कहाँ से आया कहाँ जाओगे हिंदी मीनिंग Kaha Se Aaya Kaha Jaoge Meaning

कहाँ से आया कहाँ जाओगे हिंदी मीनिंग Kaha Se Aaya Kaha Jaoge Meaning


कहाँ से आया कहाँ जाओगे,
खबर करो अपने तन की।
कोई सदगुरु मिले तो भेद बतावें,
खुल जावे अंतर खिड़की।
Kaha Se Aaya Kaha Jaoge,
Khabar Karo Apne Tan Ki,
Koi Sadguru Mile To Bhed Batave,
Khul Jave Antar Khidaki.
 
साधक विचार करता है की उसका उद्गम क्या है, वह कहाँ से आया है और उसे कहाँ पर जाना है ? यह अनुत्तरित प्रश्न  उसे उद्वेलित करता है। कबीर साहेब भी इस विषय पर जीव को जागृत करते हैं की उन्हें इन प्रश्नों का उत्तर सद्गुरु के सानिध्य से ही प्राप्त होगा। सद्गुरु के ज्ञान के आधार पर ही उसके आत्मा के द्वार खुलते हैं। अतः सन्देश है की सभी प्रश्नों का उत्तर आत्म विशेलषण से ही प्राप्त किया जा सकता है और सद्गुरु ही उसके अन्तःकर्ण की खिड़की को खोलता है। प्रश्न "जीव कहाँ से आया है और कहाँ जाएगा?" हिन्दू धर्म में, आत्मा को अमर और अविनाशी माना जाता है। जीव का संसार में आगमन और पुनर्जन्म का सिद्धांत है, जिसके अनुसार जीव अजर आत्मा है जो देह को धारण करके जन्म-मरण के चक्र में फंसा रहता है। यहाँ तक कि उपनिषदों में भी उल्लेख है कि आत्मा अविनाशी है।
 
कहाँ से आया कहाँ जाओगे हिंदी मीनिंग Kaha Se Aaya Kaha Jaoge Meaning

 
इसी तरह, बौद्ध धर्म में भी पुनर्जन्म का सिद्धांत है, लेकिन उनकी दृष्टि से आत्मा को अनित्य और अनात्मन् माना जाता है। इस्लाम और ईसाई धर्मों में, आत्मा को नष्ट होने वाले नश्वर है और मनुष्य का आखिरी जीवन यहाँ ही समाप्त होता है, जिसके बाद उसका आत्मा जन्नत या नरक में जाता है, आत्मा की मान्यता है।

हिन्दू मुस्लिम दोनों भुलाने
खटपट मांय रिया अटकी
जोगी जंगम शेख सेवड़ा
लालच मांय रिया भटकी
कहाँ से आया कहाँ जाओगे।
 
साहेब का सन्देश है की भले ही हिन्दू हों या मुस्लिम दोनों ही अपने उद्देश्य को भुला बैठे हैं। वे माया के भ्रम में पड़कर हरी सुमिरण को विस्मृत कर बैठे हैं। उन्हें कोई सत्य की राह बताने वाला कोई नहीं है। पंडित, मौलवी, योगी और फ़क़ीर आदि भी माया में ही लिप्त हैं। अतः साधारण लोगों को कोई राह बताने वाला नहीं है। साहेब पुनः आगाह करते हैं की जीव तुम कहाँ से आये हो और कहाँ जाओगे, इसकी खबर करो ?
 
काज़ी बैठा कुरान बांचे
ज़मीन बो रहो करकट की
हर दम साहेब नहीं पहचाना
पकड़ा मुर्गी ले पटकी
कहाँ से आया कहाँ जाओगे।

इस्लाम धर्म के विषय में कबीर साहेब कहते हैं की काजी कुरान को पढ़ रहा है लेकिन वह उसे अमल में नहीं ले पा रहा है। वह करकट की ही जमीन को सींच रहा है, उसने ईश्वर के वास्तविक रूप को नहीं पहचाना है। ऐसे में वह मुर्गा/मुर्गी, बकरा को पकड़ता है और उसे मार कर खा जाते हैं। यह धर्म के अनुसार सही नहीं है। साहेब ने कर्मकांड का विरोध कर सन्देश दिया है की मानवता और सत्य ही धर्म है। धर्म के नाम पर जीव हत्या अनुचित है। साहेब के विचार धार्मिक और आध्यात्मिक जीवन में दया, समर्पण और सभी जीवों के प्रति सहानुभूति के महत्व को उजागर करते हैं और सद्गुरु के महत्त्व और सभी जीवों के प्रति मानवीय होने को भी उजागर करते हैं।
काजी और मौलवी (मुल्ला) के विचारों में सत्य और विश्वास की कमी दिखाई देती है। हर जीव के अंदर परमात्मा का निवास है और सभी परमात्मा की ही संतान हैं। इसी प्रकार, वे जीवहत्या की घोर निंदा करते हैं, क्योंकि हर जीव में परमात्मा का अंश देखते हैं।
 
बाहर बैठा ध्यान लगावे
भीतर सुरता रही अटकी
बाहर बंदा, भीतर गन्दा
मन मैल मछली गटकी
पकड़ा मुर्गी ले पटकी
कहाँ से आया कहाँ जाओगे
जप तप को भी कबीर साहेब भक्ति का कोई माध्यम नहीं मानते हैं। यह सभी क्रियाएं बाह्य हैं जबकि साहेब के अनुसार सच्ची भक्ति हृदय से ही सम्भव हो पाती है। जप तप करके हम अपने ही शरीर को कष्ट में डालते हैं इससे ईश्वर प्राप्ति का कोई लेना देना नहीं होता है। आत्मा तो माया के जाल में फंसी हुई है और नित्य ही माया पर ही विचार करती रहती है। ऐसे में बाह्य और आंतरिक का मेल कैसे संभव हो सकता है ? बाहर से वह सज्जन दिखाई देता है और अंदर से वह गन्दा ही है, तमाम तरह के विषयों से जकड़ा हुआ है। मन के दूषित होने पर मछली गटकने जैसा ही होता है और वह मुर्गी को मारकर खा जाता है।
 
माला मुद्रा तिलक छापा
तीरथ बरत में रिया भटकी
गावे बजावे लोक रिझावे
खबर नहीं अपने तन की
कहाँ से आया कहाँ जाओगे।
धार्मिक आडंबर / कर्मकांड का भी हरी सुमिरन से कोई सम्बन्ध नहीं है। माला को धारण करने से, तिलक को लगाने से कोई लाभ नहीं होते वाला। तीर्थ, व्रत (उपवास) आदि करके जीव की आत्मा इनमें ही भटकती रहती है। गाकर/बजाकर लोगों को खुश करता है लेकिन उसे भी अपने तन की खबर नहीं है।

कबीर साहब के मतानुसार माला पहनने, तिलक लगाने, व्रत रहने और तीर्थ करने भर से जीव का आध्यात्मिक कल्याण नहीं होगा. इसी तरह से जो लोग धार्मिक कथाएं सुनाते हैं, भजन गाकर, नाचकर लोंगो को रिझातें हैं, वो भी आम जनता को आत्मिक कल्याण का उचित सन्मार्ग नहीं दिखाते हैं. कबीर साहब कहते हैं कि ज्ञानी और सच्चे साधू वो हैं, जो शरीर को ही मंदिर-मस्जिद मानते हैं और अपने शरीर के भीतर ही परमात्मा को ढूंढने की कोशिश करते हैं. जो अपनी देह के भीतर ईश्वर का दर्शन कर लेता है, उसका जीवन धन्य, सार्थक व सफल हो जाता है. स्पष्ट है कि केवल बाहरी आचरणों से आत्मिक कल्याण संभव नहीं है।
 
बिना विवेक से गीता बांचे
चेतन को लगी नहीं चटकी
कहें कबीर सुनो भाई साधो
आवागमन में रिया भटकी
कहाँ से आया कहाँ जाओगे।

मन विषय विकारों में घिरा पड़ा है और जीव विवेक के अभाव में यदि गीता का पाठ करता है तो इसका क्या फायदा, कुछ नहीं। चेतना प्राप्त करना आवश्यक है और यही विवेक है। चेतना को चटकी (झटका) नहीं लगी है, वह जाग्रत नहीं है, यही कारण है की वह आवागमन (जन्म मरण) में भटक रही है।
 
 
 

 
'Kahaan Se Aaya Kahaan Jaaoge?' by Prahlad Tipanya
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