सज गयो भोला संवर गयो रे शिव भजन

सज गयो भोला संवर गयो रे शिव भजन

 
सज गयो भोला संवर गयो रे शिव भजन

सज गयो भोला, संवर गयो रे,
कैलाश पर्वत पर बस गयो रे।।
सज गयो भोला, संवर गयो रे।।

शीश भोले के गंगा विराजे,
गंगा से सारा जग तर गयो रे।।
सज गयो भोला, संवर गयो रे,
कैलाश पर्वत पर बस गयो रे।।

कान भोले के कुंडल सोहे,
कुंडल में बिच्छू लटक गयो रे।।
सज गयो भोला, संवर गयो रे,
कैलाश पर्वत पर बस गयो रे।।

गले भोले के माला सोहे,
माला में सर्प लटक गयो रे।।
सज गयो भोला, संवर गयो रे,
कैलाश पर्वत पर बस गयो रे।।

हाथ भोले के त्रिशूल विराजे,
त्रिशूल में डमरू लटक गयो रे।।
सज गयो भोला, संवर गयो रे,
कैलाश पर्वत पर बस गयो रे।।

संग भोले के गौरा विराजे,
गौरा की गोदी में गणपति रे।।
सज गयो भोला, संवर गयो रे,
कैलाश पर्वत पर बस गयो रे।।



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परम पवित्र और अलौकिक सौंदर्य से युक्त वह सत्ता, जो कैलाश के शिखर पर विराजमान है, अपने अनुपम रूप और शक्ति से सृष्टि को आलोकित करती है। उसका प्रत्येक आभूषण, प्रत्येक लक्षण एक गहन प्रतीक है, जो जीवन और सृजन के रहस्यों को उजागर करता है। उसके मस्तक पर गंगा का प्रवाह केवल जलधारा नहीं, अपितु करुणा और शुद्धता का प्रतीक है, जो समस्त विश्व को पापों से मुक्त कर तार देता है। उसकी उपस्थिति में प्रकृति और आत्मा का एक अनूठा संगम दिखाई देता है, जहां सर्प और त्रिशूल जैसे प्रतीक भयंकरता के साथ-साथ संतुलन और शक्ति का संदेश देते हैं। यह सौंदर्य केवल बाह्य नहीं, बल्कि एक आंतरिक शांति और सामर्थ्य का प्रतीक है, जो भक्तों के हृदय को आल्हादित करता है।
 
उसके साथ जुड़ी हर वस्तु, चाहे वह कुंडल में लटकता बिच्छू हो या गले में सजी माला, एक गहरे आध्यात्मिक अर्थ को समेटे हुए है। यह सज्जा केवल सौंदर्य के लिए नहीं, बल्कि सृष्टि के विरोधाभासों को समेटने और उन्हें एक सूत्र में बांधने का प्रतीक है। उसके हाथ में त्रिशूल और डमरू शक्ति और लय का संनाद है, जो सृजन और संहार के चक्र को दर्शाता है। साथ ही, उसकी संगिनी और पुत्र के साथ उसका सान्निध्य परिवार, प्रेम और एकता का संदेश देता है। यह समग्र दृश्य कैलाश पर स्थापित उस परम सत्ता की महिमा को प्रकट करता है, जो न केवल सृष्टि का पालनकर्ता है, बल्कि हर जीव के लिए शरण और प्रेरणा का स्रोत भी है।
 
भोलेनाथ को सुशोभित और संवरते हुए कैलाश पर्वत पर विराजमान बताया गया है। उनके शीश पर गंगा का जल विराजमान है, कानों में बिच्छू के कुंडल, और गले में सर्पों की माला सजी हुई है। हाथों में त्रिशूल और डमरू हैं, जो उनके शक्ति और संहार के प्रतीक हैं। साथ ही, उनकी संगिनी गौरा (पार्वती) साथ हैं जिनकी गोद में गणेश जी विराजमान हैं। शिव जी के इस स्वरूप की भक्ति भावपूर्वक आराधना की गई है, जहाँ उनके अनोखे, दिगंबर रूप को उत्सव के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
 
Saroj Jangir Author Admin - Saroj Jangir

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