भगवान श्री धर्मनाथ जी जैन धर्म के पंद्रहवें तीर्थंकर थे। भगवान श्री धर्मनाथ जी का जन्म कार्तिक माह की पूर्णिमा हुआ था। भगवान श्री धर्मनाथ जी का जन्म श्रावस्ती नगरी में इक्ष्वाकु कुल में हुआ था। भगवान श्री धर्मनाथ जी के पिता का नाम भानु तथा माता का नाम सुव्रता देवी था। भगवान धर्मनाथ जी के शरीर का वर्ण स्वर्ण था। भगवान श्री धर्मनाथ जी का प्रतिक चिन्ह वज्र है। भगवान श्री धर्मनाथ जी ने माघ मास की शुक्ल पक्ष की त्रियोदशी तिथि को गृह त्याग कर दीक्षा ग्रहण की। भगवान श्री धर्मनाथजी को दीक्षा प्राप्ति के 1 वर्ष बाद पौष माह की पूर्णिमा को कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। भगवान श्री धरमनाथ जी को चैत्र माह की शुक्ल पक्ष की छठी तिथि को सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। भगवान श्री धर्मनाथ चालीसा पाठ करने से सभी सुखों की प्राप्ति होती है और सभी दुख दर्द दूर होते हैं।
उत्तम क्षमा आदि दस धर्मी, प्रगटे मूर्तिमान श्री धर्म। जग से हरण हरे सब अधर्म, शाश्वत सुरव दे प्रभुवर धर्म। नगर रत्नपुर के शासक थे, भूपति भानु प्रजापालक थे। महादेवी सुव्रता अभिन्न, पुत्र-अभाव से रहतीं खिन्न। 'प्राचेतस' मुनि अवधिलीन, मात-पिता को धीरज दीन। पुत्र तुम्हारे हों क्षेमकर, जग में कहलायें तीर्थंकर। धीरज हुआ दम्पति-मन मे, साधु-वचन हों सत्य जगत मे। 'मोह 'सुरम्य' विमान से तजकर, जननी उदर बसे प्रभु आकर। तत्क्षण सब देवों के परिकर, गर्भकल्याणक करें खुश होकर। तेरस माघ मास उजियारी, जन्मे तीन ज्ञान के धारी। तीन भुवन द्युति छाई न्यारी, सब ही जीवों को सुखकारी। माता को निद्रा में सुलाकर, लिया शची ने गोद में आकर। मेरु पर अभिषेक कराया, 'धर्मनाथ' शुभ नाम धराया। देख शिशु-सौन्दर्य अपार, किये इन्द्र ने नयन हजार। बीता बचपन यौवन आया, अद्भुत आकर्षक तन पाया। पिता ने तब युवराज बनाया, राज-काज उनको समझाया। चित्र श्रृंगारवती का लेकर, दूत सभा में बैठा आकर। स्वयंवर हेतु निमन्त्रण देकर, गया नाथ की स्वीकृति लेकर।
मित्र प्रभाकर को संग लेकर, कुण्डिनपुर को गए धर्म-वर। शृंगारवती ने वरा प्रभु को, पुष्पक यान पे आए घर को। मात-पिता करें हार्दिक प्यार, प्रजाजनों ने किया सत्कार। सर्वप्रिय था उनका शासन, नीति सहित करते प्रजापालन। उल्कापात देखकर एक दिन, भोग-विमुख हो गए श्री जिन। सुत 'सुधर्म' को सौंपा राज, शिविका में प्रभु गए विराज। चलते संग सहस नृपराज, गए शालवन में जिनराज। शुक्ल त्रयोदशी माघ महीना, सन्ध्या समय मुनि पदवी गहीना। दो दिन रहे ध्यान में लीना, दिव्य दीप्ति धरें वस्त्र विहीना। तीसरे दिन हेतु आहार, पाटलिपुत्र को हुआ विहार। अन्तराय बत्तीस निखार, धन्यसेन नप दें आहार। मौन अवस्था रहती प्रभु की, कठिनतपस्या एक वर्ष की। पूरणमासी पौष मास की, अनुभूति हुई दिव्याभास की। चतुर्निकाय के सुरगणआये, उत्सव ज्ञानकल्याण मनाये। समोशरण निर्माण कराये, अन्तरिक्ष में प्रभु पधराये। निरक्षरी कल्याणी वाणी, कर्णपुटों से पीतें प्राणी। जीव जगत में जानो अनन्त, पुद्गल तो है अनन्तानन्त। धर्म-अधर्म और नभ एक, काल समेत द्रव्य षट देख। रागमुक्त हो जाने रूप, शिवसुख उसको मिले अनूप। सुन कर बहुत हुए व्रतधारी, बहुतों ने जिन दीक्षाधारी। आर्यखण्ड में हआ विहार, भूमण्डल में धर्म प्रचार। गढ़ सम्मेद गए आखिर मे, लीन हुए निज अन्तरंग मे। शुक्लध्यान का हुआ प्रताप,
Chalisa Lyrics in Hindi,Jain Bhajan Lyrics Hindi
हुए अघाति-घात निष्पाप। नष्ट किए जग के सन्ताप, मुक्तिमहल में पहूंचे आप। ज्येष्ठ चतुर्थी शुक्ल पक्षवर, पूजा करे सुर कूट सुदत्तवर। लक्षण 'वज्रदण्ड' शुभ जान, हुआ धर्म से धर्म का 'मान'। जो प्रति दिन प्रभु के गुण गाते, 'अरुणा' वे भी शिवसुख पाते।
प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका चन्दनामती दोहा धर्मनाथ तीर्थेश को, वन्दूँ बारम्बार। धर्मध्यान को प्राप्त कर, हो जाऊँ भवपार।।१।। धर्मनाथ भगवान का, चालीसा सुखकार। पढ़ो सभी भव्यात्मा, करो आत्म उद्धार।।२।। चौपाई जय जय धर्मनाथ तीर्थंकर, जय जय धर्मधाम क्षेमंकर।।१।। जय इस युग के धर्म धुरन्धर, धर्मनाथ प्रभु विश्वहितंकर।।२।। पन्द्रहवें तीर्थंकर जिनवर, जिनशासन के तुम हो भास्कर।।३।। रत्नपुरी में जनमें प्रभुवर, रत्नों की वर्षा हुई सुखकर।।४।। भानुराज पितु मात सुप्रभा, भाग्य खिला था उन दोनों का।।५।। सित वैशाख सुतेरस के दिन, हुआ महोत्सव प्रभु गर्भागम।।६।। रत्नवृष्टि छह मास पूर्व से, होने लगी मात महलों में।।७।। धनकुबेर प्रतिदिन आते थे, रत्नवृष्टि कर हरषाते थे।।८।। माघ सुदी तेरस तिथि आई, तीन लोक में खुशियाँ छाईं।।९।। सौधर्मेन्द्र रतनपुरि आया, प्रभु का जन्मकल्याण मनाया।।१०।। ले गया प्रभु को पाण्डुशिला पर, किया जन्म अभिषेक प्रभू पर।।११।। क्षीरोदधि से जल भर लाये, सहस आठ कलशा ढुरवाये।।१२।। यह जन्मोत्सव देखा जिनने, अपना जन्म सफल किया उनने।।१३।। चारणमुनि भी गगन विहारी, अभिषव देख हुए खुश भारी।।१४।। सबने पुन: झुलाया पलना, उस क्षण का वर्णन क्या करना।।१५।। पालनहार पालना झूले, उन्हें देख सब निज दुख भूले।।१६।। बालक खेल-खेलने आते, प्रभु के संग फूले न समाते।।१७।। बालपने से युवा बने जब, मात-पिता ने ब्याह किया तब।।१८।। सद्गृहस्थ बन राज्य चलाया, आर्यखण्ड का मान बढ़ाया।।१९।। उल्कापात देख मन आया, तजूँ जगत की ममता माया।।२०।। अत: हृदय वैराग्य समाया, दीक्षा लेना मन में भाया।।२१।। स्वर्ग से लौकान्तिक सुर आये, प्रभु दीक्षाकल्याण मनायें।।२२।। जन्मतिथी ही दीक्षा धारी, माघ शुक्ल तेरस सुखकारी।।२३।। एक सहस राजा सह दीक्षित, हुए शालवन में प्रभु स्थित।।२४।। एक वर्ष के बाद उन्होंने, पौष शुक्ल पूर्णिमा तिथी में।।२५।। केवलज्ञान प्रभू ने पाया, समवसरण धनपति ने बनाया।।२६।। दिव्यध्वनि का पान कराया, भव्यों को शिवपथ बतलाया।।२७।। पुन: गये सम्मेदशिखर पर, योग निरोध किया तन सुस्थिर।।२८।। ज्येष्ठ सुदी सुचतुर्थी तिथि में, मोक्ष प्राप्तकर शिवपुर पहुँचे।।२९।।
इन्द्र मोक्षकल्याण मनाएँ, भस्म स्वर्गपुरि तक ले जाएं।।३०।। पंचकल्याणक युक्त जिनेश्वर, वन्दूँ धर्मनाथ परमेश्वर।।३१।। रत्नपुरी में चार कल्याणक, गर्भ जन्म तप ज्ञान कल्याणक।।३२।। गिरि सम्मेद मोक्षकल्याणक, सिद्धक्षेत्र कहलाता शाश्वत।।३३।। नमन करूँ इन तीरथद्वय को, धर्मनाथ तीर्थंकर प्रभु को।।३४।। शाश्वत तीर्थ अयोध्या जी के, निकट ही रत्नपुरी तीरथ है।।३५।। सार्थक नाम हुआ नगरी का, जुड़ा कथानक रत्नवृष्टि का।।३६।। सती मनोवति दर्शप्रतिज्ञा, रत्नपुरी में हुई पूर्णता।।३७।। देवों ने जिनमंदिर रचकर, गजमोती के पुंज भी रखकर।।३८।। मनोवती को दर्श कराया, नियम का चमत्कार दिखलाया।।३९।। उस तीरथ का वन्दन कर लो, अपने मन को पावन कर लो।।४०।।
चालीसा चालीस दिन, करो करावो भव्य। धर्मनाथ प्रभु पद नमन, कर पावो सुख नव्य।।१।। ज्ञानमती गणिनीप्रमुख, नाम जगत में ख्यात। उनकी शिष्या चन्दना-मती आर्यिका मात।।२।। रचा धर्मतीर्थेश का, चालीसा सुखकार। धर्मरुची प्रगटित करो, पढ़ो लहो सुखसार।।३।।
भगवान श्री धर्म नाथ जी का प्रभावशाली मंत्र
भगवान श्री धर्मनाथ जी चालीसा पाठ के साथ-साथ उनके प्रभावशाली मंत्र का पाठ करना भी अत्यंत लाभदायक होता है।
भगवान श्री धर्मनाथ जी का मंत्र: ॐ ह्रीं अर्हं श्री धर्मनाथाय नमः।
भगवान श्री धर्मनाथ जी की आरती
आरती कीजे प्रभु धर्मनाथ की, संकट मोचन जिन नाथ की -२ माघ सुदी का दिन था उत्तम, सुभद्रा घर जन्म लिया प्रभु। राजा भानु अति हर्षाये, इन्द्रो ने रत्न बरसाये। आरती कीजे प्रभु धर्मनाथ की, संकट मोचन जिन नाथ की।
युवावस्था में प्रभु आये, राज काज में मन न लगाये। झूठा सब संसार समझकर, राज त्याग के भाव जगाये। आरती कीजे प्रभु धर्मनाथ की, संकट मोचन जिन नाथ की।
घोर तपस्या लीन थे स्वामी, भूख प्यास की सुध नहीं जानी। पूरण शुक्ल पौष शुभ आयी, कर्म काट प्रभु ज्ञान उपाई। आरती कीजे प्रभु धर्मनाथ की, संकट मोचन जिन नाथ की।
भगवान श्री धर्मनाथ जीआरती
जय धर्म, करूणासिन्धू की मंगल दीप प्रजाल के मैं आज उतारूं आरतिया।
पन्द्रहवें तीर्थंकर जिनवर, धर्मनाथ सुखकारी। तिथि वैशाख सुदी तेरस, गर्भागम उत्सव भारी।। प्रभू गर्भागम उत्सव भारी, सुप्रभावती, माता हरषीं, पितु धन्य भानु महाराज थे, मैं आज उतारूँ आरतिया। जय धर्म, करूणासिन्धू की मंगल दीप प्रजाल के मैं आज उतारूं आरतिया।
रत्नपुरी में रत्न असंख्यों, बरसे प्रभु जब जन्मे। गिरि सुमेरु की पांडुशिला पर, इन्द्र न्हवन शुभ करते।। प्रभू जी इन्द्र, कर जन्मकल्याणक का उत्सव, महिमा गाएं जिननाथ की, मैं आज उतारूँ आरतिया।। जय धर्म, करूणासिन्धू की मंगल दीप प्रजाल के मैं आज उतारूं आरतिया। जय धर्म, करूणासिन्धू की मंगल दीप प्रजाल के मैं आज उतारूं आरतिया।
वैरागी हो जब प्रभु ने, दीक्षा की मन में ठानी। लौकान्तिक सुर स्तुति करके, कहें तुम्हें शिवगामी।। प्रभू जी कहें, कह सिद्ध नम:, दीक्षा धारी, मुनियों में श्रेष्ठ महान थे, मैं आज उतारूँ आरतिया। जय धर्म, करूणासिन्धू की मंगल दीप प्रजाल के मैं आज उतारूं आरतिया।
केवलज्ञान प्रगट होने पर, अर्हत् प्रभु कहलाए। द्वादश सभा रची सुर नर मुनि, ज्ञानामृत को पाएं।। प्रभू जी ज्ञानामृत को पाएं, केवलज्ञानी, अन्तर्यामी, कैवल्यरमापति नाथ की मैं आज उतारूँ आरतिया। जय धर्म, करूणासिन्धू की मंगल दीप प्रजाल के मैं आज उतारूं आरतिया।
ज्येष्ठ सुदी शुभ आई चतुर्थी, शिवपद प्राप्त किया था। श्री सम्मेदशिखर गिरिवर से, शिवपद प्राप्त किया था।। प्रभू जी शिवपद, चंदनामती तव चरण नती, कर पाऊँ सुख साम्राज्य भी मैं आज उतारूँ आरतिया। जय धर्म, करूणासिन्धू की मंगल दीप प्रजाल के मैं आज उतारूं आरतिया।