बाल कान्ड-14

बाल कान्ड-14

कीन्ह प्रनामु चरन धरि माथा। दीन्हि असीस मुदित मुनिनाथा।।
बिप्रबृंद सब सादर बंदे। जानि भाग्य बड़ राउ अनंदे।।
कुसल प्रस्न कहि बारहिं बारा। बिस्वामित्र नृपहि बैठारा।।
तेहि अवसर आए दोउ भाई। गए रहे देखन फुलवाई।।
स्याम गौर मृदु बयस किसोरा। लोचन सुखद बिस्व चित चोरा।।
उठे सकल जब रघुपति आए। बिस्वामित्र निकट बैठाए।।
भए सब सुखी देखि दोउ भ्राता। बारि बिलोचन पुलकित गाता।।
मूरति मधुर मनोहर देखी। भयउ बिदेहु बिदेहु बिसेषी।।
दो0-प्रेम मगन मनु जानि नृपु करि बिबेकु धरि धीर।
बोलेउ मुनि पद नाइ सिरु गदगद गिरा गभीर।।215।।
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कहहु नाथ सुंदर दोउ बालक। मुनिकुल तिलक कि नृपकुल पालक।।
ब्रह्म जो निगम नेति कहि गावा। उभय बेष धरि की सोइ आवा।।
सहज बिरागरुप मनु मोरा। थकित होत जिमि चंद चकोरा।।
ताते प्रभु पूछउँ सतिभाऊ। कहहु नाथ जनि करहु दुराऊ।।
इन्हहि बिलोकत अति अनुरागा। बरबस ब्रह्मसुखहि मन त्यागा।।
कह मुनि बिहसि कहेहु नृप नीका। बचन तुम्हार न होइ अलीका।।
ए प्रिय सबहि जहाँ लगि प्रानी। मन मुसुकाहिं रामु सुनि बानी।।
रघुकुल मनि दसरथ के जाए। मम हित लागि नरेस पठाए।।
दो0-रामु लखनु दोउ बंधुबर रूप सील बल धाम।
मख राखेउ सबु साखि जगु जिते असुर संग्राम।।216।।
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मुनि तव चरन देखि कह राऊ। कहि न सकउँ निज पुन्य प्राभाऊ।।
सुंदर स्याम गौर दोउ भ्राता। आनँदहू के आनँद दाता।।
इन्ह कै प्रीति परसपर पावनि। कहि न जाइ मन भाव सुहावनि।।
सुनहु नाथ कह मुदित बिदेहू। ब्रह्म जीव इव सहज सनेहू।।
पुनि पुनि प्रभुहि चितव नरनाहू। पुलक गात उर अधिक उछाहू।।
म्रुनिहि प्रसंसि नाइ पद सीसू। चलेउ लवाइ नगर अवनीसू।।
सुंदर सदनु सुखद सब काला। तहाँ बासु लै दीन्ह भुआला।।
करि पूजा सब बिधि सेवकाई। गयउ राउ गृह बिदा कराई।।
दो0-रिषय संग रघुबंस मनि करि भोजनु बिश्रामु।
बैठे प्रभु भ्राता सहित दिवसु रहा भरि जामु।।217।।
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लखन हृदयँ लालसा बिसेषी। जाइ जनकपुर आइअ देखी।।
प्रभु भय बहुरि मुनिहि सकुचाहीं। प्रगट न कहहिं मनहिं मुसुकाहीं।।
राम अनुज मन की गति जानी। भगत बछलता हिंयँ हुलसानी।।
परम बिनीत सकुचि मुसुकाई। बोले गुर अनुसासन पाई।।
नाथ लखनु पुरु देखन चहहीं। प्रभु सकोच डर प्रगट न कहहीं।।
जौं राउर आयसु मैं पावौं। नगर देखाइ तुरत लै आवौ।।
सुनि मुनीसु कह बचन सप्रीती। कस न राम तुम्ह राखहु नीती।।
धरम सेतु पालक तुम्ह ताता। प्रेम बिबस सेवक सुखदाता।।
दो0-जाइ देखी आवहु नगरु सुख निधान दोउ भाइ।
करहु सुफल सब के नयन सुंदर बदन देखाइ।।218।।
मासपारायण, आठवाँ विश्राम
नवान्हपारायण, दूसरा विश्राम



मुनि पद कमल बंदि दोउ भ्राता। चले लोक लोचन सुख दाता।।
बालक बृंदि देखि अति सोभा। लगे संग लोचन मनु लोभा।।
पीत बसन परिकर कटि भाथा। चारु चाप सर सोहत हाथा।।
तन अनुहरत सुचंदन खोरी। स्यामल गौर मनोहर जोरी।।
केहरि कंधर बाहु बिसाला। उर अति रुचिर नागमनि माला।।
सुभग सोन सरसीरुह लोचन। बदन मयंक तापत्रय मोचन।।
कानन्हि कनक फूल छबि देहीं। चितवत चितहि चोरि जनु लेहीं।।
चितवनि चारु भृकुटि बर बाँकी। तिलक रेखा सोभा जनु चाँकी।।
दो0-रुचिर चौतनीं सुभग सिर मेचक कुंचित केस।
नख सिख सुंदर बंधु दोउ सोभा सकल सुदेस।।219।।
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देखन नगरु भूपसुत आए। समाचार पुरबासिन्ह पाए।।
धाए धाम काम सब त्यागी। मनहु रंक निधि लूटन लागी।।
निरखि सहज सुंदर दोउ भाई। होहिं सुखी लोचन फल पाई।।
जुबतीं भवन झरोखन्हि लागीं। निरखहिं राम रूप अनुरागीं।।
कहहिं परसपर बचन सप्रीती। सखि इन्ह कोटि काम छबि जीती।।
सुर नर असुर नाग मुनि माहीं। सोभा असि कहुँ सुनिअति नाहीं।।
बिष्नु चारि भुज बिघि मुख चारी। बिकट बेष मुख पंच पुरारी।।
अपर देउ अस कोउ न आही। यह छबि सखि पटतरिअ जाही।।
दो0-बय किसोर सुषमा सदन स्याम गौर सुख घाम ।
अंग अंग पर वारिअहिं कोटि कोटि सत काम।।220।।
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कहहु सखी अस को तनुधारी। जो न मोह यह रूप निहारी।।
कोउ सप्रेम बोली मृदु बानी। जो मैं सुना सो सुनहु सयानी।।
ए दोऊ दसरथ के ढोटा। बाल मरालन्हि के कल जोटा।।
मुनि कौसिक मख के रखवारे। जिन्ह रन अजिर निसाचर मारे।।
स्याम गात कल कंज बिलोचन। जो मारीच सुभुज मदु मोचन।।
कौसल्या सुत सो सुख खानी। नामु रामु धनु सायक पानी।।
गौर किसोर बेषु बर काछें। कर सर चाप राम के पाछें।।
लछिमनु नामु राम लघु भ्राता। सुनु सखि तासु सुमित्रा माता।।
दो0-बिप्रकाजु करि बंधु दोउ मग मुनिबधू उधारि।
आए देखन चापमख सुनि हरषीं सब नारि।।221।।
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देखि राम छबि कोउ एक कहई। जोगु जानकिहि यह बरु अहई।।
जौ सखि इन्हहि देख नरनाहू। पन परिहरि हठि करइ बिबाहू।।
कोउ कह ए भूपति पहिचाने। मुनि समेत सादर सनमाने।।
सखि परंतु पनु राउ न तजई। बिधि बस हठि अबिबेकहि भजई।।
कोउ कह जौं भल अहइ बिधाता। सब कहँ सुनिअ उचित फलदाता।।
तौ जानकिहि मिलिहि बरु एहू। नाहिन आलि इहाँ संदेहू।।
जौ बिधि बस अस बनै सँजोगू। तौ कृतकृत्य होइ सब लोगू।।
सखि हमरें आरति अति तातें। कबहुँक ए आवहिं एहि नातें।।
दो0-नाहिं त हम कहुँ सुनहु सखि इन्ह कर दरसनु दूरि।
यह संघटु तब होइ जब पुन्य पुराकृत भूरि।।222।।



बोली अपर कहेहु सखि नीका। एहिं बिआह अति हित सबहीं का।।
कोउ कह संकर चाप कठोरा। ए स्यामल मृदुगात किसोरा।।
सबु असमंजस अहइ सयानी। यह सुनि अपर कहइ मृदु बानी।।
सखि इन्ह कहँ कोउ कोउ अस कहहीं। बड़ प्रभाउ देखत लघु अहहीं।।
परसि जासु पद पंकज धूरी। तरी अहल्या कृत अघ भूरी।।
सो कि रहिहि बिनु सिवधनु तोरें। यह प्रतीति परिहरिअ न भोरें।।
जेहिं बिरंचि रचि सीय सँवारी। तेहिं स्यामल बरु रचेउ बिचारी।।
तासु बचन सुनि सब हरषानीं। ऐसेइ होउ कहहिं मुदु बानी।।
दो0-हियँ हरषहिं बरषहिं सुमन सुमुखि सुलोचनि बृंद।
जाहिं जहाँ जहँ बंधु दोउ तहँ तहँ परमानंद।।223।।
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पुर पूरब दिसि गे दोउ भाई। जहँ धनुमख हित भूमि बनाई।।
अति बिस्तार चारु गच ढारी। बिमल बेदिका रुचिर सँवारी।।
चहुँ दिसि कंचन मंच बिसाला। रचे जहाँ बेठहिं महिपाला।।
तेहि पाछें समीप चहुँ पासा। अपर मंच मंडली बिलासा।।
कछुक ऊँचि सब भाँति सुहाई। बैठहिं नगर लोग जहँ जाई।।
तिन्ह के निकट बिसाल सुहाए। धवल धाम बहुबरन बनाए।।
जहँ बैंठैं देखहिं सब नारी। जथा जोगु निज कुल अनुहारी।।
पुर बालक कहि कहि मृदु बचना। सादर प्रभुहि देखावहिं रचना।।
दो0-सब सिसु एहि मिस प्रेमबस परसि मनोहर गात।
तन पुलकहिं अति हरषु हियँ देखि देखि दोउ भ्रात।।224।।
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सिसु सब राम प्रेमबस जाने। प्रीति समेत निकेत बखाने।।
निज निज रुचि सब लेंहिं बोलाई। सहित सनेह जाहिं दोउ भाई।।
राम देखावहिं अनुजहि रचना। कहि मृदु मधुर मनोहर बचना।।
लव निमेष महँ भुवन निकाया। रचइ जासु अनुसासन माया।।
भगति हेतु सोइ दीनदयाला। चितवत चकित धनुष मखसाला।।
कौतुक देखि चले गुरु पाहीं। जानि बिलंबु त्रास मन माहीं।।
जासु त्रास डर कहुँ डर होई। भजन प्रभाउ देखावत सोई।।
कहि बातें मृदु मधुर सुहाईं। किए बिदा बालक बरिआई।।
दो0-सभय सप्रेम बिनीत अति सकुच सहित दोउ भाइ।
गुर पद पंकज नाइ सिर बैठे आयसु पाइ।।225।।
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निसि प्रबेस मुनि आयसु दीन्हा। सबहीं संध्याबंदनु कीन्हा।।
कहत कथा इतिहास पुरानी। रुचिर रजनि जुग जाम सिरानी।।
मुनिबर सयन कीन्हि तब जाई। लगे चरन चापन दोउ भाई।।
जिन्ह के चरन सरोरुह लागी। करत बिबिध जप जोग बिरागी।।
तेइ दोउ बंधु प्रेम जनु जीते। गुर पद कमल पलोटत प्रीते।।
बारबार मुनि अग्या दीन्ही। रघुबर जाइ सयन तब कीन्ही।।
चापत चरन लखनु उर लाएँ। सभय सप्रेम परम सचु पाएँ।।
पुनि पुनि प्रभु कह सोवहु ताता। पौढ़े धरि उर पद जलजाता।।
दो0-उठे लखन निसि बिगत सुनि अरुनसिखा धुनि कान।।
गुर तें पहिलेहिं जगतपति जागे रामु सुजान।।226।।



सकल सौच करि जाइ नहाए। नित्य निबाहि मुनिहि सिर नाए।।
समय जानि गुर आयसु पाई। लेन प्रसून चले दोउ भाई।।
भूप बागु बर देखेउ जाई। जहँ बसंत रितु रही लोभाई।।
लागे बिटप मनोहर नाना। बरन बरन बर बेलि बिताना।।
नव पल्लव फल सुमान सुहाए। निज संपति सुर रूख लजाए।।
चातक कोकिल कीर चकोरा। कूजत बिहग नटत कल मोरा।।
मध्य बाग सरु सोह सुहावा। मनि सोपान बिचित्र बनावा।।
बिमल सलिलु सरसिज बहुरंगा। जलखग कूजत गुंजत भृंगा।।
दो0-बागु तड़ागु बिलोकि प्रभु हरषे बंधु समेत।
परम रम्य आरामु यहु जो रामहि सुख देत।।227।।
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चहुँ दिसि चितइ पूँछि मालिगन। लगे लेन दल फूल मुदित मन।।
तेहि अवसर सीता तहँ आई। गिरिजा पूजन जननि पठाई।।
संग सखीं सब सुभग सयानी। गावहिं गीत मनोहर बानी।।
सर समीप गिरिजा गृह सोहा। बरनि न जाइ देखि मनु मोहा।।
मज्जनु करि सर सखिन्ह समेता। गई मुदित मन गौरि निकेता।।
पूजा कीन्हि अधिक अनुरागा। निज अनुरूप सुभग बरु मागा।।
एक सखी सिय संगु बिहाई। गई रही देखन फुलवाई।।
तेहि दोउ बंधु बिलोके जाई। प्रेम बिबस सीता पहिं आई।।
दो0-तासु दसा देखि सखिन्ह पुलक गात जलु नैन।
कहु कारनु निज हरष कर पूछहि सब मृदु बैन।।228।।
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देखन बागु कुअँर दुइ आए। बय किसोर सब भाँति सुहाए।।
स्याम गौर किमि कहौं बखानी। गिरा अनयन नयन बिनु बानी।।
सुनि हरषीँ सब सखीं सयानी। सिय हियँ अति उतकंठा जानी।।
एक कहइ नृपसुत तेइ आली। सुने जे मुनि सँग आए काली।।
जिन्ह निज रूप मोहनी डारी। कीन्ह स्वबस नगर नर नारी।।
बरनत छबि जहँ तहँ सब लोगू। अवसि देखिअहिं देखन जोगू।।
तासु वचन अति सियहि सुहाने। दरस लागि लोचन अकुलाने।।
चली अग्र करि प्रिय सखि सोई। प्रीति पुरातन लखइ न कोई।।
दो0-सुमिरि सीय नारद बचन उपजी प्रीति पुनीत।।
चकित बिलोकति सकल दिसि जनु सिसु मृगी सभीत।।229।।
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कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि। कहत लखन सन रामु हृदयँ गुनि।।
मानहुँ मदन दुंदुभी दीन्ही।।मनसा बिस्व बिजय कहँ कीन्ही।।
अस कहि फिरि चितए तेहि ओरा। सिय मुख ससि भए नयन चकोरा।।
भए बिलोचन चारु अचंचल। मनहुँ सकुचि निमि तजे दिगंचल।।
देखि सीय सोभा सुखु पावा। हृदयँ सराहत बचनु न आवा।।
जनु बिरंचि सब निज निपुनाई। बिरचि बिस्व कहँ प्रगटि देखाई।।
सुंदरता कहुँ सुंदर करई। छबिगृहँ दीपसिखा जनु बरई।।
सब उपमा कबि रहे जुठारी। केहिं पटतरौं बिदेहकुमारी।।
दो0-सिय सोभा हियँ बरनि प्रभु आपनि दसा बिचारि।
बोले सुचि मन अनुज सन बचन समय अनुहारि।।230।।



तात जनकतनया यह सोई। धनुषजग्य जेहि कारन होई।।
पूजन गौरि सखीं लै आई। करत प्रकासु फिरइ फुलवाई।।
जासु बिलोकि अलोकिक सोभा। सहज पुनीत मोर मनु छोभा।।
सो सबु कारन जान बिधाता। फरकहिं सुभद अंग सुनु भ्राता।।
रघुबंसिन्ह कर सहज सुभाऊ। मनु कुपंथ पगु धरइ न काऊ।।
मोहि अतिसय प्रतीति मन केरी। जेहिं सपनेहुँ परनारि न हेरी।।
जिन्ह कै लहहिं न रिपु रन पीठी। नहिं पावहिं परतिय मनु डीठी।।
मंगन लहहि न जिन्ह कै नाहीं। ते नरबर थोरे जग माहीं।।
दो0-करत बतकहि अनुज सन मन सिय रूप लोभान।
मुख सरोज मकरंद छबि करइ मधुप इव पान।।231।।
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