लंका काण्ड-08 Tulsi Das Ram Charit Mans Hindi Lanka Kand in Hindi तुलसी दास राम चरित मानस लंका काण्ड

सकल मरमु रघुनायक जाना। लिए बोलि अंगद हनुमाना।।
समाचार सब कहि समुझाए। सुनत कोपि कपिकुंजर धाए।।
पुनि कृपाल हँसि चाप चढ़ावा। पावक सायक सपदि चलावा।।
भयउ प्रकास कतहुँ तम नाहीं। ग्यान उदयँ जिमि संसय जाहीं।।
भालु बलीमुख पाइ प्रकासा। धाए हरष बिगत श्रम त्रासा।।
हनूमान अंगद रन गाजे। हाँक सुनत रजनीचर भाजे।।
भागत पट पटकहिं धरि धरनी। करहिं भालु कपि अद्भुत करनी।।
गहि पद डारहिं सागर माहीं। मकर उरग झष धरि धरि खाहीं।।
दो0-कछु मारे कछु घायल कछु गढ़ चढ़े पराइ।
गर्जहिं भालु बलीमुख रिपु दल बल बिचलाइ।।47।।

निसा जानि कपि चारिउ अनी। आए जहाँ कोसला धनी।।
राम कृपा करि चितवा सबही। भए बिगतश्रम बानर तबही।।
उहाँ दसानन सचिव हँकारे। सब सन कहेसि सुभट जे मारे।।
आधा कटकु कपिन्ह संघारा। कहहु बेगि का करिअ बिचारा।।
माल्यवंत अति जरठ निसाचर। रावन मातु पिता मंत्री बर।।
बोला बचन नीति अति पावन। सुनहु तात कछु मोर सिखावन।।
जब ते तुम्ह सीता हरि आनी। असगुन होहिं न जाहिं बखानी।।
बेद पुरान जासु जसु गायो। राम बिमुख काहुँ न सुख पायो।।
दो0-हिरन्याच्छ भ्राता सहित मधु कैटभ बलवान।
जेहि मारे सोइ अवतरेउ कृपासिंधु भगवान।।48(क)।।
मासपारायण, पचीसवाँ विश्राम
कालरूप खल बन दहन गुनागार घनबोध।
सिव बिरंचि जेहि सेवहिं तासों कवन बिरोध।।48(ख)।।

परिहरि बयरु देहु बैदेही। भजहु कृपानिधि परम सनेही।।
ताके बचन बान सम लागे। करिआ मुह करि जाहि अभागे।।
बूढ़ भएसि न त मरतेउँ तोही। अब जनि नयन देखावसि मोही।।
तेहि अपने मन अस अनुमाना। बध्यो चहत एहि कृपानिधाना।।
सो उठि गयउ कहत दुर्बादा। तब सकोप बोलेउ घननादा।।
कौतुक प्रात देखिअहु मोरा। करिहउँ बहुत कहौं का थोरा।।
सुनि सुत बचन भरोसा आवा। प्रीति समेत अंक बैठावा।।
करत बिचार भयउ भिनुसारा। लागे कपि पुनि चहूँ दुआरा।।
कोपि कपिन्ह दुर्घट गढ़ु घेरा। नगर कोलाहलु भयउ घनेरा।।
बिबिधायुध धर निसिचर धाए। गढ़ ते पर्बत सिखर ढहाए।।
छं0-ढाहे महीधर सिखर कोटिन्ह बिबिध बिधि गोला चले।
घहरात जिमि पबिपात गर्जत जनु प्रलय के बादले।।
मर्कट बिकट भट जुटत कटत न लटत तन जर्जर भए।
गहि सैल तेहि गढ़ पर चलावहिं जहँ सो तहँ निसिचर हए।।
दो0-मेघनाद सुनि श्रवन अस गढ़ु पुनि छेंका आइ।
उतर्यो बीर दुर्ग तें सन्मुख चल्यो बजाइ।।49।।
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कहँ कोसलाधीस द्वौ भ्राता। धन्वी सकल लोक बिख्याता।।
कहँ नल नील दुबिद सुग्रीवा। अंगद हनूमंत बल सींवा।।
कहाँ बिभीषनु भ्राताद्रोही। आजु सबहि हठि मारउँ ओही।।
अस कहि कठिन बान संधाने। अतिसय क्रोध श्रवन लगि ताने।।
सर समुह सो छाड़ै लागा। जनु सपच्छ धावहिं बहु नागा।।
जहँ तहँ परत देखिअहिं बानर। सन्मुख होइ न सके तेहि अवसर।।
जहँ तहँ भागि चले कपि रीछा। बिसरी सबहि जुद्ध कै ईछा।।
सो कपि भालु न रन महँ देखा। कीन्हेसि जेहि न प्रान अवसेषा।।
दो0-दस दस सर सब मारेसि परे भूमि कपि बीर।
सिंहनाद करि गर्जा मेघनाद बल धीर।।50।।

देखि पवनसुत कटक बिहाला। क्रोधवंत जनु धायउ काला।।
महासैल एक तुरत उपारा। अति रिस मेघनाद पर डारा।।
आवत देखि गयउ नभ सोई। रथ सारथी तुरग सब खोई।।
बार बार पचार हनुमाना। निकट न आव मरमु सो जाना।।
रघुपति निकट गयउ घननादा। नाना भाँति करेसि दुर्बादा।।
अस्त्र सस्त्र आयुध सब डारे। कौतुकहीं प्रभु काटि निवारे।।
देखि प्रताप मूढ़ खिसिआना। करै लाग माया बिधि नाना।।
जिमि कोउ करै गरुड़ सैं खेला। डरपावै गहि स्वल्प सपेला।।
दो0-जासु प्रबल माया बल सिव बिरंचि बड़ छोट।
ताहि दिखावइ निसिचर निज माया मति खोट।।51।।
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नभ चढ़ि बरष बिपुल अंगारा। महि ते प्रगट होहिं जलधारा।।
नाना भाँति पिसाच पिसाची। मारु काटु धुनि बोलहिं नाची।।
बिष्टा पूय रुधिर कच हाड़ा। बरषइ कबहुँ उपल बहु छाड़ा।।
बरषि धूरि कीन्हेसि अँधिआरा। सूझ न आपन हाथ पसारा।।
कपि अकुलाने माया देखें। सब कर मरन बना एहि लेखें।।
कौतुक देखि राम मुसुकाने। भए सभीत सकल कपि जाने।।
एक बान काटी सब माया। जिमि दिनकर हर तिमिर निकाया।।
कृपादृष्टि कपि भालु बिलोके। भए प्रबल रन रहहिं न रोके।।
दो0-आयसु मागि राम पहिं अंगदादि कपि साथ।
लछिमन चले क्रुद्ध होइ बान सरासन हाथ।।52।।

छतज नयन उर बाहु बिसाला। हिमगिरि निभ तनु कछु एक लाला।।
इहाँ दसानन सुभट पठाए। नाना अस्त्र सस्त्र गहि धाए।।
भूधर नख बिटपायुध धारी। धाए कपि जय राम पुकारी।।
भिरे सकल जोरिहि सन जोरी। इत उत जय इच्छा नहिं थोरी।।
मुठिकन्ह लातन्ह दातन्ह काटहिं। कपि जयसील मारि पुनि डाटहिं।।
मारु मारु धरु धरु धरु मारू। सीस तोरि गहि भुजा उपारू।।
असि रव पूरि रही नव खंडा। धावहिं जहँ तहँ रुंड प्रचंडा।।
देखहिं कौतुक नभ सुर बृंदा। कबहुँक बिसमय कबहुँ अनंदा।।
दो0-रुधिर गाड़ भरि भरि जम्यो ऊपर धूरि उड़ाइ।
जनु अँगार रासिन्ह पर मृतक धूम रह्यो छाइ।।53।।
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घायल बीर बिराजहिं कैसे। कुसुमित किंसुक के तरु जैसे।।
लछिमन मेघनाद द्वौ जोधा। भिरहिं परसपर करि अति क्रोधा।।
एकहि एक सकइ नहिं जीती। निसिचर छल बल करइ अनीती।।
क्रोधवंत तब भयउ अनंता। भंजेउ रथ सारथी तुरंता।।
नाना बिधि प्रहार कर सेषा। राच्छस भयउ प्रान अवसेषा।।
रावन सुत निज मन अनुमाना। संकठ भयउ हरिहि मम प्राना।।
बीरघातिनी छाड़िसि साँगी। तेज पुंज लछिमन उर लागी।।
मुरुछा भई सक्ति के लागें। तब चलि गयउ निकट भय त्यागें।।
दो0-मेघनाद सम कोटि सत जोधा रहे उठाइ।
जगदाधार सेष किमि उठै चले खिसिआइ।।54।।
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सुनु गिरिजा क्रोधानल जासू। जारइ भुवन चारिदस आसू।।
सक संग्राम जीति को ताही। सेवहिं सुर नर अग जग जाही।।
यह कौतूहल जानइ सोई। जा पर कृपा राम कै होई।।
संध्या भइ फिरि द्वौ बाहनी। लगे सँभारन निज निज अनी।।
ब्यापक ब्रह्म अजित भुवनेस्वर। लछिमन कहाँ बूझ करुनाकर।।
तब लगि लै आयउ हनुमाना। अनुज देखि प्रभु अति दुख माना।।
जामवंत कह बैद सुषेना। लंकाँ रहइ को पठई लेना।।
धरि लघु रूप गयउ हनुमंता। आनेउ भवन समेत तुरंता।।
दो0-राम पदारबिंद सिर नायउ आइ सुषेन।
कहा नाम गिरि औषधी जाहु पवनसुत लेन।।55।।
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राम चरन सरसिज उर राखी। चला प्रभंजन सुत बल भाषी।।
उहाँ दूत एक मरमु जनावा। रावन कालनेमि गृह आवा।।
दसमुख कहा मरमु तेहिं सुना। पुनि पुनि कालनेमि सिरु धुना।।
देखत तुम्हहि नगरु जेहिं जारा। तासु पंथ को रोकन पारा।।
भजि रघुपति करु हित आपना। छाँड़हु नाथ मृषा जल्पना।।
नील कंज तनु सुंदर स्यामा। हृदयँ राखु लोचनाभिरामा।।
मैं तैं मोर मूढ़ता त्यागू। महा मोह निसि सूतत जागू।।
काल ब्याल कर भच्छक जोई। सपनेहुँ समर कि जीतिअ सोई।।
दो0-सुनि दसकंठ रिसान अति तेहिं मन कीन्ह बिचार।
राम दूत कर मरौं बरु यह खल रत मल भार।।56।।
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अस कहि चला रचिसि मग माया। सर मंदिर बर बाग बनाया।।
मारुतसुत देखा सुभ आश्रम। मुनिहि बूझि जल पियौं जाइ श्रम।।
राच्छस कपट बेष तहँ सोहा। मायापति दूतहि चह मोहा।।
जाइ पवनसुत नायउ माथा। लाग सो कहै राम गुन गाथा।।
होत महा रन रावन रामहिं। जितहहिं राम न संसय या महिं।।
इहाँ भएँ मैं देखेउँ भाई। ग्यान दृष्टि बल मोहि अधिकाई।।
मागा जल तेहिं दीन्ह कमंडल। कह कपि नहिं अघाउँ थोरें जल।।
सर मज्जन करि आतुर आवहु। दिच्छा देउँ ग्यान जेहिं पावहु।।
दो0-सर पैठत कपि पद गहा मकरीं तब अकुलान।
मारी सो धरि दिव्य तनु चली गगन चढ़ि जान।।57।।
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