Manamohan Kaanha Vinatee Karoon Din Rain
Raah Take Mere Nain
Ab To Daras Dedo Kunj Bihaaree
Manava Hain Baichen
Neh Kee Doree Tum Sang Joree
Hamase To Nahin Jaavegee Todee
He Muralee Dhar Krshn Muraaree
Tanik Na Aave Chain
Raah Take Mere Nain,
मनमोहन कान्हा विनती करूं दिन रैन शब्दार्थ
मनमोहन - श्री कृष्ण / मोहन
कान्हा विनती करूं दिन रैन- श्री कृष्ण मैं विनती करती हूँ.
राह तके मेरे नैन-मेरे नयन श्री कृष्ण की बाट देख रहे हैं.
अब तो दरस दे दो कुञ्ज बिहारी-हे कृष्ण अब आप दर्शन दे दो.
मनवा हैं बैचेन- मेरा मन (मनवा) बेचैन हैं.
नेह की डोरी तुम संग जोरी-मैंने आपके (श्री कृष्ण ) जी आपसे स्नेह की डोर को जोड़ लिया है.
हमसे तो नहीं जावेगी तोड़ी-यह प्रेम की डोरी मुझसे तोड़ी नहीं जायेगी.
हे मुरली धर कृष्ण मुरारी- हे श्री कृष्ण (मुरली को होठों पर रखने वाले )
तनिक ना आवे चैन-थोडा बहुत चैन मिले.
राह तके मेरे नैन-मेरे नयन राह देख रहे हैं.
श्री कृष्ण जी से विनती करते हुए मीरा बाई कह रही हैं की हे श्री कृष्ण मैं आपकी राह देख रही हूँ. मेरे नयन आपके दरस की प्यासी हैं और आपकी राह देख रही हैं. मेरे नयन आपकी (श्री कृष्ण) सूरत देखने के लिए बेचैन हैं. मेरी आपसे प्रेम की डोरी जुड़ चुकी हैं जो मुझसे नहीं टूटेगी. मीरा बाई श्री कृष्ण जी को अपना सर्वस्व मानती हैं और श्री कृष्ण जी के दीदार के लिए बेचैन हैं. मीरा बाई ने ना केवल श्री कृष्ण जी की भक्ति की वरन अपने भावों को भजनों के रूप में भी प्रस्तुत किया. मीरा बाई के भजनों को नरसी का मायरा, गीत गोविन्द का टीका आदि ग्रंथों में संगृहीत किया गया है. मीरा बाई की भाषा शैली मिश्रित हैं. उल्लेखनीय है की मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन की कृष्ण भक्ति शाखा में मीरा बाई का नाम सगुण भक्ति धारा में प्रमुख है. मीरा बाई का सम्पूर्ण काव्य ही नारी का श्री कृष्ण जी के प्रति भक्ति भावना की दृढ समर्पित भाव है. भक्ति भाव के अतिरिक नारी की वेदना के प्रति विद्रोह भाव भी मीरा के काव्य में द्रष्टिगत होता है.
नहिं भावै थांरो देसड़लो जी रंगरूड़ो॥
थांरा देसा में राणा साध नहीं छै, लोग बसे सब कूड़ो।
गहणा गांठी राणा हम सब त्यागा, त्याग्यो कररो चूड़ो॥
काजल टीकी हम सब त्याग्या, त्याग्यो है बांधन जूड़ो।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर बर पायो छै रूड़ो॥
पग घूँघरू बाँध मीरा नाची रे।
मैं तो मेरे नारायण की आपहि हो गई दासी रे।
लोग कहै मीरा भई बावरी न्यात कहै कुलनासी रे॥
विष का प्याला राणाजी भेज्या पीवत मीरा हाँसी रे।
'मीरा' के प्रभु गिरिधर नागर सहज मिले अविनासी रे॥
पतीया मैं कैशी लीखूं, लीखये न जातरे॥
कलम धरत मेरा कर कांपत। नयनमों रड छायो॥
हमारी बीपत उद्धव देखी जात है। हरीसो कहूं वो जानत है॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। चरणकमल रहो छाये॥
पपइया रे, पिव की वाणि न बोल।
सुणि पावेली बिरहुणी रे, थारी रालेली पांख मरोड़॥
चोंच कटाऊं पपइया रे, ऊपर कालोर लूण।
पिव मेरा मैं पीव की रे, तू पिव कहै स कूण॥
थारा सबद सुहावणा रे, जो पिव मेंला आज।
चोंच मंढ़ाऊं थारी सोवनी रे, तू मेरे सिरताज॥
प्रीतम कूं पतियां लिखूं रे, कागा तू ले जाय।
जाइ प्रीतम जासूं यूं कहै रे, थांरि बिरहस धान न खाय॥
मीरा दासी व्याकुल रे, पिव पिव करत बिहाय।
बेगि मिलो प्रभु अंतरजामी, तुम विन रह्यौ न जाय॥