लंका काण्ड-03 Tulsi Das Ram Charit Mans Hindi Lanka Kand in Hindi तुलसी दास राम चरित मानस लंका काण्ड

इहाँ सुबेल सैल रघुबीरा। उतरे सेन सहित अति भीरा।।
सिखर एक उतंग अति देखी। परम रम्य सम सुभ्र बिसेषी।।
तहँ तरु किसलय सुमन सुहाए। लछिमन रचि निज हाथ डसाए।।
ता पर रूचिर मृदुल मृगछाला। तेहीं आसान आसीन कृपाला।।
प्रभु कृत सीस कपीस उछंगा। बाम दहिन दिसि चाप निषंगा।।
दुहुँ कर कमल सुधारत बाना। कह लंकेस मंत्र लगि काना।।
बड़भागी अंगद हनुमाना। चरन कमल चापत बिधि नाना।।
प्रभु पाछें लछिमन बीरासन। कटि निषंग कर बान सरासन।।
दो0-एहि बिधि कृपा रूप गुन धाम रामु आसीन।
धन्य ते नर एहिं ध्यान जे रहत सदा लयलीन।।11(क)।।
पूरब दिसा बिलोकि प्रभु देखा उदित मंयक।
कहत सबहि देखहु ससिहि मृगपति सरिस असंक।।11(ख)।।
 
पूरब दिसि गिरिगुहा निवासी। परम प्रताप तेज बल रासी।।
मत्त नाग तम कुंभ बिदारी। ससि केसरी गगन बन चारी।।
बिथुरे नभ मुकुताहल तारा। निसि सुंदरी केर सिंगारा।।
कह प्रभु ससि महुँ मेचकताई। कहहु काह निज निज मति भाई।।
कह सुग़ीव सुनहु रघुराई। ससि महुँ प्रगट भूमि कै झाँई।।
मारेउ राहु ससिहि कह कोई। उर महँ परी स्यामता सोई।।
कोउ कह जब बिधि रति मुख कीन्हा। सार भाग ससि कर हरि लीन्हा।।
छिद्र सो प्रगट इंदु उर माहीं। तेहि मग देखिअ नभ परिछाहीं।।
प्रभु कह गरल बंधु ससि केरा। अति प्रिय निज उर दीन्ह बसेरा।।
बिष संजुत कर निकर पसारी। जारत बिरहवंत नर नारी।।
दो0-कह हनुमंत सुनहु प्रभु ससि तुम्हारा प्रिय दास।
तव मूरति बिधु उर बसति सोइ स्यामता अभास।।12(क)।।
नवान्हपारायण।। सातवाँ विश्राम
पवन तनय के बचन सुनि बिहँसे रामु सुजान।
दच्छिन दिसि अवलोकि प्रभु बोले कृपा निधान।।12(ख)।।
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देखु बिभीषन दच्छिन आसा। घन घंमड दामिनि बिलासा।।
मधुर मधुर गरजइ घन घोरा। होइ बृष्टि जनि उपल कठोरा।।
कहत बिभीषन सुनहु कृपाला। होइ न तड़ित न बारिद माला।।
लंका सिखर उपर आगारा। तहँ दसकंघर देख अखारा।।
छत्र मेघडंबर सिर धारी। सोइ जनु जलद घटा अति कारी।।
मंदोदरी श्रवन ताटंका। सोइ प्रभु जनु दामिनी दमंका।।
बाजहिं ताल मृदंग अनूपा। सोइ रव मधुर सुनहु सुरभूपा।।
प्रभु मुसुकान समुझि अभिमाना। चाप चढ़ाइ बान संधाना।।
दो0-छत्र मुकुट ताटंक तब हते एकहीं बान।
सबकें देखत महि परे मरमु न कोऊ जान।।13(क)।।
अस कौतुक करि राम सर प्रबिसेउ आइ निषंग।
रावन सभा ससंक सब देखि महा रसभंग।।13(ख)।।




कंप न भूमि न मरुत बिसेषा। अस्त्र सस्त्र कछु नयन न देखा।।
सोचहिं सब निज हृदय मझारी। असगुन भयउ भयंकर भारी।।
दसमुख देखि सभा भय पाई। बिहसि बचन कह जुगुति बनाई।।
सिरउ गिरे संतत सुभ जाही। मुकुट परे कस असगुन ताही।।
सयन करहु निज निज गृह जाई। गवने भवन सकल सिर नाई।।
मंदोदरी सोच उर बसेऊ। जब ते श्रवनपूर महि खसेऊ।।
सजल नयन कह जुग कर जोरी। सुनहु प्रानपति बिनती मोरी।।
कंत राम बिरोध परिहरहू। जानि मनुज जनि हठ मन धरहू।।
दो0-बिस्वरुप रघुबंस मनि करहु बचन बिस्वासु।
लोक कल्पना बेद कर अंग अंग प्रति जासु।।14।।
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पद पाताल सीस अज धामा। अपर लोक अँग अँग बिश्रामा।।
भृकुटि बिलास भयंकर काला। नयन दिवाकर कच घन माला।।
जासु घ्रान अस्विनीकुमारा। निसि अरु दिवस निमेष अपारा।।
श्रवन दिसा दस बेद बखानी। मारुत स्वास निगम निज बानी।।
अधर लोभ जम दसन कराला। माया हास बाहु दिगपाला।।
आनन अनल अंबुपति जीहा। उतपति पालन प्रलय समीहा।।
रोम राजि अष्टादस भारा। अस्थि सैल सरिता नस जारा।।
उदर उदधि अधगो जातना। जगमय प्रभु का बहु कलपना।।
दो0-अहंकार सिव बुद्धि अज मन ससि चित्त महान।
मनुज बास सचराचर रुप राम भगवान।।15 क।।
अस बिचारि सुनु प्रानपति प्रभु सन बयरु बिहाइ।
प्रीति करहु रघुबीर पद मम अहिवात न जाइ।।15 ख।।
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बिहँसा नारि बचन सुनि काना। अहो मोह महिमा बलवाना।।
नारि सुभाउ सत्य सब कहहीं। अवगुन आठ सदा उर रहहीं।।
साहस अनृत चपलता माया। भय अबिबेक असौच अदाया।।
रिपु कर रुप सकल तैं गावा। अति बिसाल भय मोहि सुनावा।।
सो सब प्रिया सहज बस मोरें। समुझि परा प्रसाद अब तोरें।।
जानिउँ प्रिया तोरि चतुराई। एहि बिधि कहहु मोरि प्रभुताई।।
तव बतकही गूढ़ मृगलोचनि। समुझत सुखद सुनत भय मोचनि।।
मंदोदरि मन महुँ अस ठयऊ। पियहि काल बस मतिभ्रम भयऊ।।
दो0-एहि बिधि करत बिनोद बहु प्रात प्रगट दसकंध।
सहज असंक लंकपति सभाँ गयउ मद अंध।।16(क)।।
सो0-फूलह फरइ न बेत जदपि सुधा बरषहिं जलद।
मूरुख हृदयँ न चेत जौं गुर मिलहिं बिरंचि सम।।16(ख)।।




इहाँ प्रात जागे रघुराई। पूछा मत सब सचिव बोलाई।।
कहहु बेगि का करिअ उपाई। जामवंत कह पद सिरु नाई।।
सुनु सर्बग्य सकल उर बासी। बुधि बल तेज धर्म गुन रासी।।
मंत्र कहउँ निज मति अनुसारा। दूत पठाइअ बालिकुमारा।।
नीक मंत्र सब के मन माना। अंगद सन कह कृपानिधाना।।
बालितनय बुधि बल गुन धामा। लंका जाहु तात मम कामा।।
बहुत बुझाइ तुम्हहि का कहऊँ। परम चतुर मैं जानत अहऊँ।।
काजु हमार तासु हित होई। रिपु सन करेहु बतकही सोई।।
सो0-प्रभु अग्या धरि सीस चरन बंदि अंगद उठेउ।
सोइ गुन सागर ईस राम कृपा जा पर करहु।।17(क)।।
स्वयं सिद्ध सब काज नाथ मोहि आदरु दियउ।
अस बिचारि जुबराज तन पुलकित हरषित हियउ।।17(ख)।।
बंदि चरन उर धरि प्रभुताई। अंगद चलेउ सबहि सिरु नाई।।
प्रभु प्रताप उर सहज असंका। रन बाँकुरा बालिसुत बंका।।
पुर पैठत रावन कर बेटा। खेलत रहा सो होइ गै भैंटा।।
बातहिं बात करष बढ़ि आई। जुगल अतुल बल पुनि तरुनाई।।
तेहि अंगद कहुँ लात उठाई। गहि पद पटकेउ भूमि भवाँई।।
निसिचर निकर देखि भट भारी। जहँ तहँ चले न सकहिं पुकारी।।
एक एक सन मरमु न कहहीं। समुझि तासु बध चुप करि रहहीं।।
भयउ कोलाहल नगर मझारी। आवा कपि लंका जेहीं जारी।।
अब धौं कहा करिहि करतारा। अति सभीत सब करहिं बिचारा।।
बिनु पूछें मगु देहिं दिखाई। जेहि बिलोक सोइ जाइ सुखाई।।
दो0-गयउ सभा दरबार तब सुमिरि राम पद कंज।
सिंह ठवनि इत उत चितव धीर बीर बल पुंज।।18।।
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तुरत निसाचर एक पठावा। समाचार रावनहि जनावा।।
सुनत बिहँसि बोला दससीसा। आनहु बोलि कहाँ कर कीसा।।
आयसु पाइ दूत बहु धाए। कपिकुंजरहि बोलि लै आए।।
अंगद दीख दसानन बैंसें। सहित प्रान कज्जलगिरि जैसें।।
भुजा बिटप सिर सृंग समाना। रोमावली लता जनु नाना।।
मुख नासिका नयन अरु काना। गिरि कंदरा खोह अनुमाना।।
गयउ सभाँ मन नेकु न मुरा। बालितनय अतिबल बाँकुरा।।
उठे सभासद कपि कहुँ देखी। रावन उर भा क्रौध बिसेषी।।
दो0-जथा मत्त गज जूथ महुँ पंचानन चलि जाइ।
राम प्रताप सुमिरि मन बैठ सभाँ सिरु नाइ।।19।।
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