श्री गणपति अथर्वशीर्ष पाठ महत्त्व लाभ

श्री गणपति अथर्वशीर्ष पाठ जानिये महत्त्व लाभ और जाप विधि

गणपति अथर्वशीर्ष के लाभ और पाठ विधि
भगवान श्रीगणेश को सबसे पहले पूजा जाने वाला देवता माना जाता है, जो सभी विघ्न-बाधाओं को नष्ट करने वाले हैं। बुधवार का दिन विशेष रूप से भगवान गणेश के पूजन के लिए समर्पित होता है। इस दिन गणपति का पूजन, स्तोत्र पाठ और मंत्रोच्चारण करने से व्यक्ति का जीवन सुखमय और समृद्ध होता है। गणपति अथर्वशीर्ष, जो भगवान गणेश की एक प्राचीन वैदिक प्रार्थना है, को प्रतिदिन पढ़ने से घर में सुख-शांति और जीवन में समृद्धि आती है। अब जानिए इसे किसे और कैसे करना चाहिए।

श्री गणपति अथर्वशीर्ष पाठ महत्त्व लाभ


किसे करना चाहिए गणपति अथर्वशीर्ष का पाठ
  • जिनकी कुंडली में राहु, केतु और शनि का अशुभ प्रभाव हो, उनके लिए यह पाठ बेहद लाभकारी है। ऐसे व्यक्तियों को प्रतिदिन गणपति अथर्वशीर्ष का पाठ करना चाहिए, क्योंकि इससे उनके दुख दूर होते हैं और जीवन में खुशहाली आती है।
  • यदि बच्चों और युवाओं का पढ़ाई में मन नहीं लग रहा या वे ध्यान केंद्रित नहीं कर पा रहे हैं, तो उन्हें यह पाठ नियमित रूप से करना चाहिए। इससे उनकी एकाग्रता बढ़ती है और पढ़ाई में सफलता मिलती है।
गणपति अथर्वशीर्ष के लाभ
  • गणपति अथर्वशीर्ष का नियमित पाठ करने से अशुभ ग्रहों का असर शांत होता है और भाग्य के कारक ग्रह शक्तिशाली होते हैं।
  • इस पाठ से मानसिक शांति मिलती है और आत्मविश्वास में वृद्धि होती है। इससे व्यक्ति के दिमाग में स्थिरता बनी रहती है और वह सही निर्णय लेने में सक्षम होता है।
  • रोजाना यह पाठ करने से जीवन में स्थिरता आती है। कामों में आ रही रुकावटें दूर होती हैं और बिगड़े काम सही रास्ते पर चलने लगते हैं।
  • कैसे करें गणपति अथर्वशीर्ष का पाठ
  • गणपति अथर्वशीर्ष का पाठ करने के लिए सबसे पहले स्नान आदि करके पूजा घर में कुशा के आसन पर बैठें और शांत मन से इसे पढ़ें। विशेष रूप से संकष्टी चतुर्थी जैसे गणेश के विशेष दिन पर शाम के समय 21 बार इस पाठ का उच्चारण करें, इससे आपको दोगुना लाभ मिलता है।

श्री गणपति अथर्वशीर्ष:
ॐ नमस्ते गणपतये।
त्वमेव प्रत्यक्षं तत्वमसि,
त्वमेव केवलं कर्ताऽसि,
त्वमेव केवलं धर्ताऽसि,
त्वमेव केवलं हर्ताऽसि,
त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि,
त्व साक्षादात्माऽसि नित्यम्।

ऋतं वच्मि,
सत्यं वच्मि।

अव त्व मां,
अव वक्तारं,
अव श्रोतारं,
अव दातारं,
अव धातारं,
अवानूचानमव शिष्यं,
अव पश्चातात,
अव पुरस्तात,
अवोत्तरात्तात,
अव दक्षिणात्तात्,
अवचोर्ध्वात्तात्,
अवाधरात्तात्,
सर्वतो मां,
पाहि-पाहि समंतात्।

त्वं वाङ्‍मयस्त्वं चिन्मय:,
त्वमानंदमसयस्त्वं ब्रह्ममय:,
त्वं सच्चिदानंदाद्वितीयोऽसि,
त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मासि,
त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोऽसि।

सर्वं जगदिदं त्वत्तो जायते,
सर्वं जगदिदं त्वत्तस्तिष्ठति,
सर्वं जगदिदं त्वयि लयमेष्यति,
सर्वं जगदिदं त्वयि प्रत्येति,
त्वं भूमिरापोऽनलोऽनिलो नभ:,
त्वं चत्वारिवाक्पदानि।

त्वं गुणत्रयातीत:,
त्वमवस्थात्रयातीत:,
त्वं देहत्रयातीत:,
त्वं कालत्रयातीत:,
त्वं मूलाधारस्थितोऽसि नित्यं,
त्वं शक्तित्रयात्मक:,
त्वां योगिनो ध्यायंति नित्यं,
त्वं ब्रह्मा त्वं विष्णुस्त्वं,
रूद्रस्त्वं इंद्रस्त्वं अग्निस्त्वं,
वायुस्त्वं सूर्यस्त्वं चंद्रमास्त्वं,
ब्रह्मभूर्भुव:स्वरोम्।

गणादि पूर्वमुच्चार्य,
वर्णादिं तदनंतरं,
अनुस्वार: परतर:,
अर्धेन्दुलसितं,
तारेण ऋद्धं,
एतत्तव मनुस्वरूपं,
गकार: पूर्वरूपं,
अकारो मध्यमरूपं,
अनुस्वारश्चान्त्यरूपं,
बिन्दुरूत्तररूपं,
नाद: संधानं,
सं हितासंधि:,
सैषा गणेश विद्या,
गणकऋषि:
निचृद्गायत्रीच्छंद:,
गणपतिर्देवता,
ॐ गं गणपतये नम:।

एकदंताय विद्‍महे,
वक्रतुण्डाय धीमहि,
तन्नो दंती प्रचोदयात।

एकदंतं चतुर्हस्तं,
पाशमंकुशधारिणम्,
रदं च वरदं हस्तैर्विभ्राणं,
मूषकध्वजम्,
रक्तं लंबोदरं शूर्पकर्णकं,
रक्तवाससम्,
रक्तगंधाऽनुलिप्तांगं,
रक्तपुष्पै: सुपुजितम्,
भक्तानुकंपिनं देवं,
जगत्कारणमच्युतम्,
आविर्भूतं च सृष्टयादौ,
प्रकृ‍ते पुरुषात्परम्,
एवं ध्यायति यो नित्यं स,
योगी योगिनां वर:।

नमो व्रातपतये,
नमो गणपतये,
नम: प्रमथपतये,
नमस्तेऽस्तु,
लंबोदरायैकदंताय,
विघ्ननाशिने शिवसुताय,
श्रीवरदमूर्तये नमो नम:।

एतदथर्वशीर्ष योऽधीते,
स ब्रह्मभूयाय कल्पते,
स सर्व विघ्नैर्नबाध्यते,
स सर्वत: सुखमेधते,
स पञ्चमहापापात्प्रमुच्यते।

सायमधीयानो दिवसकृतं,
पापं नाशयति,
प्रातरधीयानो रात्रिकृतं,
पापं नाशयति,
सायंप्रात:
प्रयुंजानोऽपापो भवति,
सर्वत्राधीयानोऽपविघ्नो,
भवति,
धर्मार्थकाममोक्षं च विंदति।

इदमथर्वशीर्षम,
शिष्याय न देयम्,
यो यदि मोहाद्‍दास्यति स,
पापीयान् भवति,
सहस्रावर्तनात् यं यं,
काममधीते तं,
तमनेन साधयेत्।

अनेन गणपतिमभिषिंचति,
स वाग्मी भवति,
चतुर्थ्यामनश्र्नन जपति,
स विद्यावान भवति,
इत्यथर्वणवाक्यं,
ब्रह्माद्यावरणं विद्यात्,
न बिभेति कदाचनेति।

यो दूर्वांकुरैंर्यजति,
स वैश्रवणोपमो भवति,
यो लाजैर्यजति स,
यशोवान भवति,
स मेधावान भवति,
यो मोदकसहस्रेण यजति,
स वाञ्छित फलमवाप्रोति,
य: साज्यसमिद्भिर्यजति,
स सर्वं लभते स,
सर्वं लभते।

अष्टौ ब्राह्मणान्,
सम्यग्ग्राहयित्वा,
सूर्यवर्चस्वी भवति,
सूर्यग्रहे महानद्यां,
प्रतिमासंनिधौ,
वा जप्त्वा सिद्धमंत्रों भवति,
महाविघ्नात्प्रमुच्यते,
महादोषात्प्रमुच्यते,
महापापात् प्रमुच्यते,
स सर्वविद्भवति,
से सर्वविद्भवति,
य एवं वेद इत्युपनिषद।

अथर्ववेदीय,
गणपतिउपनिषद,
समाप्त।

मंत्र:
ॐ सहनाव वतु सहनो,
भुनक्तु सहवीर्यंकरवावहे,
तेजस्वी नावधितमस्तु,
मा विद्विषामहे।
 

श्री गणपति अथर्वशीर्ष में गणेशजी को सृष्टि का आधार बताया गया है, जो सत्य, आनंद और ब्रह्म का स्वरूप हैं। वे हर कार्य के कर्ता, धर्ता और हर्ता हैं, जैसे सूरज की किरणें अंधेरे को चीर देती हैं। भक्त उनकी शरण में हर दिशा से रक्षा माँगता है, जैसे कोई तूफान में मजबूत आश्रय की तलाश करता है।
गणेशजी वाणी, चेतना और ज्ञान के सागर हैं। सारा जगत उनसे उत्पन्न होता है, उनमें ही टिका है और उनमें ही समा जाता है। वे प्रकृति और पुरुष से परे, समय और अवस्थाओं से अछूते हैं। मूलाधार में उनकी सदा स्थिति है, जैसे नींव बिना इमारत अधूरी हो। योगी उनका ध्यान करते हैं, क्योंकि वे ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र और सूर्य-चंद्रमा का रूप हैं।
भजन में गौरा माँ के लाल को घर बुलाने की पुकार है। एकदंत, वक्रतुंड, लंबोदर गणेशजी का रक्तवर्ण स्वरूप मन मोह लेता है, जैसे फूलों की सुगंध हृदय को खींचती है। वे भक्तों पर कृपा करते हैं, विघ्न हरते हैं और सुख बिखेरते हैं। अथर्वशीर्ष का पाठ जीवन को पापों से मुक्त करता है, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष देता है। जो भक्त दूर्वा, लाज, मोदक से उनकी पूजा करता है, उसे यश, विद्या और मनचाहा फल मिलता है। 

Ganpati Atharvashirsha By Anuradha Paudwal 
Album Name: Ganesh Stuti
Singer: Anuradha Paudwal
Author: Traditional 


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