मीरा विष का प्याला पीगी रै भजन
पार उतर गई रे,
पार उतर गयी रे,
मीरा पार उतर गई रै,
मीरा विष का प्याला पी गी रै,
राम नाम डोर पकड़ फिर,
पार उतर गई रे।
राणो विष को प्यालो भेज्यो,
दे मीरा ने जाय।
राणो विष को प्यालो भेजियो,
दे मीरा ने जाय।
कर चरणामृत पी गई रे ,
थारी सहाय करी रघुनाथ,
विष को दूध बणायो रे,
राम नाम की बैठ जहाज में,
पार उतरगी रै।
मीरा विष का प्याला पी गी रै,
राम नाम डोर पकड़ फिर,
पार उतर गई रे।
सर्प पिटारो राणा ने भेज्यो,
दयो मीरा ने जाय,
सर्प पिटारो राणा ने भेज्यो,
दयो मीरा ने जाय,
मीरा बाई जद देखिया रे,
बण गया नोसर हार,
मीरा सफल कमाई कर गई रे,
राम नाम की बैठ जहाज में,
पार उतरगी रै।
शेर पिंजरा राणा ने भेज्या ,
देवो मीरा ने जाय,
शेर पिंजरा राणा ने भेज्या ,
देवो मीरा ने जाय,
मीरा बाई जद खोलिया रे,
बण गया सालिग्राम,
मीरा सफल कमाई कर गई रे,
राम नाम की बैठ जहाज में,
पार उतरगी रै।
बाई मीरा री विनती,
सुण ज्यो कृष्ण मुरार,
बाई मीरा री विनती,
सुण ज्यो कृष्ण मुरार,
मैं दासी हूँ चरना री,
दर्शन दीज्यो आय,
मीरा सफल कमाई कर गई रे,
राम नाम की बैठ जहाज में,
पार उतरगी रै।
मीरा विष का प्याला पी गी रै,
राम नाम डोर पकड़ फिर,
पार उतर गई रे,
पार उतर गयी रे,
मीरा पार उतर गई रै,
मीरा विष का प्याला पी गी रै,
राम नाम डोर पकड़ फिर,
पार उतर गई रे।
Meera vis ka pyala pigi re // मीरा विष का प्याला पिगी // New Rajasthani Bhajan // Pr Degana
भवानी साऊण्ड डेगाना - प्रो. प्रेमनाथ डेगाना 9413437754
मीरा बाई और राणा के बीच की कथा गाई गई है, जहाँ राणा उन्हें कृष्ण-भक्ति से रोकने के लिए बार-बार प्राणघातक षड्यंत्र करता है। मीरा को विष का प्याला भेजा जाता है, लेकिन मीरा उसे चरणामृत समझकर पी लेती हैं और प्रभु कृपा से वह दूध में बदल जाता है। सर्प से भरा हुआ पिटारा भेजा जाता है, परंतु जब मीरा उसे खोलती हैं तो वह सर्प सुंदर हार बन जाता है। राणा सिंह का पिंजरा भेजता है, किंतु सिंह उनके चरणों में पड़कर शालिग्राम भगवान का रूप धारण कर लेता है। इन सभी घटनाओं के माध्यम से यह भजन स्पष्ट करता है कि कृष्ण-भक्ति में दृढ़ रहने वाले भक्त को कोई भी विष, भय या बाधा हानि नहीं पहुँचा सकती।
मीरा विष का प्याला पीकर भी राम नाम की डोर थाम लेने के कारण पार उतर गईं। अर्थात कृष्ण-भक्ति ही जीवन-सागर से उबारने वाली नौका है। भजन के अंत में मीरा अपने प्रभु से प्रार्थना करती हैं—"मैं तो तुम्हारी दासी हूँ, हे श्रीकृष्ण! मुझे दर्शन दो।" इससे उनकी संपूर्ण भक्ति का सार प्रकट होता है—समर्पण, विश्वास और निष्काम प्रेम ही भक्ति की अंतिम मंज़िल है। जीवन की हर कठिन परीक्षा में, जब मनुष्य पूर्ण विश्वास और भक्ति के साथ उस परम शक्ति का आश्रय लेता है, तब कोई भी संकट उसे डिगा नहीं सकता। यह विश्वास एक ऐसी डोर है, जो मनुष्य को हर विषम परिस्थिति से पार कराती है। चाहे वह विष का प्याला हो, सर्प का भय हो, या शेर का सामना, यह भक्ति का बल ही है जो हर खतरे को शुभ और कल्याणकारी बना देता है। यह शक्ति मनुष्य के मन को इतना दृढ़ करती है कि वह हर कठिनाई को न केवल सहन करता है, बल्कि उसे एक दैवीय अवसर के रूप में देखता है। इस विश्वास के सहारे, मनुष्य जीवन के समुद्र को पार कर जाता है, और उसकी हर चुनौती एक सकारात्मक परिणाम में बदल जाती है, जो उसे आध्यात्मिक रूप से और भी समृद्ध बनाती है।
भक्ति का यह मार्ग मनुष्य को उस परम सत्ता के और करीब लाता है, जहाँ वह अपनी विनम्र प्रार्थना और समर्पण के माध्यम से दैवीय कृपा का अनुभव करता है। यह समर्पण उसे हर भय से मुक्त करता है और जीवन को एक ऐसी यात्रा बनाता है, जो प्रेम, विश्वास और आध्यात्मिक शांति से परिपूर्ण होती है। इस यात्रा में, हर बाधा एक सीढ़ी बन जाती है, जो मनुष्य को उसकी मंजिल की ओर ले जाती है। वह अपने हृदय में उस परम शक्ति के प्रति अटूट श्रद्धा रखता है, और यही श्रद्धा उसे हर संकट से उबारती है, उसे उस पार ले जाती है, जहाँ केवल शांति, सुख और दैवीय सान्निध्य होता है। यह भक्ति का बल ही है जो जीवन को एक सार्थक और पूर्ण यात्रा में बदल देता है।
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Author - Saroj Jangir
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