राम ब्रह्म चिनमय अबिनासी भजन

राम ब्रह्म चिनमय अबिनासी भजन

 
राम ब्रह्म चिनमय अबिनासी लिरिक्स Ram Brahm Chinmay Abinashi Lyrics

राम ब्रह्म चिनमय अबिनासी। सर्ब रहित सब उर पुर बासी,
जगत प्रकास्य प्रकासक रामू। मायाधीस ग्यान गुन धामू,
ब्यापक ब्रह्म निरंजन निर्गुन बिगत बिनोद,
सो अज प्रेम भगति बस कौसल्या कें गोद,

ईस्वर अंस जीव अबिनासी। चेतन अमल सहज सुख रासी,
सो मायाबस भयउ गोसाईं। बँध्यो कीर मरकट की नाईं,
मैं अरु मोर तोर तैं माया। जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया,
फिरत सदा माया कर प्रेरा। काल कर्म सुभाव गुन घेरा,
आकर चारि लच्छ चौरासी। जोनि भ्रमत यह जिव अबिनासी,
कबहुँक करि करुना नर देही। देत ईस बिनु हेतु सनेही,
बड़ें भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा,
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा,
सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताई,
कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्‍या दोष लगाइ,
राम ब्रह्म चिनमय अबिनासी



राम ब्रह्म चिनमय अबिनासी। सर्ब रहित सब उर पुर बासी॥
श्री रामचन्द्रजी ब्रह्म हैं, चिन्मय (ज्ञानस्वरूप) हैं, अविनाशी हैं, सबसे रहित और सबके हृदय रूपी नगरी में निवास करने वाले हैं॥

जगत प्रकास्य प्रकासक रामू। मायाधीस ग्यान गुन धामू॥
यह जगत प्रकाश्य है और श्री रामचन्द्रजी इसके प्रकाशक हैं। वे माया के स्वामी और ज्ञान तथा गुणों के धाम हैं।

ब्यापक ब्रह्म निरंजन निर्गुन बिगत बिनोद।
सो अज प्रेम भगति बस कौसल्या कें गोद॥198॥

भावार्थ:-जो सर्वव्यापक, निरंजन (मायारहित), निर्गुण, विनोदरहित और अजन्मे ब्रह्म हैं, वही प्रेम और भक्ति के वश कौसल्याजी की गोद में (खेल रहे) हैं॥198॥

ईस्वर अंस जीव अबिनासी। चेतन अमल सहज सुख रासी॥1॥
जीव ईश्वर का अंश है। (अतएव) वह अविनाशी, चेतन, निर्मल और स्वभाव से ही सुख की राशि है॥1॥ 

सो मायाबस भयउ गोसाईं। बँध्यो कीर मरकट की नाईं॥
हे गोसाईं ! वह माया के वशीभूत होकर तोते और वानर की भाँति अपने आप ही बँध गया।

मैं अरु मोर तोर तैं माया। जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया॥1॥
मैं और मेरा, तू और तेरा- यही माया है, जिसने समस्त जीवों को वश में कर रखा है॥

फिरत सदा माया कर प्रेरा। काल कर्म सुभाव गुन घेरा॥
माया की प्रेरणा से काल, कर्म, स्वभाव और गुण से घिरा हुआ (इनके वश में हुआ) यह सदा भटकता रहता है।

आकर चारि लच्छ चौरासी। जोनि भ्रमत यह जिव अबिनासी॥2॥
यह अविनाशी जीव (अण्डज, स्वेदज, जरायुज और उद्भिज्ज) चार खानों और चौरासी लाख योनियों में चक्कर लगाता रहता है॥2॥

कबहुँक करि करुना नर देही। देत ईस बिनु हेतु सनेही॥
बिना ही कारण स्नेह करने वाले ईश्वर कभी विरले ही दया करके इसे मनुष्य का शरीर देते हैं॥3॥

बड़ें भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा॥
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा॥4॥

भावार्थ:-बड़े भाग्य से यह मनुष्य शरीर मिला है। सब ग्रंथों ने यही कहा है कि यह शरीर देवताओं को भी दुर्लभ है (कठिनता से मिलता है)। यह साधन का धाम और मोक्ष का दरवाजा है। इसे पाकर भी जिसने परलोक न बना लिया,॥

सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताई।
कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्‍या दोष लगाइ॥43॥

भावार्थ:-वह परलोक में दुःख पाता है, सिर पीट-पीटकर पछताता है तथा (अपना दोष न समझकर) काल पर, कर्म पर और ईश्वर पर मिथ्या दोष लगाता है॥43॥ 
 
यह भजन बताता है कि श्रीराम परम ब्रह्म, ज्ञानस्वरूप, अविनाशी और सबके हृदय में बसने वाले हैं। वे ही इस संसार के प्रकाशक, माया के स्वामी और सभी गुणों के धाम हैं। वही सर्वव्यापक, निर्गुण और मायारहित ईश्वर प्रेम के कारण माता कौशल्या की गोद में बालक रूप में प्रकट हुए। प्रत्येक जीव ईश्वर का अंश है, इसलिए वह स्वभाव से ही चेतन, निर्मल और सुखरूप है, परंतु माया के प्रभाव से ‘मैं-मेरा, तू-तेरा’ की भ्रांति में उलझकर तोते और बंदर की तरह स्वयं ही बंध जाता है। माया, काल, कर्म, स्वभाव और गुणों से घिरा हुआ जीव चौरासी लाख योनियों में निरंतर भटकता रहता है। कभी-कभी ईश्वर दया करके उसे मानव जन्म देते हैं, जो दुर्लभ है और मुक्ति का मार्ग है; परंतु यदि मनुष्य इस अवसर को न पहचानकर अपना आध्यात्मिक कल्याण नहीं करता, तो मरने के बाद वह दुख पाता है, पछताता है और अपनी ही गलती न समझकर काल, कर्म और भगवान को अनुचित दोष देता है।
आपके अनुरोध के अनुसार, दिए गए अवधी (रामचरितमानस की भाषा) शब्दों का हिंदी में अर्थ एक सूची के रूप में यहाँ दिया गया है:
  • राम - भगवान राम, परम ब्रह्म।
  • ब्रह्म - ईश्वर, परम सत्य।
  • चिनमय - ज्ञानस्वरूप, चेतना से युक्त।
  • अबिनासी - अविनाशी, जिसका नाश न हो।
  • सर्ब रहित - सबसे रहित, निर्लिप्त।
  • सब उर पुर बासी - सबके हृदय रूपी नगर में निवास करने वाले।
  • जगत - संसार, विश्व।
  • प्रकास्य - प्रकाशित होने योग्य वस्तु (जिसको प्रकाश मिले)।
  • प्रकासक - प्रकाशित करने वाला (प्रकाश देने वाला)।
  • मायाधीस - माया के स्वामी।
  • ग्यान - ज्ञान।
  • गुन - गुण।
  • धामू - धाम, स्थान, भंडार।
  • ब्यापक - सर्वव्यापक, हर जगह विद्यमान।
  • निरंजन - दोष रहित, निर्मल।
  • निर्गुन - निर्गुण (गुणों से परे)।
  • बिगत बिनोद - खेल-विनोद रहित।
  • सो - वह।
  • अज - अजन्मा (जिसका जन्म न हो)।
  • प्रेम - स्नेह, प्यार।
  • भगति - भक्ति।
  • बस - वश में।
  • कौसल्या कें गोद - कौसल्या की गोद में।
  • ईस्वर - ईश्वर, परमात्मा।
  • अंस - अंश, भाग।
  • जीव - आत्मा, प्राणी।
  • चेतन - सचेत, जागरूक।
  • अमल - निर्मल, स्वच्छ।
  • सहज सुख रासी - स्वाभाविक सुख का भंडार।
  • मायाबस - माया के वश में।
  • भयउ - हो गया।
  • गोसाईं - स्वामी।
  • बँध्यो - बँधा हुआ।
  • कीर - तोता।
  • मरकट - बंदर।
  • नाईं - तरह।
  • मैं अरु मोर - मैं और मेरा।
  • तोर - तेरा।
  • तैं - से।
  • जेहिं बस - जिसके वश में।
  • कीन्हे - किए हुए हैं।
  • जीव निकाया - जीवों का समूह।
  • फिरत सदा - हमेशा भटकता रहता है।
  • कर प्रेरा - की प्रेरणा से।
  • काल - समय।
  • कर्म - कार्य, कृत्य।
  • सुभाव - स्वभाव, प्रकृति।
  • घेरा - घिरा हुआ।
  • आकर चारि - चार प्रकार की योनियाँ (जैसे स्वेदज, अंडज, पिंडज, उद्भिज)।
  • लच्छ चौरासी - चौरासी लाख (योनियाँ)।
  • जोनि भ्रमत - योनियों में भटकता है।
  • यह जिव - यह जीव।
  • कबहुँक - कभी-कभी।
  • करि करुना - दया करके।
  • नर देही - मनुष्य शरीर।
  • देत ईस - ईश्वर देता है।
  • बिनु हेतु सनेही - बिना किसी कारण के प्रेम करने वाला।
  • बड़ें भाग - बड़े भाग्य से।
  • मानुष तनु - मनुष्य का शरीर।
  • पावा - पाया, प्राप्त किया।
  • सुर दुर्लभ - देवताओं के लिए भी दुर्लभ।
  • सब ग्रंथन्हि गावा - सभी ग्रंथों ने गाया है, बताया है।
  • साधन धाम - साधना का घर।
  • मोच्छ कर द्वारा - मोक्ष का द्वार।
  • पाइ न जेहिं - जिसे पाकर भी नहीं।
  • परलोक सँवारा - परलोक (मुक्ति) को सुधारा।
  • सो परत्र - वह परलोक में।
  • दुख पावइ - दुःख पाता है।
  • सिर धुनि धुनि - सिर पीट-पीटकर।
  • पछिताई - पछताता है।
  • कालहि - काल को।
  • ईस्वरहि - ईश्वर को।
  • मिथ्‍या दोष लगाइ - झूठा दोष लगाकर।
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