ॐ य यज्ञेन यज्ञमयजन्त मंत्र अर्थ और महत्त्व

ॐ य यज्ञेन यज्ञमयजन्त मंत्र अर्थ और महत्त्व

 

ॐ यज्ञेन यज्ञमयजंत देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्|
ते हं नाकं महिमान: सचंत यत्र पूर्वे साध्या: संति देवा:
ॐ राजाधिराजाय प्रसह्ये साहिने | नमो वयं वैश्रवणाय कुर्महे
स मे कामान्कामकामाय मह्यम्| कामेश्वरो वैश्रवणो ददातु|
कुबेराय वैश्रवणाय | महाराजाय नम: ॐ स्वस्ति
साम्राज्यं भौज्यं स्वाराज्यं वैराज्यं पारमेष्ठ्यं राज्यं माहाराज्यमाधिपत्यमयं समंतपर्यायी
स्यात्सार्वभौम: सार्वायु आंतादापरार्धात्पृथिव्यै समुद्रपर्यंता या एकराळिति
तदप्येष श्लोकोऽभिगीतो मरुत: परिवेष्टारो मरुत्तस्यावसन्गृहे
आविक्षितस्य कामप्रेर्विश्वेदेवा: सभासद इति
एकदंतायविद्महे वक्रंतुडाय धीमहि
तन्नोदंती प्रचोदयात्
श्रीशुभं भवतु
 
ॐ यज्ञेन यज्ञमयजंत देवाः तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्। 
ते हं नाकं महिमानः सचंत यत्र पूर्वे साध्याः संति देवाः॥
इसका अर्थ है: देवताओं ने यज्ञ के माध्यम से यज्ञस्वरूप प्रजापति की उपासना की। ये प्रारंभिक धर्मकर्म थे। उन्होंने उस स्वर्गलोक को प्राप्त किया, जहाँ पहले से ही साध्य नामक देवता निवास करते हैं।

ॐ राजाधिराजाय प्रसह्ये साहिने नमो वयं वैश्रवणाय कुर्महे। 
स मे कामान् कामकामाय मह्यं कामेश्वरो वैश्रवणो ददातु। 
कुबेराय वैश्रवणाय महाराजाय नमः॥
इसका अर्थ है: हम बलपूर्वक विजय प्राप्त करने वाले, राजाओं के राजा, वैश्रवण (कुबेर) को नमस्कार करते हैं। कामनाओं के स्वामी वैश्रवण मुझे मेरी इच्छित वस्तुएँ प्रदान करें। कुबेर, वैश्रवण, महाराज को नमस्कार।

ॐ स्वस्ति। साम्राज्यं भौज्यं स्वाराज्यं वैराज्यं पारमेष्ठ्यं 
राज्यं माहाराज्यमधिपत्यमयं समंतपर्यायी स्यात्सार्वभौमः 
सार्वायुष आंतादापरार्धात्पृथिव्यै समुद्रपर्यंताया एकराळिति। 
तदप्येष श्लोकोऽभिगीतो मरुतः परिवेष्टारो मरुत्तस्यावसन्गृहे। 
आविक्षितस्य कामप्रेर्विश्वेदेवा: सभासद इति॥
इसका अर्थ है: हम स्वस्ति (कल्याण) की कामना करते हैं। साम्राज्य, भोग, स्वाराज्य, वैराज्य, परमेष्ठी पद, राज्य, महाराज्य, अधिपत्य, चारों ओर से पूर्ण, सार्वभौम, दीर्घायु, पृथ्वी के समुद्र पर्यंत विस्तार तक, ये सभी हमें प्राप्त हों। इस प्रकार का एक श्लोक गाया गया है: मरुतों ने मरुत्त के घर में निवास किया। आविक्षित के प्रिय कामना करने वाले सभी देवता सभा में उपस्थित थे।

एकदंताय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि। तन्नो दंती प्रचोदयात्॥
इसका अर्थ है: हम एकदंत (एक दाँत वाले) को जानते हैं, वक्रतुण्ड (टेढ़ी सूंड वाले) का ध्यान करते हैं। वह दंती (गणेश) हमें प्रेरित करें।

इन मंत्रों का उच्चारण धार्मिक अनुष्ठानों के अंत में भगवान को पुष्पांजलि अर्पित करते समय किया जाता है, जिससे पूजा पूर्ण मानी जाती है।


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