लंका काण्ड-01 Tulsi Das Ram Charit Mans Hindi Lanka Kand in Hindi तुलसी दास राम चरित मानस लंका काण्ड

लंका काण्ड
श्री गणेशाय नमः
श्री जानकीवल्लभो विजयते
श्री रामचरितमानस
षष्ठ सोपान
(लंकाकाण्ड)
श्लोक
रामं कामारिसेव्यं भवभयहरणं कालमत्तेभसिंहं
योगीन्द्रं ज्ञानगम्यं गुणनिधिमजितं निर्गुणं निर्विकारम्।
मायातीतं सुरेशं खलवधनिरतं ब्रह्मवृन्दैकदेवं
वन्दे कन्दावदातं सरसिजनयनं देवमुर्वीशरूपम्।।1।।
शंखेन्द्वाभमतीवसुन्दरतनुं शार्दूलचर्माम्बरं
कालव्यालकरालभूषणधरं गंगाशशांकप्रियम्।
काशीशं कलिकल्मषौघशमनं कल्याणकल्पद्रुमं
नौमीड्यं गिरिजापतिं गुणनिधिं कन्दर्पहं शङ्करम्।।2।।
यो ददाति सतां शम्भुः कैवल्यमपि दुर्लभम्।
खलानां दण्डकृद्योऽसौ शङ्करः शं तनोतु मे।।3।।
दो0-लव निमेष परमानु जुग बरष कलप सर चंड।
भजसि न मन तेहि राम को कालु जासु कोदंड।।
–*–*–
सो0-सिंधु बचन सुनि राम सचिव बोलि प्रभु अस कहेउ।
अब बिलंबु केहि काम करहु सेतु उतरै कटकु।।
सुनहु भानुकुल केतु जामवंत कर जोरि कह।
नाथ नाम तव सेतु नर चढ़ि भव सागर तरिहिं।।
यह लघु जलधि तरत कति बारा। अस सुनि पुनि कह पवनकुमारा।।
प्रभु प्रताप बड़वानल भारी। सोषेउ प्रथम पयोनिधि बारी।।
तब रिपु नारी रुदन जल धारा। भरेउ बहोरि भयउ तेहिं खारा।।
सुनि अति उकुति पवनसुत केरी। हरषे कपि रघुपति तन हेरी।।
जामवंत बोले दोउ भाई। नल नीलहि सब कथा सुनाई।।
राम प्रताप सुमिरि मन माहीं। करहु सेतु प्रयास कछु नाहीं।।
बोलि लिए कपि निकर बहोरी। सकल सुनहु बिनती कछु मोरी।।
राम चरन पंकज उर धरहू। कौतुक एक भालु कपि करहू।।
धावहु मर्कट बिकट बरूथा। आनहु बिटप गिरिन्ह के जूथा।।
सुनि कपि भालु चले करि हूहा। जय रघुबीर प्रताप समूहा।।
दो0-अति उतंग गिरि पादप लीलहिं लेहिं उठाइ।
आनि देहिं नल नीलहि रचहिं ते सेतु बनाइ।।1।।
 
सैल बिसाल आनि कपि देहीं। कंदुक इव नल नील ते लेहीं।।
देखि सेतु अति सुंदर रचना। बिहसि कृपानिधि बोले बचना।।
परम रम्य उत्तम यह धरनी। महिमा अमित जाइ नहिं बरनी।।
करिहउँ इहाँ संभु थापना। मोरे हृदयँ परम कलपना।।
सुनि कपीस बहु दूत पठाए। मुनिबर सकल बोलि लै आए।।
लिंग थापि बिधिवत करि पूजा। सिव समान प्रिय मोहि न दूजा।।
सिव द्रोही मम भगत कहावा। सो नर सपनेहुँ मोहि न पावा।।
संकर बिमुख भगति चह मोरी। सो नारकी मूढ़ मति थोरी।।
दो0-संकर प्रिय मम द्रोही सिव द्रोही मम दास।
ते नर करहि कलप भरि धोर नरक महुँ बास।।2।।
–*–*–
जे रामेस्वर दरसनु करिहहिं। ते तनु तजि मम लोक सिधरिहहिं।।
जो गंगाजलु आनि चढ़ाइहि। सो साजुज्य मुक्ति नर पाइहि।।
होइ अकाम जो छल तजि सेइहि। भगति मोरि तेहि संकर देइहि।।
मम कृत सेतु जो दरसनु करिही। सो बिनु श्रम भवसागर तरिही।।
राम बचन सब के जिय भाए। मुनिबर निज निज आश्रम आए।।
गिरिजा रघुपति कै यह रीती। संतत करहिं प्रनत पर प्रीती।।
बाँधा सेतु नील नल नागर। राम कृपाँ जसु भयउ उजागर।।
बूड़हिं आनहि बोरहिं जेई। भए उपल बोहित सम तेई।।
महिमा यह न जलधि कइ बरनी। पाहन गुन न कपिन्ह कइ करनी।।
दो0=श्री रघुबीर प्रताप ते सिंधु तरे पाषान।
ते मतिमंद जे राम तजि भजहिं जाइ प्रभु आन।।3।।
 
बाँधि सेतु अति सुदृढ़ बनावा। देखि कृपानिधि के मन भावा।।
चली सेन कछु बरनि न जाई। गर्जहिं मर्कट भट समुदाई।।
सेतुबंध ढिग चढ़ि रघुराई। चितव कृपाल सिंधु बहुताई।।
देखन कहुँ प्रभु करुना कंदा। प्रगट भए सब जलचर बृंदा।।
मकर नक्र नाना झष ब्याला। सत जोजन तन परम बिसाला।।
अइसेउ एक तिन्हहि जे खाहीं। एकन्ह कें डर तेपि डेराहीं।।
प्रभुहि बिलोकहिं टरहिं न टारे। मन हरषित सब भए सुखारे।।
तिन्ह की ओट न देखिअ बारी। मगन भए हरि रूप निहारी।।
चला कटकु प्रभु आयसु पाई। को कहि सक कपि दल बिपुलाई।।
दो0-सेतुबंध भइ भीर अति कपि नभ पंथ उड़ाहिं।
अपर जलचरन्हि ऊपर चढ़ि चढ़ि पारहि जाहिं।।4।।
–*–*–
Next Post Previous Post
No Comment
Add Comment
comment url