किष्किन्धा काण्ड-02 Tulsi Das Ram Charit Mans Hindi Kishkinda Kand in Hindi तुलसी दास राम चरित मानस किष्किन्धा काण्ड



जे न मित्र दुख होहिं दुखारी। तिन्हहि बिलोकत पातक भारी।।

निज दुख गिरि सम रज करि जाना। मित्रक दुख रज मेरु समाना।।

जिन्ह कें असि मति सहज न आई। ते सठ कत हठि करत मिताई।।

कुपथ निवारि सुपंथ चलावा। गुन प्रगटे अवगुनन्हि दुरावा।।

देत लेत मन संक न धरई। बल अनुमान सदा हित करई।।

बिपति काल कर सतगुन नेहा। श्रुति कह संत मित्र गुन एहा।।




आगें कह मृदु बचन बनाई। पाछें अनहित मन कुटिलाई।।

जा कर चित अहि गति सम भाई। अस कुमित्र परिहरेहि भलाई।।

सेवक सठ नृप कृपन कुनारी। कपटी मित्र सूल सम चारी।।

सखा सोच त्यागहु बल मोरें। सब बिधि घटब काज मैं तोरें।।

कह सुग्रीव सुनहु रघुबीरा। बालि महाबल अति रनधीरा।।

दुंदुभी अस्थि ताल देखराए। बिनु प्रयास रघुनाथ ढहाए।।

देखि अमित बल बाढ़ी प्रीती। बालि बधब इन्ह भइ परतीती।।

बार बार नावइ पद सीसा। प्रभुहि जानि मन हरष कपीसा।।

उपजा ग्यान बचन तब बोला। नाथ कृपाँ मन भयउ अलोला।।

सुख संपति परिवार बड़ाई। सब परिहरि करिहउँ सेवकाई।।




ए सब रामभगति के बाधक। कहहिं संत तब पद अवराधक।।

सत्रु मित्र सुख दुख जग माहीं। माया कृत परमारथ नाहीं।।

बालि परम हित जासु प्रसादा। मिलेहु राम तुम्ह समन बिषादा।।

सपनें जेहि सन होइ लराई। जागें समुझत मन सकुचाई।।

अब प्रभु कृपा करहु एहि भाँती। सब तजि भजनु करौं दिन राती।।

सुनि बिराग संजुत कपि बानी। बोले बिहँसि रामु धनुपानी।।

जो कछु कहेहु सत्य सब सोई। सखा बचन मम मृषा न होई।।

नट मरकट इव सबहि नचावत। रामु खगेस बेद अस गावत।।

लै सुग्रीव संग रघुनाथा। चले चाप सायक गहि हाथा।।

तब रघुपति सुग्रीव पठावा। गर्जेसि जाइ निकट बल पावा।।

सुनत बालि क्रोधातुर धावा। गहि कर चरन नारि समुझावा।।

सुनु पति जिन्हहि मिलेउ सुग्रीवा। ते द्वौ बंधु तेज बल सींवा।।

कोसलेस सुत लछिमन रामा। कालहु जीति सकहिं संग्रामा।।

दो0-कह बालि सुनु भीरु प्रिय समदरसी रघुनाथ।

जौं कदाचि मोहि मारहिं तौ पुनि होउँ सनाथ।।7।।






अस कहि चला महा अभिमानी। तृन समान सुग्रीवहि जानी।।

भिरे उभौ बाली अति तर्जा । मुठिका मारि महाधुनि गर्जा।।

तब सुग्रीव बिकल होइ भागा। मुष्टि प्रहार बज्र सम लागा।।

मैं जो कहा रघुबीर कृपाला। बंधु न होइ मोर यह काला।।

एकरूप तुम्ह भ्राता दोऊ। तेहि भ्रम तें नहिं मारेउँ सोऊ।।

कर परसा सुग्रीव सरीरा। तनु भा कुलिस गई सब पीरा।।

मेली कंठ सुमन कै माला। पठवा पुनि बल देइ बिसाला।।

पुनि नाना बिधि भई लराई। बिटप ओट देखहिं रघुराई।।

दो0-बहु छल बल सुग्रीव कर हियँ हारा भय मानि।

मारा बालि राम तब हृदय माझ सर तानि।।8।।

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परा बिकल महि सर के लागें। पुनि उठि बैठ देखि प्रभु आगें।।

स्याम गात सिर जटा बनाएँ। अरुन नयन सर चाप चढ़ाएँ।।

पुनि पुनि चितइ चरन चित दीन्हा। सुफल जन्म माना प्रभु चीन्हा।।

हृदयँ प्रीति मुख बचन कठोरा। बोला चितइ राम की ओरा।।

धर्म हेतु अवतरेहु गोसाई। मारेहु मोहि ब्याध की नाई।।

मैं बैरी सुग्रीव पिआरा। अवगुन कबन नाथ मोहि मारा।।

अनुज बधू भगिनी सुत नारी। सुनु सठ कन्या सम ए चारी।।

इन्हहि कुद्दष्टि बिलोकइ जोई। ताहि बधें कछु पाप न होई।।

मुढ़ तोहि अतिसय अभिमाना। नारि सिखावन करसि न काना।।

मम भुज बल आश्रित तेहि जानी। मारा चहसि अधम अभिमानी।।

दो0-सुनहु राम स्वामी सन चल न चातुरी मोरि।

प्रभु अजहूँ मैं पापी अंतकाल गति तोरि।।9।।

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सुनत राम अति कोमल बानी। बालि सीस परसेउ निज पानी।।

अचल करौं तनु राखहु प्राना। बालि कहा सुनु कृपानिधाना।।

जन्म जन्म मुनि जतनु कराहीं। अंत राम कहि आवत नाहीं।।

जासु नाम बल संकर कासी। देत सबहि सम गति अविनासी।।

मम लोचन गोचर सोइ आवा। बहुरि कि प्रभु अस बनिहि बनावा।।

छं0-सो नयन गोचर जासु गुन नित नेति कहि श्रुति गावहीं।

जिति पवन मन गो निरस करि मुनि ध्यान कबहुँक पावहीं।।

मोहि जानि अति अभिमान बस प्रभु कहेउ राखु सरीरही।

अस कवन सठ हठि काटि सुरतरु बारि करिहि बबूरही।।1।।

अब नाथ करि करुना बिलोकहु देहु जो बर मागऊँ।

जेहिं जोनि जन्मौं कर्म बस तहँ राम पद अनुरागऊँ।।

यह तनय मम सम बिनय बल कल्यानप्रद प्रभु लीजिऐ।

गहि बाहँ सुर नर नाह आपन दास अंगद कीजिऐ।।2।।

दो0-राम चरन दृढ़ प्रीति करि बालि कीन्ह तनु त्याग।

सुमन माल जिमि कंठ ते गिरत न जानइ नाग।।10।।

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राम बालि निज धाम पठावा। नगर लोग सब ब्याकुल धावा।।

नाना बिधि बिलाप कर तारा। छूटे केस न देह सँभारा।।

तारा बिकल देखि रघुराया । दीन्ह ग्यान हरि लीन्ही माया।।

छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा।।

प्रगट सो तनु तव आगें सोवा। जीव नित्य केहि लगि तुम्ह रोवा।।

उपजा ग्यान चरन तब लागी। लीन्हेसि परम भगति बर मागी।।

उमा दारु जोषित की नाई। सबहि नचावत रामु गोसाई।।

तब सुग्रीवहि आयसु दीन्हा। मृतक कर्म बिधिबत सब कीन्हा।।

राम कहा अनुजहि समुझाई। राज देहु सुग्रीवहि जाई।।

रघुपति चरन नाइ करि माथा। चले सकल प्रेरित रघुनाथा।।

दो0-लछिमन तुरत बोलाए पुरजन बिप्र समाज।

राजु दीन्ह सुग्रीव कहँ अंगद कहँ जुबराज।।11।।
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