रामचरितमानसपाठ:सुन्दरकाण्ड:दोहा:१८-२७ लिरिक्स Sundarkand Doha Lyrics

रामचरितमानसपाठ:सुन्दरकाण्ड:दोहा:१८-२७ लिरिक्स Sundarkand Doha Lyrics

 
रामचरितमानसपाठ:सुन्दरकाण्ड:दोहा:१८-२७ लिरिक्स Sundarkand Doha Lyrics

चौपाई
चलेउ नाइ सिरु पैठेउ बागा। फल खाएसि तरु तोरैं लागा ॥
रहे तहाँ बहु भट रखवारे। कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे ॥
नाथ एक आवा कपि भारी। तेहिं असोक बाटिका उजारी ॥
खाएसि फल अरु बिटप उपारे। रच्छक मर्दि मर्दि महि डारे ॥
सुनि रावन पठए भट नाना। तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना ॥
सब रजनीचर कपि संघारे। गए पुकारत कछु अधमारे ॥
पुनि पठयउ तेहिं अच्छकुमारा। चला संग लै सुभट अपारा ॥
आवत देखि बिटप गहि तर्जा। ताहि निपाति महाधुनि गर्जा ॥

रामचरितमानसपाठ:सुन्दरकाण्ड:दोहा:१८-२७
दो. कछु मारेसि कछु मर्देसि कछु मिलएसि धरि धूरि।
कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि ॥ १८ ॥

सुनि सुत बध लंकेस रिसाना। पठएसि मेघनाद बलवाना ॥
मारसि जनि सुत बांधेसु ताही। देखिअ कपिहि कहाँ कर आही ॥
चला इंद्रजित अतुलित जोधा। बंधु निधन सुनि उपजा क्रोधा ॥
कपि देखा दारुन भट आवा। कटकटाइ गर्जा अरु धावा ॥
अति बिसाल तरु एक उपारा। बिरथ कीन्ह लंकेस कुमारा ॥
रहे महाभट ताके संगा। गहि गहि कपि मर्दइ निज अंगा ॥
तिन्हहि निपाति ताहि सन बाजा। भिरे जुगल मानहुँ गजराजा।
मुठिका मारि चढ़ा तरु जाई। ताहि एक छन मुरुछा आई ॥
उठि बहोरि कीन्हिसि बहु माया। जीति न जाइ प्रभंजन जाया ॥

दो. ब्रह्म अस्त्र तेहिं साँधा कपि मन कीन्ह बिचार।
जौं न ब्रह्मसर मानउँ महिमा मिटइ अपार ॥ १९ ॥

ब्रह्मबान कपि कहुँ तेहि मारा। परतिहुँ बार कटकु संघारा ॥
तेहि देखा कपि मुरुछित भयऊ। नागपास बाँधेसि लै गयऊ ॥
जासु नाम जपि सुनहु भवानी। भव बंधन काटहिं नर ग्यानी ॥
तासु दूत कि बंध तरु आवा। प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा ॥
कपि बंधन सुनि निसिचर धाए। कौतुक लागि सभाँ सब आए ॥
दसमुख सभा दीखि कपि जाई। कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई ॥
कर जोरें सुर दिसिप बिनीता। भृकुटि बिलोकत सकल सभीता ॥
देखि प्रताप न कपि मन संका। जिमि अहिगन महुँ गरुड़ असंका ॥
दो. कपिहि बिलोकि दसानन बिहसा कहि दुर्बाद।
सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयँ बिषाद ॥ २० ॥

कह लंकेस कवन तैं कीसा। केहिं के बल घालेहि बन खीसा ॥
की धौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही। देखउँ अति असंक सठ तोही ॥
मारे निसिचर केहिं अपराधा। कहु सठ तोहि न प्रान कइ बाधा ॥
सुन रावन ब्रह्मांड निकाया। पाइ जासु बल बिरचित माया ॥
जाकें बल बिरंचि हरि ईसा। पालत सृजत हरत दससीसा।
जा बल सीस धरत सहसानन। अंडकोस समेत गिरि कानन ॥
धरइ जो बिबिध देह सुरत्राता। तुम्ह ते सठन्ह सिखावनु दाता।
हर कोदंड कठिन जेहि भंजा। तेहि समेत नृप दल मद गंजा ॥
खर दूषन त्रिसिरा अरु बाली। बधे सकल अतुलित बलसाली ॥
दो. जाके बल लवलेस तें जितेहु चराचर झारि।
तासु दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि ॥ २१ ॥

जानउँ मैं तुम्हारि प्रभुताई। सहसबाहु सन परी लराई ॥
समर बालि सन करि जसु पावा। सुनि कपि बचन बिहसि बिहरावा ॥
खायउँ फल प्रभु लागी भूँखा। कपि सुभाव तें तोरेउँ रूखा ॥
सब कें देह परम प्रिय स्वामी। मारहिं मोहि कुमारग गामी ॥
जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे। तेहि पर बाँधेउ तनयँ तुम्हारे ॥
मोहि न कछु बाँधे कइ लाजा। कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा ॥
बिनती करउँ जोरि कर रावन। सुनहु मान तजि मोर सिखावन ॥
देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी। भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी ॥
जाकें डर अति काल डेराई। जो सुर असुर चराचर खाई ॥
तासों बयरु कबहुँ नहिं कीजै। मोरे कहें जानकी दीजै ॥
दो. प्रनतपाल रघुनायक करुना सिंधु खरारि।
गएँ सरन प्रभु राखिहैं तव अपराध बिसारि ॥ २२ ॥

राम चरन पंकज उर धरहू। लंका अचल राज तुम्ह करहू ॥
रिषि पुलिस्त जसु बिमल मंयका। तेहि ससि महुँ जनि होहु कलंका ॥
राम नाम बिनु गिरा न सोहा। देखु बिचारि त्यागि मद मोहा ॥
बसन हीन नहिं सोह सुरारी। सब भूषण भूषित बर नारी ॥
राम बिमुख संपति प्रभुताई। जाइ रही पाई बिनु पाई ॥
सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं। बरषि गए पुनि तबहिं सुखाहीं ॥
सुनु दसकंठ कहउँ पन रोपी। बिमुख राम त्राता नहिं कोपी ॥
संकर सहस बिष्नु अज तोही। सकहिं न राखि राम कर द्रोही ॥
दो. मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान।
भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान ॥ २३ ॥

देह बिसाल परम हरुआई। मंदिर तें मंदिर चढ़ धाई ॥
जरइ नगर भा लोग बिहाला। झपट लपट बहु कोटि कराला ॥
तात मातु हा सुनिअ पुकारा। एहि अवसर को हमहि उबारा ॥
हम जो कहा यह कपि नहिं होई। बानर रूप धरें सुर कोई ॥
साधु अवग्या कर फलु ऐसा। जरइ नगर अनाथ कर जैसा ॥
जारा नगरु निमिष एक माहीं। एक बिभीषन कर गृह नाहीं ॥
ता कर दूत अनल जेहिं सिरिजा। जरा न सो तेहि कारन गिरिजा ॥
उलटि पलटि लंका सब जारी। कूदि परा पुनि सिंधु मझारी ॥
दो. पूँछ बुझाइ खोइ श्रम धरि लघु रूप बहोरि।
जनकसुता के आगें ठाढ़ भयउ कर जोरि ॥ २६ ॥

मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा। जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा ॥
चूड़ामनि उतारि तब दयऊ। हरष समेत पवनसुत लयऊ ॥
कहेहु तात अस मोर प्रनामा। सब प्रकार प्रभु पूरनकामा ॥
दीन दयाल बिरिदु संभारी। हरहु नाथ मम संकट भारी ॥
तात सक्रसुत कथा सुनाएहु। बान प्रताप प्रभुहि समुझाएहु ॥
मास दिवस महुँ नाथु न आवा। तौ पुनि मोहि जिअत नहिं पावा ॥
कहु कपि केहि बिधि राखौं प्राना। तुम्हहू तात कहत अब जाना ॥
तोहि देखि सीतलि भइ छाती। पुनि मो कहुँ सोइ दिनु सो राती ॥
दो. जनकसुतहि समुझाइ करि बहु बिधि धीरजु दीन्ह।
चरन कमल सिरु नाइ कपि गवनु राम पहिं कीन्ह ॥ २७ ॥



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