तीरथ करि करि जग मुवा डूँधै पाँणी मीनिंग

तीरथ करि करि जग मुवा डूँधै पाँणी न्हाइ हिंदी मीनिंग

तीरथ करि करि जग मुवा, डूँधै पाँणी न्हाइ।
राँमहि राम जपंतड़ाँ, काल घसीट्याँ जाइ॥

Teerath Kari Kari Jag Muva, Doondhai Paannee Nhai.
Raanmahi Raam Japantadaan, Kaal Ghaseetyaan Jai.
 
तीरथ करि करि जग मुवा डूँधै पाँणी न्हाइ हिंदी मीनिंग Teerath Kari Kari Jag Mua Hindi Meaning

कबीर दोहा हिंदी व्याख्या : Kabir Doha Meaning in Hindi: तीरथ करने के नाम से लोग गंदे पानी में भी स्नान करके मर रहे हैं, यद्यपि मुंह से उनके राम का नाम निकल रहा है, वे राम का नाम जप रहे हैं फिर भी काल उनको घसीट कर ले जाता है। भाव है की मुंह से राम के नाम के जाप से कोई लाभ नहीं होने वाला है। राम के नाम के जाप का भी तभी लाभ मिलता है जब हृदय से सुमिरण किया जाए।

तीरथ और कर्मकांड का साहेब ने हर स्थान पर विरोध किया है। आचरण की शुद्धता के अभाव में भक्ति से भी कुछ लाभ नहीं होने वाला है इसलिए ढोंग को छोडकर हरी के नाम का सुमिरण करना ही जीवन का आधार है। कोई काबा जाए कैलाश जाए, गंगा नहां ले इससे कुछ भी लाभ नहीं होने वाला है। कुछ इसी भाँती ही बाबा बुल्लेशाह ने कहा है की -

मक्‍के गया गल मुकदी नाहीं, {मक्के जाने से बात समाप्त नहीं हो जाती है }
भावें सौ सौ जुम्मे पढ़ आइये, {चाहे सो सौ जुम्मे पढ़ लो }
गंगा गया गल मुकदी {गंगा जी के जाने से बात समाप्त नहीं होती है / पूर्ण नहीं होती है }
भांवें सौ सौ गोते खाआइये, {चाहे सौ सौ गोते गंगा जी में लगा लो }
"गया" गया जी } गया गल मुकदी नाहीं, {गया जी में जाने से बात पूर्ण नहीं होती है }
भावें सौ सौ पॅंड पड़ आइए {गया जी में चाहे सौ सौ पिंड दान कर दो, बात समाप्त नहीं हुई}
बुल्ले शाह गल तां या मुकदी, {बुल्लेशाह बात तो तभी समाप्त होगी जब अपने अहम् को समाप् करोगे, मैं को अपने दिल से निकाल दोगे}
जद्दों "मैं" नूं दिलों गवाइये,

पढ़ पढ़ आलम फ़ाज़ल होया, {महज किताबी ज्ञान प्राप्त करके आलम और फाजिल हो गये हो }
कदी अपने आप नूं पढिया ही नयी {कभी अपने आप को नहीं पढ़ा}
जां जां वड़दा, मंदिर मसीतां, {जाकर मंदिर मस्जिद में घुसते हो }
कदी मन अपने विच वडियां ही नयी, {कभी अपने दिल मैं घुस कर देखा ही नहीं }
एवे रोज़ शैतान नाल लड़िया, {ऐसे ही रोज शैतान से लड़ने का नाटक करते हो }
कदी नफ़ज़ अपने नाल लड़या ही नयी, {कभी अपने दिल के शैतान को मारा ही नहीं }
बुल्ले शाह असमानी उड़ दिया फड़दा, {बुल्ले शाह आसमान में उड़ते हुए को पकड़ना चाहता है }
जेड़ा घर बैठा ओनूं फड़या ही नयी, {जो घर पर ही बैठा है (ईश्वर ) उसको तो कभी पकड़ा ही नहीं }
सिर ते टोपी ते नियत खोटी, {सर पर धार्मिक टोपी लगाने से क्या नियत तो खोटी की खोटी }
लेना की टोपी सिर धरके, {ऐसी टोपी को सर पर लगाने से क्या लाभ }
तसबी फिरी पर दिल ना फिरया, {माला फेरी लेकिन मन का मनका नहीं फेरा, मन की मलीनता को दुरुस्त नहीं किया }
लेना की तसबी हथ फड़के, {ऐसी माला को हाथ में लेने से क्या लाभ }
चिल्ले कित्ते पर रब ना मिलिया, {चिल्ले करने से क्या लाभ, ईश्वर तो नहीं मिला}
लेना की चिलिया विच बड़के, {तो फिर चिल्ले में जाकर क्या लाभ }
बुलिया जाग बिन दूध नई जमदा, {दूध बिना जामन लगाए नहीं जमता है }
भाँवे लाल होये कढ कढ़ के, (चाहे उसे लाल होने तक उबाल क्यों नहीं लिया जाए, }

कबीर इस संसार को, समझाऊँ कै बार।
पूँछ जु पकड़ै भेड़ की, उतर्‌या चाहै पार॥

साहेब की वाणी है की इस संसार को मैं कीतनी बार समझाऊं, इस संसार ने भेड़ की पूँछ पकड़ रखी है और वह इस भव से पार उतरना चाहता है। वह कर्मकांड करता है, तीर्थ करता है, माला फेरता है लेकिन हृदय से भक्ति नहीं करता है, ऐसे में हरी की प्राप्ति कैसे संभव है? यह तो एक दुसरे को देख कर उसके अनुसरण करने जैसा ही है। जब तक असल भक्ति नहीं होगी कुछ भी हासिल नहीं होगा।

कबीर मन फूल्या फिरै, करता हूँ मैं ध्रंम।
कोटि क्रम सिरि ले चल्या, चेत न देखै भ्रंम॥

लोग मन ही मन बहुत राजी होते हैं की वे भक्ति कर रहे हैं, धर्म की राह पर चल रहे हैं, लेकिन यह तो उनका ही भ्रम है क्योकि वे चेतन अवस्था में नहीं है और यह नहीं देख रहे हैं की वे तो करोड़ों पापो के कर्म को अपने सर के ऊपर लेकर चल रहे हैं। भाव है की मन ही मन प्रशन्न होने से क्या लाभ है जब तक हरी के नाम का सुमिरण हृदय से नहीं किया जाए। पाप कर्मों से जब तक छुटकारा नहीं होगा, नैतिक जीवन नहीं होगा, आचरण में और विचारों में शुद्धता नहीं होगी तो मुक्ति कैसे संभव है, भक्ति कैसे संभव है। वस्तुतः जब तक आचरण की शुद्धता नहीं होगी हरी की प्राप्ति असंभव ही है। 

मोर तोर की जेवड़ी, बलि बंध्या संसार।
काँसि कडूँ बासुत कलित, दाझड़ बारंबार॥

यह संसार तेरे मेरे की जेवड़ी (रस्सी) में बंधा हुआ रहता है। यह तो बली के बकरे के समान बंधा हुआ है, पुत्र एंव स्त्री रूपी काम कडुआ के कारण जीवात्मा को जीवन मरन से मुक्ति नहीं मिलती है और वह आवागमन में ही फंसा रहता है और सांसारिक तापों में दग्ध रहता है।

कथणीं कथी तो क्या भया, जे करणी नाँ ठहराइ।
कालबूत के कोट ज्यूँ, देषतहीं ढहि जाइ॥

यदि हम केवल कहने तक ही सीमित रहें और उसे व्यावहारिक रूप से अपने जीवन में नहीं अपनाएं तो इसका कोई लाभ नहीं होने वाला है जैसे कालबूत (मिटटी) के कंगूरे देखते ही देखते ढह जाते हैं, उनका कोई अस्तित्व नहीं होता है, ऐसे ही कथनी का परिणाम होता है। भाव है की हम जो भी कहें उसे कर्म में परिनीत करना आवश्यक है अन्यथा उसका कोई महत्त्व नहीं होता है। भक्ति के लिए उल्लेखनीय है की जो भी ज्ञान की बातें हम कहते हैं सुनते हैं उन्हें अपने आचरण में उतारना बहुत ही आवश्यक है अन्यथा उनका कोई महत्त्व नहीं रहता है।


जैसी मुख तैं नीकसै, तैसी चालै चाल।
पारब्रह्म नेड़ा रहै, पल में करै निहाल॥

जैसी मुख से वाणी निकलती है वैसा ही यदि आचरण कर लिया जाए, जिन ज्ञान की बातों को हम कहते हैं यदि उनको करम में उतार लिया जाए तो पल भर में ही मुक्ति मिलती है और हरी के समीप पंहुच जाते हैं और परमब्रह्म पल भर में ही हमको निहाल कर देते हैं, क्षण भर में ही उसको निहाल कर देते हैं।

जैसी मुष तें नीकसै, तैसी चालै नाहिं।
मानिष नहीं ते स्वान गति, बाँध्या जमपुर जाँहिं॥
 
जैसा हम बोलते हैं और वैसा यदि आचरण नहीं करते हैं तो यह मनुष्य नहीं अपितु कुत्ते की गति के समान है/ वह मनुष्य कुत्ते के समान ही है और वह बांधकर यमलोक में ले जाया जाता है। भाव है की हमें हमारी कथनी और करनी में एकरूपता लानी चाहिए। ज्ञान की बाते सिर्फ बोलने के लिए नहीं है बल्कि अपने जीवन में उतारने के लिए हैं। दिखावा छोड़ कर आचरण की शुद्धता पर बल देना चाहिए। ज्ञान की बातें, धर्म की बातें, सत्य आधारित बातें करने में आसान हैं लेकिन अपने जीवन में उनका अनुसरण करना, अपने जीवन में उनको उतारना बहुत ही मुश्किल है। यदि कथनी और करनी में भेद समाप्त हो जाए तो हरी प्राप्ति बहुत ही आसान है।

पद गोएँ मन हरषियाँ, सापी कह्याँ अनंद।
सों तन नाँव न जाँणियाँ, गल मैं पड़िया फंध॥
 
ईश्वर की भक्ति के लिए व्यक्ति पद और साखियों को गाकर ऐसा महसूस करता है जैसे उसने सम्पूर्ण भक्ति कर ली है, ऐसे लोग तत्व को नहीं जानते हैं और उनके गले में काल का फंड पड़ा ही रहता है। भाव है की काल पास का फंद तभी छूटेगा जब व्यक्ति हृदय से हरी के नाम का सुमिरण करे। ऐसा नहीं है की मात्र पद या साखी को गा लेने/सुन लेने से ईश्वर की प्राप्ति हो जाए। ईश्वर की प्राप्ति के लिए तो उसने जो ज्ञान अर्जित किया है, जो गुरु ने बताया है उसे पाने जीवन में, आचरण में, व्यवहार में उतारना पड़ता है, अन्यथा वह काल की गति से बच नहीं सकता है।करता दीसै कीरतन, ऊँचा करि करि तूंड।
जाँणै बूझे कुछ नहीं, यौं ही आँधां रूंड॥

जो लोग दिखावे के लिए भक्ति करते है, सर को ऊँचा करके आलाप करते हैं वे ऐसे ही है जैसे मस्तक रहित रुण्ड हिल रहा हो, जो जानता कुछ भी नहीं हो। भाव है की भक्ति में दिखावे का कोई स्थान नहीं होता है, जो लोग दूसरों को दिखाने के उद्देश्य से भक्ति करते हैं वे ऐसे ही हैं जैसे मस्तक रहित धड जिसके पास कोई ज्ञान और चेतना नहीं होती है।

मैं जान्यूँ पढ़िबौ भलो, पढ़िवा थें भलो जोग।
राँम नाँम सूँ प्रीति करि, भल भल नींदी लोग॥

मैंने जाना है की वेदों को, शास्त्रों को या किताबी ज्ञान को पढना भली बात है लेकिन पढने से भी अच्छी बात है जोग धारण करना। हमें मात्र राम से प्रीत करनी है लोग चाहे कितनी भी निंदा करें, इससे हमें विचलित नहीं होना है।

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुवा, पंडित भया न कोइ।
एकै आषिर पीव का, पढ़ै सु पंडित होइ॥
 
किताबी ज्ञान को प्राप्त करने से कोई लाभ नहीं होने वाला है। किताबों और शास्त्रों को पढने से कोई पंडित नहीं होने वाला है, कोई ग्यानी नहीं बनता है। यदि एक अक्षर हरी के नाम का पढ़ लिया जाए तो वही पंडित होता है। भाव है की यदि आचरण में भक्ति नहीं है, हरी का नाम नहीं है तो महज किताबी ज्ञान से कोई लाभ नहीं होने वाला है, इसे पढ़कर कोई ग्यानी नहीं बन सकता है।

कबीर पढ़िया दूरि करि, आथि पढ़ा संसार।
पीड़ न उपजी प्रीति सूँ, तो क्यूँ करि करै पुकार॥

केवल कागजी ज्ञान से क्या लाभ होने वाला है, इसे पढने के बाद तो संसार समाप्त हो जाता है। जब तक प्रेम से कोई पीड़ा उत्पन्न नहीं होती है तो पुकार करने से भी क्या लाभ है। भाव है की जब तक हृदय से हरी के नाम का सुमिरण नहीं किया जाता है तब तक भक्ति का कोई लाभ नहीं होने वाला है।

कबिरा पढ़िबा दूरि करि, पुस्तक देइ बहाइ।
बांवन अषिर सोधि करि, ररै ममैं चित लाइ॥

साहेब की वाणी है की मात्र किताबी ज्ञान से कुछ भी प्राप्त नहीं होने वाला है, इसलिए सभी पुस्तकों को बहा दो, बावन अक्षरों में से मात्र दो अक्षर "र" और "म" पर ध्यान लगाओ जो राम की ओर संकेत करते हैं। भाव है की मात्र किताबी ज्ञान से कोई लाभ नहीं होने वाला है, आचरण में यदि राम को नहीं उतारा है तो कोई लाभ नहीं होगा।

कामणि काली नागणीं, तीन्यूँ लोक मँझारि।
राग सनेही, ऊबरे, बिषई खाये झारि॥

कामिनी नारी नागिन के समान होती है और यह तीनों लोक में विचरण करके लोगों को डसती रहती है, और इससे कोई स्नेही, राम भक्त ही उबर सकता है अन्य लोग जो विषय विकार में पड़े रहते हैं उनको यह अपना शिकार बना लेती है।

काँमणि मीनीं पाँणि की, जे छेड़ौं तौ खाइ।
जे हरि चरणाँ राचियाँ, तिनके निकटि न जाइ॥


स्त्री जो माया का प्रतिनिधित्व करती है वह मधुमक्खी की तरह से होती है जिसे छेड़ने पर वह काट खाती है, जिन लोगों से हरी के चरणों में अपना ध्यान लगा रखा होता है यह उनके पास नहीं जाती है। भाव है की जो व्यक्ति हरी को आधार बना लेते हैं, वे माया के भ्रम जाल में नहीं पड़ते हैं और अन्य लोगों को माया अपना शिकार बना लेती है।

परनारी राता फिरै, चोरी बिढता खाँहिं।
दिवस चारि सरसा रहै, अंति समूला जाँहिं॥

जो व्यक्ति पर स्त्री को अपना मानकर उससे स्नेह करता है और चोरी के धन पर आजीविका गुजारता है वह थोड़े दिनों तक भले ही समृद्ध नजर आ जाए लेकिन चार दिनों के उपरान्त वह समूल नष्ट हो जाता है।


⭐⭐⭐ कबीर के दोहे हिंदी में : सभी दोहे देखे All Kabir Ke Dohe Hindi Me
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