श्री मन नारायण नारायण हरि हरि
वर्षों तक वन में घूम घूम,
बाधा विघ्नों को चूम चूम,
सह धूप घाम पानी पत्थर,
पांडव आये कुछ और निखर,
सौभाग्य ना सब दिन सोता है,
देखें आगे क्या होता है।
मैत्री की राह बताने को,
सबको सुमार्ग पर लाने को,
दुर्योधन को समझाने को,
भीषण विध्वंस बचाने को,
भगवान हस्तिनापुर आये,
पांडव का संदेशा लाये।
दो न्याय अगर तो आधा दो,
पर इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम,
रक्खो अपनी धरती तमाम,
हम वहीं खुशी से खायेंगे,
परिजन पर असि न उठायेंगे।
दुर्योधन वह भी दे ना सका,
आशीष समाज की ले न सका,
उलटे हरि को बाँधने चला,
जो था असाध्य साधने चला,
जब नाश मनुज पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।
हरि ने भीषण हुंकार किया,
अपना स्वरूप विस्तार किया,
डगमग डगमग दिग्गज डोले,
भगवान कुपित होकर बोले
जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,
हाँ हाँ दुर्योधन बाँध मुझे।
अलख निरंजन भव भय भंजन,
जनम निरंजन दाता,
जनम निरंजन दाता,
संकट मिटे है क्षण में उसके,
हो नर तुमको ध्याता है,
हो नर तुमको ध्याता है,
श्री मन नारायण नारायण हरि हरि
भज मन नारायण नारायण हरि हरि।
यह देख गगन मुझमें लय है,
यह देख पवन मुझमें लय है,
मुझमें विलीन झंकार सकल,
मुझमें लय है संसार सकल,
अमरत्व फूलता है मुझमें,
संहार झूलता है मुझमें।
उदयाचल मेरा दीप्त भाल,
भूमंडल वक्षस्थल विशाल,
भुज परिधि बन्ध को घेरे हैं,
मैनाक मेरु पग मेरे हैं,
दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर,
सब हैं मेरे मुख के अन्दर।
दृग हों तो दृश्य अखण्ड देख,
मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख,
चर-अचर जीव जग क्षर-अक्षर,
नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर,
शत कोटि सूर्य शत कोटि चन्द्र,
शत कोटि सरित सर सिन्धु मन्द्र।
शत कोटि विष्णु ब्रह्मा महेश,
शत कोटि जिष्णु जलपति धनेश,
शत कोटि रुद्र शत कोटि काल,
शत कोटि दण्डधर लोकपाल,
जञ्जीर बढ़ाकर साध इन्हें,
हाँ हाँ दुर्योधन बाँध इन्हें।
अलख निरंजन भव भय भंजन,
जनम निरंजन दाता,
जनम निरंजन दाता,
रखते चरण में अपने भगत को,
मन निर्मल हो जाता,
श्री मन नारायण नारायण हरि हरि,
भज मन नारायण नारायण हरि हरि।
भूलोक अतल पाताल देख,
गत और अनागत काल देख,
यह देख जगत का आदि सृजन,
यह देख महाभारत का रण,
मृतकों से पटी हुई भू है,
पहचान इसमें कहाँ तू है।
अम्बर में कुन्तल जाल देख,
पद के नीचे पाताल देख,
मुट्ठी में तीनों काल देख,
मेरा स्वरूप विकराल देख,
सब जन्म मुझी से पाते हैं,
फिर लौट मुझी में आते हैं।
जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन,
साँसों में पाता जन्म पवन,
पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर,
हँसने लगती है सृष्टि उधर,
मैं जभी मूँदता हूँ लोचन,
छा जाता चारों ओर मरण।
बाँधने मुझे तो आया है,
जंजीर बड़ी क्या लाया है,
यदि मुझे बाँधना चाहे मन,
पहले तो बाँध अनन्त गगन,
सूने को साध न सकता है,
वह मुझे बाँध कब सकता है।
अलख निरंजन भव भय भंजन,
जनम निरंजन दाता,
जनम निरंजन दाता,
चक्र गदा कर कमल धरे,
देखत मन अति सुख पाता,
देखत मन अति सुख पाता,
श्री मन नारायण नारायण हरि हरि,
भज मन नारायण नारायण हरि हरि।
हित वचन नहीं तूने माना,
मैत्री का मूल्य न पहचाना,
तो ले मैं भी अब जाता हूँ,
अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ,
याचना नहीं अब रण होगा,
जीवन जय या कि मरण होगा।
टकरायेंगे नक्षत्र निकर,
बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर,
फण शेषनाग का डोलेगा,
विकराल काल मुँह खोलेगा,
दुर्योधन रण ऐसा होगा,
फिर कभी नहीं जैसा होगा।
भाई पर भाई टूटेंगे,
विष बाण बूँद से छूटेंगे,
वायस श्रृगाल सुख लूटेंगे,
सौभाग्य मनुज के फूटेंगे,
आखिर तू भूशायी होगा,
हिंसा का पर दायी होगा।
थी सभा सन्न सब लोग डरे,
चुप थे या थे बेहोश पड़े,
केवल दो नर ना अघाते थे,
धृतराष्ट्र विदुर सुख पाते थे,
कर जोड़ खड़े प्रमुदित,
निर्भय दोनों पुकारते थे जय जय।
Agam - Krishna Ki Chetavani (Rashmirathi) | Shreeman Narayan Narayan Hari Hari | Krishna Bhajan
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