प्रभु के प्रति प्रेम ऐसी तड़प है, जो हर रूप में बस उनके निकट पहुँचने की चाह रखता है। मन कहता है, काश मैं बाँस की वह मुरली बन जाऊँ, जो प्रभु के अधरों को स्पर्श करे। यह इच्छा केवल निकटता की नहीं, बल्कि उस संगीत का हिस्सा बनने की है, जो मनमोहन की साँसों से निकलता है। जैसे मुरली कटकर भी पूर्ण हो जाती है, वैसे ही भक्त का हृदय समर्पण में पूर्णता पाता है।
यदि फूल बनूँ, तो चमन का वह पुष्प, जो माला बनकर प्रभु के हृदय से लगे। यह प्रेम का ऐसा बंधन है, जो सुगंध बनकर उनके चारों ओर बिखर जाए। जैसे फूल अपनी सुंदरता को माला में समर्पित कर देता है, वैसे ही भक्त अपनी हर साँस प्रभु को अर्पित करना चाहता है।
और यदि गगन की धूल बनूँ, तो वह धूल जो वृंदावन की ओर उड़े और प्रभु के चरणों से लिपट जाए। यह वह तुच्छता है, जो प्रभु के स्पर्श से पवित्र हो जाती है। एक संत का भाव है कि प्रभु का चरण ही जीवन का अंतिम आश्रय है। एक चिंतक देखता है कि यह धूल भी प्रेम की उड़ान है, जो दूरी को मिटा देती है। और एक धर्मगुरु सिखाता है कि सच्चा भक्त वही, जो अपने अहं को धूल कर प्रभु में लीन हो जाए।
प्रभु का प्रेमी हर रूप में बस एक ही चाह रखता है—उनके और करीब होना। चाहे मुरली बनकर, माला बनकर, या धूल बनकर, वह हर हाल में प्रभु के चरणों में स्थान पाना चाहता है। यह प्रेम की वह पुकार है, जो मनमोहन के बिना अधूरी है।
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