समय गँवा देते हैं।
"लाहे कारण मूल गवाँयो, अजहुं न गयी मन की तृष्णा रे।" यहां कबीर जी हमें समझाते हैं कि हम सांसारिक लाभ (लाहे) कमाने के लिए अपने जीवन के मूल उद्देश्य (मूल) को भूल गए हैं। हमारा जन्म ईश्वर को जानने के लिए हुआ था, लेकिन हम धन, मान और पद के पीछे भागते रहे। इतना सब कुछ पाने के बाद भी हमारे मन की लालसा (तृष्णा) शांत नहीं हुई।
"कहत कबीर सुनो भई साधो, पार उतर गए संत जना रे।" अंत में, कबीर दास जी हमें एक मार्ग दिखाते हैं। वे कहते हैं कि हे संतो, सुनो! जो लोग इस जीवन के सत्य को समझ गए, जिन्होंने अपनी तृष्णा का त्याग कर भक्ति और भजन का मार्ग अपनाया, वे इस भवसागर से पार हो गए।
कबीर साहब के अनुसार, हम सांसारिक लाभ (लाह) के लिए अपने जीवन के मूल उद्देश्य (मूल) को भूल जाते हैं। "लाहे कारण मूल गँवायो, अजहुँ न गयी मन की तृष्णा रे।" यहां वे हमें लालच और तृष्णा के बंधन से मुक्त होने की सलाह देते हैं। उनका मानना है कि जब तक हमारे मन में लोभ है, तब तक हम कभी भी सच्ची शांति और खुशी प्राप्त नहीं कर सकते। इस भजन का अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण संदेश मोक्ष का मार्ग है। "कहत कबीर सुनो भई साधो, पार उतर गए संत जना रे।" कबीर साहब हमें बताते हैं कि इस भवसागर से पार उतरने का एकमात्र रास्ता भक्ति और सत्संग है। जो लोग सांसारिक मोह को त्यागकर ईश्वर का भजन करते हैं, वे ही जीवन के अंतिम लक्ष्य को प्राप्त कर पाते हैं।
जगजीत सिंह, जिन्हें "ग़ज़ल सम्राट" के रूप में जाना जाता है, एक ऐसे कलाकार थे जिनकी आवाज़ ने ग़ज़ल को आम लोगों तक पहुँचाया। लेकिन उनकी प्रतिभा केवल ग़ज़लों तक सीमित नहीं थी; उन्होंने भजन गायकी में भी अपना एक विशेष स्थान बनाया।
उनकी आवाज़ में एक अद्भुत सादगी, गहराई और शांति थी, जिसने उनके भजनों को और भी प्रभावशाली बना दिया। उन्होंने मीराबाई, कबीर और गुरु नानक जैसे संतों की रचनाओं को अपनी मधुर आवाज़ में गाकर एक नया जीवन दिया। उनके भजन, जैसे "हे राम, हे राम" और "मन लाग्यो मेरो यार फकीरी में," सीधे हृदय को छूते हैं और श्रोताओं को एक आध्यात्मिक शांति का अनुभव कराते हैं।
उनकी आवाज़ में एक अद्भुत सादगी, गहराई और शांति थी, जिसने उनके भजनों को और भी प्रभावशाली बना दिया। उन्होंने मीराबाई, कबीर और गुरु नानक जैसे संतों की रचनाओं को अपनी मधुर आवाज़ में गाकर एक नया जीवन दिया। उनके भजन, जैसे "हे राम, हे राम" और "मन लाग्यो मेरो यार फकीरी में," सीधे हृदय को छूते हैं और श्रोताओं को एक आध्यात्मिक शांति का अनुभव कराते हैं।
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