संत मिलन को जाइये, दुर्लभ मानुषो देहो, देहीनां क्षणभंगुरः, तत्रापि दुर्लभं मन्ये, वैकुण्ठप्रियदर्शनम्।
मनुष्य-देह मिलना दुर्लभ है, वह मिल जाय फिर भी क्षणभंगुर है, ऐसी क्षणभंगुर मनुष्य-देह में भी, भगवान के प्रिय संतजनों का, दर्शन तो उससे भी अधिक दुर्लभ है।
हे नारद कभी मैं वैकुण्ठ में भी, नहीं रहता योगियों के हृदय का भी, उल्लंघन कर जाता हूँ, परंतु जहाँ मेरे प्रेमी भक्त, मेरे गुणों का गान करते हैं, वहाँ मैं अवश्य रहता हूँ।
कबीर सोई दिन भला, जो दिन साधु मिलाय, अंक भरै भरि भेंटिये, पाप शरीरां जाय,
कबीर दरशन साधु के, बड़े भाग दरशाय, जो होवै सूली सजा, काटै ई टरी जाय, दरशन कीजै साधु का, दिन में कई कई बार, आसोजा का मेह ज्यों, बहुत करै उपकार।
कई बार नहीं कर सकै, दोय बखत करि लेय, कबीर साधू दरस ते, काल दगा नहीं देय, दोय बखत नहीं करि सकै, दिन में करु इक बार, कबीर साधु दरस ते, उतरे भौ जल पार।
दूजै दिन नहीं कर सकै, तीजै दिन करू जाय, कबीर साधू दरस ते, मोक्ष मुक्ति फल जाय, तीजै चौथे नहीं करै, सातैं दिन करु जाय, या में विलंब न कीजिये, कहै कबीर समुझाय।
सातैं दिन नहीं करि सकै, पाख पाख करि लेय, कहै कबीर सो भक्तजन, जनम सुफल करि लेय।
Guru Bhajan
पाख पाख नहीं करि सकै, मास मास करु जाय, ता में देर न लाइये कहै, कबीर समुझाय।
मात पिता सुत इस्तरी, आलस बंधु कानि, साधु दरस को जब चलै, ये अटकावै खानि।
इन अटकाया ना रहै, साधू दरस को जाय, कबीर सोई संतजन, मोक्ष मुक्ति फल पाय।
साधु चलत रो दीजिये, कीजै अति सनमान, कहै कबीर कछु भेंट धरूँ, अपने बित अनुमान।
तरुवर सरोवर संतजन, चौथा बरसे मेह, परमारथ के कारणे, चारों धरिया देह।
संत मिलन को जाइये, तजी मोह माया अभिमान, ज्यों ज्यों पग आगे, धरे कोटि यज्ञ समान।
तुलसी इस संसार में, भाँति भाँति के लोग,
हिलिये मिलिये प्रेम सों, नदी नाव संयोग।
चल स्वरूप जोबन सुचल, चल वैभव चल देह, चलाचली के वक्त में, भलाभली कर लेह।
सुखी सुखी हम सब कहें, सुखमय जानत नाँही, सुख स्वरूप आतम अमर, जो जाने सुख पाँहि।
सुमिरन ऐसा कीजिये, खरे निशाने चोट, मन ईश्वर में लीन हो, हले न जिह्वा होठ।
दुनिया कहे मैं दुरंगी, पल में पलटी जाऊँ, सुख में जो सोये रहे, वा को दुःखी बनाऊँ।
माला श्वासोच्छ्वास की, भगत जगत के बीच, जो फेरे सो गुरुमुखी, ना फेरे सो नीच।
अरब खऱब लों धन मिले, उदय अस्त लों राज, तुलसी हरि के भजन बिन, सबे नरक को साज।
साधु सेव जा घर नहीं, सतगुरु पूजा नाँही, सो घर मरघट जानिये, भूत बसै तेहि माँहि।
निराकार निज रूप है, प्रेम प्रीति सों सेव, जो चाहे आकार को, साधू परतछ देव।
साधू आवत देखि के, चरणौ लागौ धाय, क्या जानौ इस भेष में, हरि आपै मिल जाय।
साधू आवत देख करि, हसि हमारी देह, माथा का ग्रह उतरा, नैनन बढ़ा सनेह।
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