राम चरित मानस बाल कान्ड
तुलसीदास | राम चरित मानस हिंदी में |
Ram Charit Manas Bal Kank in Hindi
चितवहि चकित चहूँ दिसि सीता। कहँ गए नृपकिसोर मनु चिंता।।
जहँ बिलोक मृग सावक नैनी। जनु तहँ बरिस कमल सित श्रेनी।।
लता ओट तब सखिन्ह लखाए। स्यामल गौर किसोर सुहाए।।
देखि रूप लोचन ललचाने। हरषे जनु निज निधि पहिचाने।।
थके नयन रघुपति छबि देखें। पलकन्हिहूँ परिहरीं निमेषें।।
अधिक सनेहँ देह भै भोरी। सरद ससिहि जनु चितव चकोरी।।
लोचन मग रामहि उर आनी। दीन्हे पलक कपाट सयानी।।
जब सिय सखिन्ह प्रेमबस जानी। कहि न सकहिं कछु मन सकुचानी।।
दो0-लताभवन तें प्रगट भे तेहि अवसर दोउ भाइ।
निकसे जनु जुग बिमल बिधु जलद पटल बिलगाइ।।232।।
–*–*–
सोभा सीवँ सुभग दोउ बीरा। नील पीत जलजाभ सरीरा।।
मोरपंख सिर सोहत नीके। गुच्छ बीच बिच कुसुम कली के।।
भाल तिलक श्रमबिंदु सुहाए। श्रवन सुभग भूषन छबि छाए।।
बिकट भृकुटि कच घूघरवारे। नव सरोज लोचन रतनारे।।
चारु चिबुक नासिका कपोला। हास बिलास लेत मनु मोला।।
मुखछबि कहि न जाइ मोहि पाहीं। जो बिलोकि बहु काम लजाहीं।।
उर मनि माल कंबु कल गीवा। काम कलभ कर भुज बलसींवा।।
सुमन समेत बाम कर दोना। सावँर कुअँर सखी सुठि लोना।।
दो0-केहरि कटि पट पीत धर सुषमा सील निधान।
देखि भानुकुलभूषनहि बिसरा सखिन्ह अपान।।233।।
–*–*–
धरि धीरजु एक आलि सयानी। सीता सन बोली गहि पानी।।
बहुरि गौरि कर ध्यान करेहू। भूपकिसोर देखि किन लेहू।।
सकुचि सीयँ तब नयन उघारे। सनमुख दोउ रघुसिंघ निहारे।।
नख सिख देखि राम कै सोभा। सुमिरि पिता पनु मनु अति छोभा।।
परबस सखिन्ह लखी जब सीता। भयउ गहरु सब कहहि सभीता।।
पुनि आउब एहि बेरिआँ काली। अस कहि मन बिहसी एक आली।।
गूढ़ गिरा सुनि सिय सकुचानी। भयउ बिलंबु मातु भय मानी।।
धरि बड़ि धीर रामु उर आने। फिरि अपनपउ पितुबस जाने।।
दो0-देखन मिस मृग बिहग तरु फिरइ बहोरि बहोरि।
निरखि निरखि रघुबीर छबि बाढ़इ प्रीति न थोरि।। 234।।
–*–*–
जानि कठिन सिवचाप बिसूरति। चली राखि उर स्यामल मूरति।।
प्रभु जब जात जानकी जानी। सुख सनेह सोभा गुन खानी।।
परम प्रेममय मृदु मसि कीन्ही। चारु चित भीतीं लिख लीन्ही।।
गई भवानी भवन बहोरी। बंदि चरन बोली कर जोरी।।
जय जय गिरिबरराज किसोरी। जय महेस मुख चंद चकोरी।।
जय गज बदन षड़ानन माता। जगत जननि दामिनि दुति गाता।।
नहिं तव आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना।।
भव भव बिभव पराभव कारिनि। बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि।।
दो0-पतिदेवता सुतीय महुँ मातु प्रथम तव रेख।
महिमा अमित न सकहिं कहि सहस सारदा सेष।।235।।
सेवत तोहि सुलभ फल चारी। बरदायनी पुरारि पिआरी।।
देबि पूजि पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे।।
मोर मनोरथु जानहु नीकें। बसहु सदा उर पुर सबही कें।।
कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं। अस कहि चरन गहे बैदेहीं।।
बिनय प्रेम बस भई भवानी। खसी माल मूरति मुसुकानी।।
सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ। बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ।।
सुनु सिय सत्य असीस हमारी। पूजिहि मन कामना तुम्हारी।।
नारद बचन सदा सुचि साचा। सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा।।
छं0-मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर साँवरो।
करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो।।
एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषीं अली।
तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली।।
सो0-जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि।
मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे।।236।।
हृदयँ सराहत सीय लोनाई। गुर समीप गवने दोउ भाई।।
राम कहा सबु कौसिक पाहीं। सरल सुभाउ छुअत छल नाहीं।।
सुमन पाइ मुनि पूजा कीन्ही। पुनि असीस दुहु भाइन्ह दीन्ही।।
सुफल मनोरथ होहुँ तुम्हारे। रामु लखनु सुनि भए सुखारे।।
करि भोजनु मुनिबर बिग्यानी। लगे कहन कछु कथा पुरानी।।
बिगत दिवसु गुरु आयसु पाई। संध्या करन चले दोउ भाई।।
प्राची दिसि ससि उयउ सुहावा। सिय मुख सरिस देखि सुखु पावा।।
बहुरि बिचारु कीन्ह मन माहीं। सीय बदन सम हिमकर नाहीं।।
दो0-जनमु सिंधु पुनि बंधु बिषु दिन मलीन सकलंक।
सिय मुख समता पाव किमि चंदु बापुरो रंक।।237।।
घटइ बढ़इ बिरहनि दुखदाई। ग्रसइ राहु निज संधिहिं पाई।।
कोक सिकप्रद पंकज द्रोही। अवगुन बहुत चंद्रमा तोही।।
बैदेही मुख पटतर दीन्हे। होइ दोष बड़ अनुचित कीन्हे।।
सिय मुख छबि बिधु ब्याज बखानी। गुरु पहिं चले निसा बड़ि जानी।।
करि मुनि चरन सरोज प्रनामा। आयसु पाइ कीन्ह बिश्रामा।।
बिगत निसा रघुनायक जागे। बंधु बिलोकि कहन अस लागे।।
उदउ अरुन अवलोकहु ताता। पंकज कोक लोक सुखदाता।।
बोले लखनु जोरि जुग पानी। प्रभु प्रभाउ सूचक मृदु बानी।।
दो0-अरुनोदयँ सकुचे कुमुद उडगन जोति मलीन।
जिमि तुम्हार आगमन सुनि भए नृपति बलहीन।।238।।
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नृप सब नखत करहिं उजिआरी। टारि न सकहिं चाप तम भारी।।
कमल कोक मधुकर खग नाना। हरषे सकल निसा अवसाना।।
ऐसेहिं प्रभु सब भगत तुम्हारे। होइहहिं टूटें धनुष सुखारे।।
उयउ भानु बिनु श्रम तम नासा। दुरे नखत जग तेजु प्रकासा।।
रबि निज उदय ब्याज रघुराया। प्रभु प्रतापु सब नृपन्ह दिखाया।।
तव भुज बल महिमा उदघाटी। प्रगटी धनु बिघटन परिपाटी।।
बंधु बचन सुनि प्रभु मुसुकाने। होइ सुचि सहज पुनीत नहाने।।
नित्यक्रिया करि गुरु पहिं आए। चरन सरोज सुभग सिर नाए।।
सतानंदु तब जनक बोलाए। कौसिक मुनि पहिं तुरत पठाए।।
जनक बिनय तिन्ह आइ सुनाई। हरषे बोलि लिए दोउ भाई।।
दो0-सतानंदûपद बंदि प्रभु बैठे गुर पहिं जाइ।
चलहु तात मुनि कहेउ तब पठवा जनक बोलाइ।।239।।
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सीय स्वयंबरु देखिअ जाई। ईसु काहि धौं देइ बड़ाई।।
लखन कहा जस भाजनु सोई। नाथ कृपा तव जापर होई।।
हरषे मुनि सब सुनि बर बानी। दीन्हि असीस सबहिं सुखु मानी।।
पुनि मुनिबृंद समेत कृपाला। देखन चले धनुषमख साला।।
रंगभूमि आए दोउ भाई। असि सुधि सब पुरबासिन्ह पाई।।
चले सकल गृह काज बिसारी। बाल जुबान जरठ नर नारी।।
देखी जनक भीर भै भारी। सुचि सेवक सब लिए हँकारी।।
तुरत सकल लोगन्ह पहिं जाहू। आसन उचित देहू सब काहू।।
दो0-कहि मृदु बचन बिनीत तिन्ह बैठारे नर नारि।
उत्तम मध्यम नीच लघु निज निज थल अनुहारि।।240।।
राजकुअँर तेहि अवसर आए। मनहुँ मनोहरता तन छाए।।
गुन सागर नागर बर बीरा। सुंदर स्यामल गौर सरीरा।।
राज समाज बिराजत रूरे। उडगन महुँ जनु जुग बिधु पूरे।।
जिन्ह कें रही भावना जैसी। प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी।।
देखहिं रूप महा रनधीरा। मनहुँ बीर रसु धरें सरीरा।।
डरे कुटिल नृप प्रभुहि निहारी। मनहुँ भयानक मूरति भारी।।
रहे असुर छल छोनिप बेषा। तिन्ह प्रभु प्रगट कालसम देखा।।
पुरबासिन्ह देखे दोउ भाई। नरभूषन लोचन सुखदाई।।
दो0-नारि बिलोकहिं हरषि हियँ निज निज रुचि अनुरूप।
जनु सोहत सिंगार धरि मूरति परम अनूप।।241।।
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बिदुषन्ह प्रभु बिराटमय दीसा। बहु मुख कर पग लोचन सीसा।।
जनक जाति अवलोकहिं कैसैं। सजन सगे प्रिय लागहिं जैसें।।
सहित बिदेह बिलोकहिं रानी। सिसु सम प्रीति न जाति बखानी।।
जोगिन्ह परम तत्वमय भासा। सांत सुद्ध सम सहज प्रकासा।।
हरिभगतन्ह देखे दोउ भ्राता। इष्टदेव इव सब सुख दाता।।
रामहि चितव भायँ जेहि सीया। सो सनेहु सुखु नहिं कथनीया।।
उर अनुभवति न कहि सक सोऊ। कवन प्रकार कहै कबि कोऊ।।
एहि बिधि रहा जाहि जस भाऊ। तेहिं तस देखेउ कोसलराऊ।।
दो0-राजत राज समाज महुँ कोसलराज किसोर।
सुंदर स्यामल गौर तन बिस्व बिलोचन चोर।।242।।
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सहज मनोहर मूरति दोऊ। कोटि काम उपमा लघु सोऊ।।
सरद चंद निंदक मुख नीके। नीरज नयन भावते जी के।।
चितवत चारु मार मनु हरनी। भावति हृदय जाति नहीं बरनी।।
कल कपोल श्रुति कुंडल लोला। चिबुक अधर सुंदर मृदु बोला।।
कुमुदबंधु कर निंदक हाँसा। भृकुटी बिकट मनोहर नासा।।
भाल बिसाल तिलक झलकाहीं। कच बिलोकि अलि अवलि लजाहीं।।
पीत चौतनीं सिरन्हि सुहाई। कुसुम कलीं बिच बीच बनाईं।।
रेखें रुचिर कंबु कल गीवाँ। जनु त्रिभुवन सुषमा की सीवाँ।।
दो0-कुंजर मनि कंठा कलित उरन्हि तुलसिका माल।
बृषभ कंध केहरि ठवनि बल निधि बाहु बिसाल।।243।।
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कटि तूनीर पीत पट बाँधे। कर सर धनुष बाम बर काँधे।।
पीत जग्य उपबीत सुहाए। नख सिख मंजु महाछबि छाए।।
देखि लोग सब भए सुखारे। एकटक लोचन चलत न तारे।।
हरषे जनकु देखि दोउ भाई। मुनि पद कमल गहे तब जाई।।
करि बिनती निज कथा सुनाई। रंग अवनि सब मुनिहि देखाई।।
जहँ जहँ जाहि कुअँर बर दोऊ। तहँ तहँ चकित चितव सबु कोऊ।।
निज निज रुख रामहि सबु देखा। कोउ न जान कछु मरमु बिसेषा।।
भलि रचना मुनि नृप सन कहेऊ। राजाँ मुदित महासुख लहेऊ।।
दो0-सब मंचन्ह ते मंचु एक सुंदर बिसद बिसाल।
मुनि समेत दोउ बंधु तहँ बैठारे महिपाल।।244।।
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प्रभुहि देखि सब नृप हिँयँ हारे। जनु राकेस उदय भएँ तारे।।
असि प्रतीति सब के मन माहीं। राम चाप तोरब सक नाहीं।।
बिनु भंजेहुँ भव धनुषु बिसाला। मेलिहि सीय राम उर माला।।
अस बिचारि गवनहु घर भाई। जसु प्रतापु बलु तेजु गवाँई।।
बिहसे अपर भूप सुनि बानी। जे अबिबेक अंध अभिमानी।।
तोरेहुँ धनुषु ब्याहु अवगाहा। बिनु तोरें को कुअँरि बिआहा।।
एक बार कालउ किन होऊ। सिय हित समर जितब हम सोऊ।।
यह सुनि अवर महिप मुसकाने। धरमसील हरिभगत सयाने।।
सो0-सीय बिआहबि राम गरब दूरि करि नृपन्ह के।।
जीति को सक संग्राम दसरथ के रन बाँकुरे।।245।।
ब्यर्थ मरहु जनि गाल बजाई। मन मोदकन्हि कि भूख बुताई।।
सिख हमारि सुनि परम पुनीता। जगदंबा जानहु जियँ सीता।।
जगत पिता रघुपतिहि बिचारी। भरि लोचन छबि लेहु निहारी।।
सुंदर सुखद सकल गुन रासी। ए दोउ बंधु संभु उर बासी।।
सुधा समुद्र समीप बिहाई। मृगजलु निरखि मरहु कत धाई।।
करहु जाइ जा कहुँ जोई भावा। हम तौ आजु जनम फलु पावा।।
अस कहि भले भूप अनुरागे। रूप अनूप बिलोकन लागे।।
देखहिं सुर नभ चढ़े बिमाना। बरषहिं सुमन करहिं कल गाना।।
दो0-जानि सुअवसरु सीय तब पठई जनक बोलाई।
चतुर सखीं सुंदर सकल सादर चलीं लवाईं।।246।।
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सिय सोभा नहिं जाइ बखानी। जगदंबिका रूप गुन खानी।।
उपमा सकल मोहि लघु लागीं। प्राकृत नारि अंग अनुरागीं।।
सिय बरनिअ तेइ उपमा देई। कुकबि कहाइ अजसु को लेई।।
जौ पटतरिअ तीय सम सीया। जग असि जुबति कहाँ कमनीया।।
गिरा मुखर तन अरध भवानी। रति अति दुखित अतनु पति जानी।।
बिष बारुनी बंधु प्रिय जेही। कहिअ रमासम किमि बैदेही।।
जौ छबि सुधा पयोनिधि होई। परम रूपमय कच्छप सोई।।
सोभा रजु मंदरु सिंगारू। मथै पानि पंकज निज मारू।।
दो0-एहि बिधि उपजै लच्छि जब सुंदरता सुख मूल।
तदपि सकोच समेत कबि कहहिं सीय समतूल।।247।।
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तुलसीदास | राम चरित मानस हिंदी में |
Ram Charit Manas Bal Kank in Hindi
चितवहि चकित चहूँ दिसि सीता। कहँ गए नृपकिसोर मनु चिंता।।
जहँ बिलोक मृग सावक नैनी। जनु तहँ बरिस कमल सित श्रेनी।।
लता ओट तब सखिन्ह लखाए। स्यामल गौर किसोर सुहाए।।
देखि रूप लोचन ललचाने। हरषे जनु निज निधि पहिचाने।।
थके नयन रघुपति छबि देखें। पलकन्हिहूँ परिहरीं निमेषें।।
अधिक सनेहँ देह भै भोरी। सरद ससिहि जनु चितव चकोरी।।
लोचन मग रामहि उर आनी। दीन्हे पलक कपाट सयानी।।
जब सिय सखिन्ह प्रेमबस जानी। कहि न सकहिं कछु मन सकुचानी।।
दो0-लताभवन तें प्रगट भे तेहि अवसर दोउ भाइ।
निकसे जनु जुग बिमल बिधु जलद पटल बिलगाइ।।232।।
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सोभा सीवँ सुभग दोउ बीरा। नील पीत जलजाभ सरीरा।।
मोरपंख सिर सोहत नीके। गुच्छ बीच बिच कुसुम कली के।।
भाल तिलक श्रमबिंदु सुहाए। श्रवन सुभग भूषन छबि छाए।।
बिकट भृकुटि कच घूघरवारे। नव सरोज लोचन रतनारे।।
चारु चिबुक नासिका कपोला। हास बिलास लेत मनु मोला।।
मुखछबि कहि न जाइ मोहि पाहीं। जो बिलोकि बहु काम लजाहीं।।
उर मनि माल कंबु कल गीवा। काम कलभ कर भुज बलसींवा।।
सुमन समेत बाम कर दोना। सावँर कुअँर सखी सुठि लोना।।
दो0-केहरि कटि पट पीत धर सुषमा सील निधान।
देखि भानुकुलभूषनहि बिसरा सखिन्ह अपान।।233।।
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धरि धीरजु एक आलि सयानी। सीता सन बोली गहि पानी।।
बहुरि गौरि कर ध्यान करेहू। भूपकिसोर देखि किन लेहू।।
सकुचि सीयँ तब नयन उघारे। सनमुख दोउ रघुसिंघ निहारे।।
नख सिख देखि राम कै सोभा। सुमिरि पिता पनु मनु अति छोभा।।
परबस सखिन्ह लखी जब सीता। भयउ गहरु सब कहहि सभीता।।
पुनि आउब एहि बेरिआँ काली। अस कहि मन बिहसी एक आली।।
गूढ़ गिरा सुनि सिय सकुचानी। भयउ बिलंबु मातु भय मानी।।
धरि बड़ि धीर रामु उर आने। फिरि अपनपउ पितुबस जाने।।
दो0-देखन मिस मृग बिहग तरु फिरइ बहोरि बहोरि।
निरखि निरखि रघुबीर छबि बाढ़इ प्रीति न थोरि।। 234।।
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जानि कठिन सिवचाप बिसूरति। चली राखि उर स्यामल मूरति।।
प्रभु जब जात जानकी जानी। सुख सनेह सोभा गुन खानी।।
परम प्रेममय मृदु मसि कीन्ही। चारु चित भीतीं लिख लीन्ही।।
गई भवानी भवन बहोरी। बंदि चरन बोली कर जोरी।।
जय जय गिरिबरराज किसोरी। जय महेस मुख चंद चकोरी।।
जय गज बदन षड़ानन माता। जगत जननि दामिनि दुति गाता।।
नहिं तव आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना।।
भव भव बिभव पराभव कारिनि। बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि।।
दो0-पतिदेवता सुतीय महुँ मातु प्रथम तव रेख।
महिमा अमित न सकहिं कहि सहस सारदा सेष।।235।।
सेवत तोहि सुलभ फल चारी। बरदायनी पुरारि पिआरी।।
देबि पूजि पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे।।
मोर मनोरथु जानहु नीकें। बसहु सदा उर पुर सबही कें।।
कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं। अस कहि चरन गहे बैदेहीं।।
बिनय प्रेम बस भई भवानी। खसी माल मूरति मुसुकानी।।
सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ। बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ।।
सुनु सिय सत्य असीस हमारी। पूजिहि मन कामना तुम्हारी।।
नारद बचन सदा सुचि साचा। सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा।।
छं0-मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर साँवरो।
करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो।।
एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषीं अली।
तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली।।
सो0-जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि।
मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे।।236।।
हृदयँ सराहत सीय लोनाई। गुर समीप गवने दोउ भाई।।
राम कहा सबु कौसिक पाहीं। सरल सुभाउ छुअत छल नाहीं।।
सुमन पाइ मुनि पूजा कीन्ही। पुनि असीस दुहु भाइन्ह दीन्ही।।
सुफल मनोरथ होहुँ तुम्हारे। रामु लखनु सुनि भए सुखारे।।
करि भोजनु मुनिबर बिग्यानी। लगे कहन कछु कथा पुरानी।।
बिगत दिवसु गुरु आयसु पाई। संध्या करन चले दोउ भाई।।
प्राची दिसि ससि उयउ सुहावा। सिय मुख सरिस देखि सुखु पावा।।
बहुरि बिचारु कीन्ह मन माहीं। सीय बदन सम हिमकर नाहीं।।
दो0-जनमु सिंधु पुनि बंधु बिषु दिन मलीन सकलंक।
सिय मुख समता पाव किमि चंदु बापुरो रंक।।237।।
घटइ बढ़इ बिरहनि दुखदाई। ग्रसइ राहु निज संधिहिं पाई।।
कोक सिकप्रद पंकज द्रोही। अवगुन बहुत चंद्रमा तोही।।
बैदेही मुख पटतर दीन्हे। होइ दोष बड़ अनुचित कीन्हे।।
सिय मुख छबि बिधु ब्याज बखानी। गुरु पहिं चले निसा बड़ि जानी।।
करि मुनि चरन सरोज प्रनामा। आयसु पाइ कीन्ह बिश्रामा।।
बिगत निसा रघुनायक जागे। बंधु बिलोकि कहन अस लागे।।
उदउ अरुन अवलोकहु ताता। पंकज कोक लोक सुखदाता।।
बोले लखनु जोरि जुग पानी। प्रभु प्रभाउ सूचक मृदु बानी।।
दो0-अरुनोदयँ सकुचे कुमुद उडगन जोति मलीन।
जिमि तुम्हार आगमन सुनि भए नृपति बलहीन।।238।।
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नृप सब नखत करहिं उजिआरी। टारि न सकहिं चाप तम भारी।।
कमल कोक मधुकर खग नाना। हरषे सकल निसा अवसाना।।
ऐसेहिं प्रभु सब भगत तुम्हारे। होइहहिं टूटें धनुष सुखारे।।
उयउ भानु बिनु श्रम तम नासा। दुरे नखत जग तेजु प्रकासा।।
रबि निज उदय ब्याज रघुराया। प्रभु प्रतापु सब नृपन्ह दिखाया।।
तव भुज बल महिमा उदघाटी। प्रगटी धनु बिघटन परिपाटी।।
बंधु बचन सुनि प्रभु मुसुकाने। होइ सुचि सहज पुनीत नहाने।।
नित्यक्रिया करि गुरु पहिं आए। चरन सरोज सुभग सिर नाए।।
सतानंदु तब जनक बोलाए। कौसिक मुनि पहिं तुरत पठाए।।
जनक बिनय तिन्ह आइ सुनाई। हरषे बोलि लिए दोउ भाई।।
दो0-सतानंदûपद बंदि प्रभु बैठे गुर पहिं जाइ।
चलहु तात मुनि कहेउ तब पठवा जनक बोलाइ।।239।।
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सीय स्वयंबरु देखिअ जाई। ईसु काहि धौं देइ बड़ाई।।
लखन कहा जस भाजनु सोई। नाथ कृपा तव जापर होई।।
हरषे मुनि सब सुनि बर बानी। दीन्हि असीस सबहिं सुखु मानी।।
पुनि मुनिबृंद समेत कृपाला। देखन चले धनुषमख साला।।
रंगभूमि आए दोउ भाई। असि सुधि सब पुरबासिन्ह पाई।।
चले सकल गृह काज बिसारी। बाल जुबान जरठ नर नारी।।
देखी जनक भीर भै भारी। सुचि सेवक सब लिए हँकारी।।
तुरत सकल लोगन्ह पहिं जाहू। आसन उचित देहू सब काहू।।
दो0-कहि मृदु बचन बिनीत तिन्ह बैठारे नर नारि।
उत्तम मध्यम नीच लघु निज निज थल अनुहारि।।240।।
राजकुअँर तेहि अवसर आए। मनहुँ मनोहरता तन छाए।।
गुन सागर नागर बर बीरा। सुंदर स्यामल गौर सरीरा।।
राज समाज बिराजत रूरे। उडगन महुँ जनु जुग बिधु पूरे।।
जिन्ह कें रही भावना जैसी। प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी।।
देखहिं रूप महा रनधीरा। मनहुँ बीर रसु धरें सरीरा।।
डरे कुटिल नृप प्रभुहि निहारी। मनहुँ भयानक मूरति भारी।।
रहे असुर छल छोनिप बेषा। तिन्ह प्रभु प्रगट कालसम देखा।।
पुरबासिन्ह देखे दोउ भाई। नरभूषन लोचन सुखदाई।।
दो0-नारि बिलोकहिं हरषि हियँ निज निज रुचि अनुरूप।
जनु सोहत सिंगार धरि मूरति परम अनूप।।241।।
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बिदुषन्ह प्रभु बिराटमय दीसा। बहु मुख कर पग लोचन सीसा।।
जनक जाति अवलोकहिं कैसैं। सजन सगे प्रिय लागहिं जैसें।।
सहित बिदेह बिलोकहिं रानी। सिसु सम प्रीति न जाति बखानी।।
जोगिन्ह परम तत्वमय भासा। सांत सुद्ध सम सहज प्रकासा।।
हरिभगतन्ह देखे दोउ भ्राता। इष्टदेव इव सब सुख दाता।।
रामहि चितव भायँ जेहि सीया। सो सनेहु सुखु नहिं कथनीया।।
उर अनुभवति न कहि सक सोऊ। कवन प्रकार कहै कबि कोऊ।।
एहि बिधि रहा जाहि जस भाऊ। तेहिं तस देखेउ कोसलराऊ।।
दो0-राजत राज समाज महुँ कोसलराज किसोर।
सुंदर स्यामल गौर तन बिस्व बिलोचन चोर।।242।।
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सहज मनोहर मूरति दोऊ। कोटि काम उपमा लघु सोऊ।।
सरद चंद निंदक मुख नीके। नीरज नयन भावते जी के।।
चितवत चारु मार मनु हरनी। भावति हृदय जाति नहीं बरनी।।
कल कपोल श्रुति कुंडल लोला। चिबुक अधर सुंदर मृदु बोला।।
कुमुदबंधु कर निंदक हाँसा। भृकुटी बिकट मनोहर नासा।।
भाल बिसाल तिलक झलकाहीं। कच बिलोकि अलि अवलि लजाहीं।।
पीत चौतनीं सिरन्हि सुहाई। कुसुम कलीं बिच बीच बनाईं।।
रेखें रुचिर कंबु कल गीवाँ। जनु त्रिभुवन सुषमा की सीवाँ।।
दो0-कुंजर मनि कंठा कलित उरन्हि तुलसिका माल।
बृषभ कंध केहरि ठवनि बल निधि बाहु बिसाल।।243।।
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कटि तूनीर पीत पट बाँधे। कर सर धनुष बाम बर काँधे।।
पीत जग्य उपबीत सुहाए। नख सिख मंजु महाछबि छाए।।
देखि लोग सब भए सुखारे। एकटक लोचन चलत न तारे।।
हरषे जनकु देखि दोउ भाई। मुनि पद कमल गहे तब जाई।।
करि बिनती निज कथा सुनाई। रंग अवनि सब मुनिहि देखाई।।
जहँ जहँ जाहि कुअँर बर दोऊ। तहँ तहँ चकित चितव सबु कोऊ।।
निज निज रुख रामहि सबु देखा। कोउ न जान कछु मरमु बिसेषा।।
भलि रचना मुनि नृप सन कहेऊ। राजाँ मुदित महासुख लहेऊ।।
दो0-सब मंचन्ह ते मंचु एक सुंदर बिसद बिसाल।
मुनि समेत दोउ बंधु तहँ बैठारे महिपाल।।244।।
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प्रभुहि देखि सब नृप हिँयँ हारे। जनु राकेस उदय भएँ तारे।।
असि प्रतीति सब के मन माहीं। राम चाप तोरब सक नाहीं।।
बिनु भंजेहुँ भव धनुषु बिसाला। मेलिहि सीय राम उर माला।।
अस बिचारि गवनहु घर भाई। जसु प्रतापु बलु तेजु गवाँई।।
बिहसे अपर भूप सुनि बानी। जे अबिबेक अंध अभिमानी।।
तोरेहुँ धनुषु ब्याहु अवगाहा। बिनु तोरें को कुअँरि बिआहा।।
एक बार कालउ किन होऊ। सिय हित समर जितब हम सोऊ।।
यह सुनि अवर महिप मुसकाने। धरमसील हरिभगत सयाने।।
सो0-सीय बिआहबि राम गरब दूरि करि नृपन्ह के।।
जीति को सक संग्राम दसरथ के रन बाँकुरे।।245।।
ब्यर्थ मरहु जनि गाल बजाई। मन मोदकन्हि कि भूख बुताई।।
सिख हमारि सुनि परम पुनीता। जगदंबा जानहु जियँ सीता।।
जगत पिता रघुपतिहि बिचारी। भरि लोचन छबि लेहु निहारी।।
सुंदर सुखद सकल गुन रासी। ए दोउ बंधु संभु उर बासी।।
सुधा समुद्र समीप बिहाई। मृगजलु निरखि मरहु कत धाई।।
करहु जाइ जा कहुँ जोई भावा। हम तौ आजु जनम फलु पावा।।
अस कहि भले भूप अनुरागे। रूप अनूप बिलोकन लागे।।
देखहिं सुर नभ चढ़े बिमाना। बरषहिं सुमन करहिं कल गाना।।
दो0-जानि सुअवसरु सीय तब पठई जनक बोलाई।
चतुर सखीं सुंदर सकल सादर चलीं लवाईं।।246।।
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सिय सोभा नहिं जाइ बखानी। जगदंबिका रूप गुन खानी।।
उपमा सकल मोहि लघु लागीं। प्राकृत नारि अंग अनुरागीं।।
सिय बरनिअ तेइ उपमा देई। कुकबि कहाइ अजसु को लेई।।
जौ पटतरिअ तीय सम सीया। जग असि जुबति कहाँ कमनीया।।
गिरा मुखर तन अरध भवानी। रति अति दुखित अतनु पति जानी।।
बिष बारुनी बंधु प्रिय जेही। कहिअ रमासम किमि बैदेही।।
जौ छबि सुधा पयोनिधि होई। परम रूपमय कच्छप सोई।।
सोभा रजु मंदरु सिंगारू। मथै पानि पंकज निज मारू।।
दो0-एहि बिधि उपजै लच्छि जब सुंदरता सुख मूल।
तदपि सकोच समेत कबि कहहिं सीय समतूल।।247।।
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