अस कौतुक बिलोकि द्वौ भाई लंका काण्ड

अस कौतुक बिलोकि द्वौ भाई लंका काण्ड

अस कौतुक बिलोकि द्वौ भाई। बिहँसि चले कृपाल रघुराई।।
सेन सहित उतरे रघुबीरा। कहि न जाइ कपि जूथप भीरा।।
सिंधु पार प्रभु डेरा कीन्हा। सकल कपिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा।।
खाहु जाइ फल मूल सुहाए। सुनत भालु कपि जहँ तहँ धाए।।
सब तरु फरे राम हित लागी। रितु अरु कुरितु काल गति त्यागी।।
खाहिं मधुर फल बटप हलावहिं। लंका सन्मुख सिखर चलावहिं।।
जहँ कहुँ फिरत निसाचर पावहिं। घेरि सकल बहु नाच नचावहिं।।
दसनन्हि काटि नासिका काना। कहि प्रभु सुजसु देहिं तब जाना।।
जिन्ह कर नासा कान निपाता। तिन्ह रावनहि कही सब बाता।।
सुनत श्रवन बारिधि बंधाना। दस मुख बोलि उठा अकुलाना।।
दो0-बांध्यो बननिधि नीरनिधि जलधि सिंधु बारीस।
सत्य तोयनिधि कंपति उदधि पयोधि नदीस।।5।।
 
इस प्रसंग में राम और लक्ष्मण की सहजता, भक्तों के प्रति उनकी कृपा, और वानरों का उत्साहपूर्ण समर्पण एक मनोहारी चित्र प्रस्तुत करता है। राम का हँसते हुए सेना के साथ समुद्र तट पर डेरा डालना उनकी लीलामय प्रकृति को दर्शाता है। वह कृपालु स्वामी हैं, जो युद्ध की भयावहता के बीच भी अपने भक्तों को फल-मूल खाने का आदेश देकर उनके सुख का ध्यान रखते हैं। यह उनकी करुणा और सौम्यता का प्रतीक है।

वानरों का फल खाना, वृक्ष हिलाना, और राक्षसों को नचाना उनकी निश्छल भक्ति और राम के प्रति अटूट विश्वास को दिखाता है। वे राक्षसों की नाक-कान काटकर और राम का यश गाकर यह सिद्ध करते हैं कि सच्चा बल भक्ति में है, न कि हिंसा में। रावण का समुद्र-बांधने की खबर सुनकर अकुलाना उसके अहंकार में दरार को दर्शाता है। वह समझने लगता है कि राम की शक्ति साधारण नहीं है।

यह प्रसंग सिखाता है कि प्रभु की लीला में हर कार्य—चाहे वह युद्ध हो या भक्तों का पोषण—प्रेम और धर्म से प्रेरित होता है। वानरों का उत्साह हमें प्रेरित करता है कि भक्ति में निश्छलता और समर्पण ही सच्ची शक्ति है। राम का समुद्र पर सेतु बनाना यह दर्शाता है कि प्रभु की इच्छा से असंभव भी संभव हो जाता है। मनुष्य को चाहिए कि वह अहंकार छोड़कर प्रभु की शरण में रहे, क्योंकि वही हर बाधा को पार करने की शक्ति देता है।
 
निज बिकलता बिचारि बहोरी। बिहँसि गयउ ग्रह करि भय भोरी।।
मंदोदरीं सुन्यो प्रभु आयो। कौतुकहीं पाथोधि बँधायो।।
कर गहि पतिहि भवन निज आनी। बोली परम मनोहर बानी।।
चरन नाइ सिरु अंचलु रोपा। सुनहु बचन पिय परिहरि कोपा।।
नाथ बयरु कीजे ताही सों। बुधि बल सकिअ जीति जाही सों।।
तुम्हहि रघुपतिहि अंतर कैसा। खलु खद्योत दिनकरहि जैसा।।
अतिबल मधु कैटभ जेहिं मारे। महाबीर दितिसुत संघारे।।
जेहिं बलि बाँधि सहजभुज मारा। सोइ अवतरेउ हरन महि भारा।।
तासु बिरोध न कीजिअ नाथा। काल करम जिव जाकें हाथा।।
दो0-रामहि सौपि जानकी नाइ कमल पद माथ।
सुत कहुँ राज समर्पि बन जाइ भजिअ रघुनाथ।।6।।
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नाथ दीनदयाल रघुराई। बाघउ सनमुख गएँ न खाई।।
चाहिअ करन सो सब करि बीते। तुम्ह सुर असुर चराचर जीते।।
संत कहहिं असि नीति दसानन। चौथेंपन जाइहि नृप कानन।।
तासु भजन कीजिअ तहँ भर्ता। जो कर्ता पालक संहर्ता।।
सोइ रघुवीर प्रनत अनुरागी। भजहु नाथ ममता सब त्यागी।।
मुनिबर जतनु करहिं जेहि लागी। भूप राजु तजि होहिं बिरागी।।
सोइ कोसलधीस रघुराया। आयउ करन तोहि पर दाया।।
जौं पिय मानहु मोर सिखावन। सुजसु होइ तिहुँ पुर अति पावन।।
दो0-अस कहि नयन नीर भरि गहि पद कंपित गात।
नाथ भजहु रघुनाथहि अचल होइ अहिवात।।7।।
 
तब रावन मयसुता उठाई। कहै लाग खल निज प्रभुताई।।
सुनु तै प्रिया बृथा भय माना। जग जोधा को मोहि समाना।।
बरुन कुबेर पवन जम काला। भुज बल जितेउँ सकल दिगपाला।।
देव दनुज नर सब बस मोरें। कवन हेतु उपजा भय तोरें।।
नाना बिधि तेहि कहेसि बुझाई। सभाँ बहोरि बैठ सो जाई।।
मंदोदरीं हदयँ अस जाना। काल बस्य उपजा अभिमाना।।
सभाँ आइ मंत्रिन्ह तेंहि बूझा। करब कवन बिधि रिपु सैं जूझा।।
कहहिं सचिव सुनु निसिचर नाहा। बार बार प्रभु पूछहु काहा।।
कहहु कवन भय करिअ बिचारा। नर कपि भालु अहार हमारा।।
दो0-सब के बचन श्रवन सुनि कह प्रहस्त कर जोरि।
निति बिरोध न करिअ प्रभु मत्रिंन्ह मति अति थोरि।।8।।
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कहहिं सचिव सठ ठकुरसोहाती। नाथ न पूर आव एहि भाँती।।
बारिधि नाघि एक कपि आवा। तासु चरित मन महुँ सबु गावा।।
छुधा न रही तुम्हहि तब काहू। जारत नगरु कस न धरि खाहू।।
सुनत नीक आगें दुख पावा। सचिवन अस मत प्रभुहि सुनावा।।
जेहिं बारीस बँधायउ हेला। उतरेउ सेन समेत सुबेला।।
सो भनु मनुज खाब हम भाई। बचन कहहिं सब गाल फुलाई।।
तात बचन मम सुनु अति आदर। जनि मन गुनहु मोहि करि कादर।।
प्रिय बानी जे सुनहिं जे कहहीं। ऐसे नर निकाय जग अहहीं।।
बचन परम हित सुनत कठोरे। सुनहिं जे कहहिं ते नर प्रभु थोरे।।
प्रथम बसीठ पठउ सुनु नीती। सीता देइ करहु पुनि प्रीती।।
दो0-नारि पाइ फिरि जाहिं जौं तौ न बढ़ाइअ रारि।
नाहिं त सन्मुख समर महि तात करिअ हठि मारि।।9।।
 
यह मत जौं मानहु प्रभु मोरा। उभय प्रकार सुजसु जग तोरा।।
सुत सन कह दसकंठ रिसाई। असि मति सठ केहिं तोहि सिखाई।।
अबहीं ते उर संसय होई। बेनुमूल सुत भयहु घमोई।।
सुनि पितु गिरा परुष अति घोरा। चला भवन कहि बचन कठोरा।।
हित मत तोहि न लागत कैसें। काल बिबस कहुँ भेषज जैसें।।
संध्या समय जानि दससीसा। भवन चलेउ निरखत भुज बीसा।।
लंका सिखर उपर आगारा। अति बिचित्र तहँ होइ अखारा।।
बैठ जाइ तेही मंदिर रावन। लागे किंनर गुन गन गावन।।
बाजहिं ताल पखाउज बीना। नृत्य करहिं अपछरा प्रबीना।।
दो0-सुनासीर सत सरिस सो संतत करइ बिलास।
परम प्रबल रिपु सीस पर तद्यपि सोच न त्रास।।10।।
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