हरि से मिलूं कैसे जाय
गली तो चारों बंद हु हैं मैं हरिसे मिलूं कैसे जाय॥
ऊंची-नीची राह रपटली पांव नहीं ठहराय।
सोच सोच पग धरूं जतन से बार-बार डिग जाय॥
ऊंचा नीचां महल पिया का म्हांसूं चढ्यो न जाय।
पिया दूर पथ म्हारो झीणो सुरत झकोला खाय॥
कोस कोस पर पहरा बैठया पैग पैग बटमार।
हे बिधना कैसी रच दीनी दूर बसायो लाय॥
मीरा के प्रभु गिरधर नागर सतगुरु द बताय।
जुगन-जुगन से बिछड़ी मीरा घर में लीनी लाय॥
ऊंची-नीची राह रपटली पांव नहीं ठहराय।
सोच सोच पग धरूं जतन से बार-बार डिग जाय॥
ऊंचा नीचां महल पिया का म्हांसूं चढ्यो न जाय।
पिया दूर पथ म्हारो झीणो सुरत झकोला खाय॥
कोस कोस पर पहरा बैठया पैग पैग बटमार।
हे बिधना कैसी रच दीनी दूर बसायो लाय॥
मीरा के प्रभु गिरधर नागर सतगुरु द बताय।
जुगन-जुगन से बिछड़ी मीरा घर में लीनी लाय॥
"गली तो चारों बंद हुई, मैं हरि से मिलूं कैसे जाय।"
मीरा कहती हैं कि सभी रास्ते बंद हो गए हैं; अब मैं अपने प्रिय हरि (श्रीकृष्ण) से मिलने कैसे जाऊं?
"ऊंची-नीची राह कटीली, पांव नहीं ठहराय।
सोच-सोच पग धरूं जतन से, बार-बार डिग जाय॥"
रास्ते ऊंचे-नीचे और कांटों से भरे हैं, जिन पर पैर टिक नहीं पाते। बहुत सोच-समझकर कदम रखती हूं, फिर भी बार-बार फिसल जाती हूं।
"ऊंचा-नीचा महल पिया का, मोसे चढ़या न जाय।
पिया दूर पंथ म्हारो झीणो, सुरत झकोला खाय॥"
प्रियतम का महल ऊंचा-नीचा है, जहां मुझसे चढ़ा नहीं जाता। प्रिय दूर हैं, रास्ता कठिन है, और मेरी चेतना डगमगा रही है।
"कोस-कोस पर पहरा बैठा, पैण्ड-पैण्ड बटमार।
हे विधिना कैसी रच दीनी, दूर बसायो म्हारो गाँव॥"
हर कोस पर पहरेदार बैठे हैं, हर कदम पर लुटेरे हैं। हे विधाता, आपने कैसी लीला रची है कि मेरा गांव इतनी दूर बसा दिया।
"मीरा के प्रभु गिरधर नागर, सतगुरु दई बताय।
जुगन-जुगन से बिछड़ी मीरा, घर में लीनी लाय॥"
मीरा कहती हैं कि मेरे प्रभु गिरधर नागर (श्रीकृष्ण) ने सच्चे गुरु के माध्यम से मुझे मार्ग दिखाया। युगों-युगों से बिछड़ी मीरा को उन्होंने अपने घर में स्थान दिया। इस भजन में मीरा बाई ने अपने आराध्य से मिलन की कठिनाइयों और उनके प्रति अपनी अटूट भक्ति को व्यक्त किया है। यह भजन भक्तों के लिए प्रेरणादायक है और भक्ति मार्ग की चुनौतियों को दर्शाता है।
मीरा कहती हैं कि सभी रास्ते बंद हो गए हैं; अब मैं अपने प्रिय हरि (श्रीकृष्ण) से मिलने कैसे जाऊं?
"ऊंची-नीची राह कटीली, पांव नहीं ठहराय।
सोच-सोच पग धरूं जतन से, बार-बार डिग जाय॥"
रास्ते ऊंचे-नीचे और कांटों से भरे हैं, जिन पर पैर टिक नहीं पाते। बहुत सोच-समझकर कदम रखती हूं, फिर भी बार-बार फिसल जाती हूं।
"ऊंचा-नीचा महल पिया का, मोसे चढ़या न जाय।
पिया दूर पंथ म्हारो झीणो, सुरत झकोला खाय॥"
प्रियतम का महल ऊंचा-नीचा है, जहां मुझसे चढ़ा नहीं जाता। प्रिय दूर हैं, रास्ता कठिन है, और मेरी चेतना डगमगा रही है।
"कोस-कोस पर पहरा बैठा, पैण्ड-पैण्ड बटमार।
हे विधिना कैसी रच दीनी, दूर बसायो म्हारो गाँव॥"
हर कोस पर पहरेदार बैठे हैं, हर कदम पर लुटेरे हैं। हे विधाता, आपने कैसी लीला रची है कि मेरा गांव इतनी दूर बसा दिया।
"मीरा के प्रभु गिरधर नागर, सतगुरु दई बताय।
जुगन-जुगन से बिछड़ी मीरा, घर में लीनी लाय॥"
मीरा कहती हैं कि मेरे प्रभु गिरधर नागर (श्रीकृष्ण) ने सच्चे गुरु के माध्यम से मुझे मार्ग दिखाया। युगों-युगों से बिछड़ी मीरा को उन्होंने अपने घर में स्थान दिया। इस भजन में मीरा बाई ने अपने आराध्य से मिलन की कठिनाइयों और उनके प्रति अपनी अटूट भक्ति को व्यक्त किया है। यह भजन भक्तों के लिए प्रेरणादायक है और भक्ति मार्ग की चुनौतियों को दर्शाता है।
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